(रजा फाउंडेशन के युवा कार्यक्रम में देश भर के युवा लेखक न केवल संवाद कर रहे बल्कि वे साहित्य और कला की भारतीय परंपरा से सीख भी रहे हैं। पिछले हफ्ते रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम में युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने रज़ा पर एक आलेख पेश किया। रज़ा जन्मशती वर्ष में एक युवा लेखक किस तरह एक बड़े चित्रकार को देखता है। तो पेश है यह आलेख।)
युवा के इस आयोजन की वजह से पिछली बार मुझे महात्मा गांधी की पुस्तक ‘प्रार्थना प्रवचन’ पढ़ने का मौका मिला। किताबें ज़ाहिरन बदलतीं हैं हमें… ‘प्रार्थना प्रवचन’ ने मुझे खुद से मिलवाया। अपने आप को और अधिक स्वीकार करना सिखाया… बहुत तो नहीं पर तनिक से गांधी को अपने अंतस में समावेशित करना सिखाया… गांधी की बात करते हुए चलते हैं उस चित्रकार की ओर जिनके जीवन का दर्शन गाँधी के पद-चिह्न थे। जिनकी वजह से आज हम चालीसेक युवा एकत्रित हुए हैं।
मैंने रज़ा को जानने की कोशिश की, कुछ किताबों और कुछ आलेखों के सहारे। यह पूरी प्रक्रिया एक यात्रा थी, जिसमें कई भाव थे, कभी नमनाक आँखें, कभी सिहरन, कभी सम्मोहन, कभी गर्व…
सैयद हैदर रज़ा का पूरा जीवनवृत्त एक असाधारण यात्रा को सबसे अधिक सहज भाव में जीने की कला के तौर पर नज़र आता है।
यशोधरा डालमिया जी की पुस्तक पलटते हुए उनकी ज़िंदगी के सफ़हे यूं खुले कि ज़हन ने स्वयं ही उस महान चित्रकार की एक तस्वीर बनानी शुरू कर दी।
बचपन को थोड़ा परे रखते हुए मैं उस जगह से शुरुआत करना चाहती हूँ जो मुझे रज़ा के प्रति सम्मोहित करता गया। विभाजन का दर्द और भारतीयता संभाले रखने की वह चाह कि ज़िंदगी के पाँच दशक फ़्रांस में गुज़ारने के बाद भी रज़ा भारतीय ही रहे… वे हिन्दुस्तानी नहीं, भारत के नागरिक थे और मैं ऐसा क्यों कह रही हूँ, यह आने वाले पैराग्राफ में स्पष्ट होगा।
सतीश गुजराल, कृष्ण खन्ना और रज़ा कुछ उन चित्रकारों में थे जिन्होंने विभाजन का दर्द सद्य: झेला था। रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, यहाँ तक कि उनकी अपनी पत्नी फ़ातिमा भी रज़ा को छोड़कर चली गयीं?
रज़ा बने रहे, अपने परिवार के इकलौते सदस्य के तौर पर बने रहे। दमोह के आत्मीय वातवरण का अचानक से ही अप्रिय हो जाना और परिवार के सभी सदस्यों का चले जाना, अकेले होने का यह संताप उनके शब्दों में, उनके चित्रों में परिलक्षित होता रहा। भारतीय बने रहने का संकल्प भी बार-बार उद्भाषित होता रहा-
एक जगह वे कहते हैं, “बावजूद इसके कि विभाजन मेरी निगाह में एक त्रासदी था, मैंने हिंदुस्तान में ही रहने का निश्चय किया और इस निश्चय को लेकर मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। मुझे ख़ुशी है कि मैंने अपना नाम, अपना मज़हब, अपना पासपोर्ट बरक़रार रखा और फ्रांस में बावन साल गुज़ारने के बाद भी हिंदुस्तानी नागरिक बना रहा।”
रज़ा के इस संकल्प और उनके चित्रों में इसके परिलक्षण पर कला-समीक्षक और लेखक इना पुरी कहती हैं, “रज़ा जहां भी रहे, जिस भी हाल में रहे, वे अपनी मातृभूमि से कभी दूर नहीं रहे। लड़कपन के दिनों की गहरी काली रातें उनके साथ रहीं और यह उनके साथ इतना रहा कि वे अक्सर किसी अजनबी संगीत की धुनों पर थिरक रहे आदिवासी नर्तकों के भव्य रूप की कल्पना के आगोश में डूब जाते।”
