— नन्द भारद्वाज —
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में जब यह कहा जाता है कि उनका जीवन ही उनका संदेश है तो स्वाभाविक रूप से यह इच्छा उत्पन्न होती है कि उस प्रेरणादायी जीवन को अवश्य जानना-समझना चाहिए। देशवासी अपने आत्मीय संबोधन में उन्हें सदा से बापू कहकर याद करते रहे हैं, उन्हीं बापू की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ की चर्चा मैं अपने स्कूली दिनों में कई बार सुन चुका था, लेकिन उसे पुस्तक के रूप में ठीक से देखने-पढ़ने का संयोग वर्षों बाद कॉलेज के पुस्तकालय में पहुँचने के बाद ही बन पाया। अपनी विकसित होती समझ के बूते उस पुस्तक के कुछ पृष्ठ-प्रसंग पढ़ने की कोशिश की तो कुछ खास नयी बात न लगने के कारण वह उत्साह भी ज्यादा देर बना न रह सका, क्योंकि गांधी जी का बचपन और उनका निजी जीवन मुझे अपने जीवन के समान सामान्य-सा ही लगा। परिणाम यह हुआ कि उस समय वह जीवन-कथा आधी-अधूरी ही पढ़ी जा सकी। यों आठवें दर्जे तक के स्कूली पाठ्यक्रम में दो-चार पाठ शायद इस आत्मकथा से अवश्य पढ़ने में आए होंगे और कुछ गांधीजी के बारे में स्वयं की इच्छा-जिज्ञासा के वशीभूत उन्हें जानने-समझने की कोशिश जरूर रही।
यों स्कूली शिक्षा के अलावा भी अनौपचारिक रूप से उनके बारे में जानने के अवसर मिलते रहे। देश की आजादी के आन्दोलन में उनकी भूमिका को लेकर इतिहास के पाठ्यक्रम में बहुत कुछ पढ़ते रहे थे। जब भी कभी गांधीजी के जीवन के बारे में समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में इधर-उधर कुछ पढ़ा या जाना, तो यही संकेत मिला कि ये सभी बातें उनकी अपनी जीवन-कथा से ही ली गयी होंगी।
अपनी कॉलेज शिक्षा के दौरान गांधी और गांधीवाद के बारे में बहुत कुछ जानने-समझने को मिला। आजादी के आन्दोलन में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को भी ठीक से जाना-समझा और उनके आदर्शवादी विचारों से असहमति के बावजूद उनके प्रति श्रद्धा और गहरा आदरभाव सदा बना रहा, लेकिन उनके आदर्शवादी विचारों से अपनी राय-समझ कुछ कम ही मेल खाती थी। संयोग से वर्ष 1973 के आरंभिक दिनों में अपने शोध कार्य के सिलसिले में एकबार जोधपुर के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के पुस्तकालय में जब इस किताब पर मेरी नजर पड़ी और किताब के पन्ने पलटने लगा तो पास ही अपने आसन पर बैठे संस्थान के मुखिया श्री नेमीचन्द्र जैन ‘भावुक’ ने मेरे हाथ में बापू की जीवनी देखकर यही सलाह दी कि अगर इसे अब तक ठीक से न पढ़ा हो तो मुझे इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए। मैंने उनकी सलाह का आदर-सम्मान करते हुए पुस्तक को अपने नाम इश्यू करवाया और अगले दो दिनों में उसे पूरा पढ़ गया।
‘सत्य के प्रयोग’ नामक इस पुस्तक को पूरी पढ़ने के बाद ही यह जाना कि मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह साधारण शख्स अपने भीतर कितने बड़े महापुरुष का व्यक्तित्व सँजोये बैठा है, जिसके सामने तथाकथित महात्माओं और स्वाधीनता संग्राम के अगुवा राजनेताओं की चमक नितान्त फीकी दिखाई देती है।