आह! यही तो मंडला था। यही तो रज़ा की आत्मा थी…
रज़ा के चित्रों को लेकर एक सुंदर वाकिआ और याद आता है। मैं इसे रज़ा का आत्म-परिष्करण भी मानूँगी। घटना न्यूयॉर्क की उनकी यात्रा से जुड़ी हुई है। उन दिनों वे प्रसिद्ध हो रहे थे। उनसे मिलने आलोचक हेस आये। उन्होंने रज़ा से बात की और कहा कि रज़ा की कला बेहद फ्रांसीसी है। यह चित्रकार के लिए बड़ा झटका था पर सख्त ईमानदार चित्रकार ने इसे नकारा नहीं, वरन् स्वीकार किया।
रज़ा ने इस घटना को नये रक्त संचरण की तरह लिया। उन्होंने पेरिस में बहुत कुछ सीखा पर उनकी आत्मा में पेरिस नहीं बसता था। वहाँ ‘सौराष्ट्र’ सरीखी कृतियाँ रहा करती थीं। जिसमें फ्रांसीसी कला का अमूर्तन तो था पर उसके आत्म में रज़ा ख़ुद थे। उनकी मातृभूमि का परिवेश था।
न्यूयॉर्क यात्रा पर रज़ा की एक टीप यह कहती है कि इस यात्रा ने मुझे अपने अंदर देखने की दृष्टि थी। एक युवा लेखक के तौर पर मैं जब रज़ा को पढ़ती हूँ, रज़ा को जानती हूँ तो और प्रेरित होती हूँ कि अपने ऊपर केन्द्रित आलोचकीय दृष्टिकोणों का सम्मान कर सकूँ। अपने आप को परिष्करण के लिए प्रेरित कर पाऊँ।
वे महान थे। बतौर कलाकार भी और बतौर व्यक्तित्व भी। एक महान कलाकार अपने नवागतों के लिए कैसा था, यह जानने की उत्कंठा मुझमें तीव्र थी। इसी के नाते मैंने अखिलेश का लिखा “रज़ा: मैंने जैसा देखा” गह लिया और उन तक पहुँच भी गयी यह जानने को कि मुझे सैयद हैदर रज़ा के बारे में वह अनोखी बात बताइए जो आपने अपनी किताब में नहीं लिखी है।
अखिलेश यहाँ श्रोताओं में उपस्थित हैं संभवतः और हम युवाओं को अपनी टीप से तनिक और परिमार्जित करने वाले भी हैं, मैं उनकी उपस्थिति में रज़ा के विषय में उनके कहे इस वाक्य को दर्ज करती हूँ –
“ रज़ा उन कुछेक चित्रकारों में से थे जिन्होंने अपने युवाओं का ख़याल रखा। सब कुछ से अनजान इन युवा चित्रकारों को यह बताया कि कहाँ जाना है, क्या करना है। कैसे करना है। केवल रज़ा, हुसेन और स्वामीनाथन इस तरह की टीप के साथ युवाओं का मार्गदर्शन करते हैं।“
अखिलेश ने जो कहा है उससे मिलती-जुलती एक घटना का वर्णन उन्होंने रज़ा पर केन्द्रित अपनी पुस्तक में भी किया है।
वे जब फ्रांस में रज़ा के यहाँ पहुँचते हैं तो उनके लिविंग रूम में अपना बनाया हुआ चित्र देखते हैं। इस वाकये को पढ़ते हुए मैं थोड़ा बहुत वह चित्रकार हो जाना चाह रही थी जिसकी तस्वीर उस लिविंग रूम में थी। एक उदीयमान चित्रकार के लिए इससे बड़ा हासिल क्या होगा… अखिलेश आगे लिखते हैं, उनके संग्रह में उन नये चित्रकारों के चित्र भी थे जिनका नाम रज़ा भूल गये थे।
इस वाकये को दर्ज करते हुए मैं उस हिस्से को नहीं भूलना चाहती हूँ जब रज़ा अपने यहाँ आए इस युवा चित्रकार को फ्रांस की समय सारिणी की इज्ज़त करने की टीप देते हैं। यह छोटी सी बात होगी, अन्य के लिए, प्रगति-पथ पर बढ़ रहे युवा के लिए इसे जीवन-सार माना जाए।
उनके समय के एक अन्य युवा चित्रकार मनीष पुष्कले भी रज़ा को कुछ यूं ही याद करते हैं। एक सुंदर किस्सा उस वक़्त का मनीष दर्ज करते हैं जब लगभग अशक्त हो चुके रज़ा रोज़ स्टूडियो आते हैं। वे चल पाने में, ख़ुद से खाना खाने में असमर्थ हैं पर उनके चित्रों में उनकी ऊर्जा निहित है। यह मुझ सरीखे जीवन पथ के शिक्षार्थियों के लिए अपनी रचना प्रक्रिया को बचाये रखने की सीख है।
मनीष पुष्कले कहते हैं ज्यामिती रज़ा के बनाये चित्रों में आधार की तरह थी और मैं हतप्रभ होती हूँ उस जीनियस चित्रकार पर जिसने न केवल गणितीय संरचना के आकार रूप को बेहतरीन ढंग से साधा था बल्कि लगभग अलग दिशा में बहती विधाओं/भावनाओं में भी यूं ही डूबता उतरता था।
उनकी कई पेंटिंग पर शब्द अंकित रहते थे। कभी कोई शेर, कभी किसी कविता की पंक्ति… 1981 में उनकी बनायी पेंटिंग “माँ” जिसे उनकी सबसे शानदार कृतियों में शुमार किया जाता है में एक पंक्ति है
“माँ लौट कर जब आऊँगा, क्या लाऊँगा…” यह पंक्ति रज़ा न्यास के कर्ता-धर्ता और हम जिस वक़्त के गवाह हैं उस वक़्त के सबसे महत्वपूर्ण कवियों और साहित्यिक व्यक्तियों में एक अशोक वाजपेयी जी की है।
यशोधरा डालमिया लिखती हैं, रज़ा की “माँ” नामक कृति इस कविता पंक्ति में व्यक्त घर लौटने की लालसा का प्रदीप्त रंग-युक्त उदबोधन है।
रज़ा रंगों को अमूर्त आकारों में उकेरते थे और इन रंगों में प्रेम ख़ास अवयव होता था। चाहे वह उनका प्रेम उनकी संगिनी जैनीन के लिए हो या मैत्रीवत प्रेम कृष्ण खन्ना के लिए।
विरह के दिनों में वे जैनीन को बार-बार लिखते हैं, तुम मुझे खत लिखो, लगातार लिखो कि मुझमें इससे नव-उत्साह का संचरण होता है। कृष्ण खन्ना को लिखे उनके पत्र में प्रेम है, विकलता है, दोस्त के लिए चिंताएँ हैं… कलाकार का अपने भावों में गहरे उतरना-पार पाना है।
हाँ, यहाँ खुसरो की पंक्ति “वाको दरिया प्रेम का जो डूबा सो पार … ” उसके अनुभूत अर्थ में जी लेना भी है। जिससे प्रेम किया उसके समीप शिशुवत हो जाना प्रेम की असीमता है। जितने प्रेमिल और शिशुवत वे अपनी ज़मीन के लिए थे उतने ही अपनी प्रेयसी के लिए भी।
जैनीन जब फ़ानी दुनिया के लिए विदा हो रही थीं, उन्होंने कहा, “मेरे र का ख़याल रखना।”
अखिलेश इस बात की तसदीक़ करते हैं और कहते हैं, “जैनीन की मृत्यु के बाद रज़ा पेरिस में गुम हो गये थे। वे उस बालक की तरह थे जो इस दुनिया से सम्बन्ध बिठाने में ख़ुद को अक्षम पाता है।“
यही बात यशोधरा डालमिया भी रेखांकित करती हैं कि जैनीन का होना रज़ा के जीवन में उन मूल्यों का होना था जिन्हें वे जी रहे थे। यह एक अप्रतिम कलाकार का प्रेम के मूल्यों को कैनवस पर रचना भी था।
दस से बारह मिनट नाकाफ़ी हैं उस चित्रकार को व्यक्त करने के लिए जिन्हें मैं कुछ दिनों से जी रही थी। जिनके खतों में उनके साथ थी। जिनकी जीवन यात्राओं को कभी नम तो कभी मुग्ध निगाहों से निहार रही थी किन्तु वक़्त है और उसकी गरिमा का ख़याल बेहद ज़रूरी है। रज़ा स्वयं होते तो शायद वक़्त की अवमानना पर आँखें तरेर देते। उनकी इमनन्स पेंटिंग पर महात्मा गाँधी के ये शब्द दर्ज हैं–
“मृत्यु के दरमियान ज़िंदगी बसर करती है।
झूठ के दरमियान सच निकल आता है।
अंधेरे के मध्य निकल आता है प्रकाश…”