गांधीजी की इसी आत्मकथा से मैंने पहली बार उनके बचपन, उनके व्यक्तित्व और आगे की जीवन-यात्रा को ठीक तरह से जाना-समझा। यह भी जाना कि उनका जन्म और बचपन तो पोरबंदर में ही बीता, लेकिन जब वे सात वर्ष की अवस्था में पहुँचे तब तक उनके पिता करमचंद गांधी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य होकर अपने परिवार सहित राजकोट आ गये थे। बीच में कुछ अरसे तक वे राजपूताना की बीकानेर रियासत के दीवान भी रहे, लेकिन उनका परिवार राजकोट में ही रहा। दीवान करमचंद गांधी के तीन बेटे थे, जिनमें मोहनदास सबसे छोटे थे। जन्म के बाद समझ आने पर पाँच बरस की अवस्था में उनका पोरबन्दर की एक पाठशाला में दाखिला करवा दिया गया था, जहाँ उन्होंने आरंभिक अक्षर-ज्ञान और गिनती के आँकड़े तो जरूर सीख लिये, लेकिन बुनियादी स्कूली शिक्षा राजकोट की गुजराती ग्रामशाला में ही पूरी हुई। उन्हीं दिनों राजकोट में एक नाटक कंपनी आयी थी और उसने राजा हरिश्चन्द्र की पौराणिक कथा पर आधारित एक नाटक खेला, जिसे देखने के उपरान्त मोहनदास गांधी के मन और चेतना पर गहरा असर पड़ा। उन्हें इस बात की शिकायत थी कि सभी लोग हरिश्चन्द्र सरीखे सत्यवादी क्यों नहीं होते? उसी अनुभव और सत्य को उन्होंने अपने जीवन का मूल-मंत्र बना लिया। जब वे हाई स्कूल में पहुँचे तो उन्हीं दिनों तेरह वर्ष की आयु में उनका कस्तूरबाई से विवाह कर दिया गया। वे इस विवाह के लिए मन से कतई तैयार नहीं थे, लेकिन उस समय माता-पिता के फैसले का विरोध करने का साहस किसी में नहीं होता था।
सन 1887 में उन्होंने हाई-स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा तो पास कर ली, लेकिन उससे एक वर्ष पहले पिता करमचंद गांधी के स्वर्गवास के कारण परिवार की आर्थिक दशा काफी कमजोर हो गयी थी। इसी वजह से आगे कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए मोहनदास ने बंबई जैसे महानगर की बजाय भावनगर जैसे छोटे शहर में जाने की ही इच्छा रखी। उन दिनों उनके परिवार के हितैषी माव जी दवे ने उनकी माँ को यही सलाह दी कि मोहनदास को बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए विलायत (लंदन) भेज देना चाहिए, जहाँ उनका अपना बेटा पहले से वकालत की शिक्षा प्राप्त कर रहा था। मोहनदास की माताजी और उनके बड़े भाई को माव जी की सलाह तो अच्छी लगी, लेकिन घर की आर्थिक दशा कमजोर होने के कारण वे दुविधा में थे। इसका हल यही निकाला गया कि उन्हें कस्तूरबाई के आभूषण बेचने पड़े और बड़े भाई को कुछ कर्ज भी लेना पड़ा, उसी से मोहनदास को विलायत भेजने का इंतजाम किया गया।
माता जी अपने बेटे के बेहतर भविष्य के लिए उसे विलायत भेजना जरूरी तो समझ रही थीं, लेकिन विलायती जीवन के तौर-तरीकों और वहाँ के खान-पान को लेकर बेहद चिन्तित थीं। इसलिए उन्होंने अपने समाज के प्रतिष्ठित जैन साधु बेचरगी स्वामी के सम्मुख मोहनदास से मांस, मदिरा और पर स्त्री–संग से दूर रहने की प्रतिज्ञा करवायी और इस तरह उन्हें विलायत भेजने का इंतजाम पूरा हुआ। निश्चय ही बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए मोहनदास को विलायत भेजना उनकी जिन्दगी का एक बड़ा फैसला था, जिससे उनके जीवन की दिशा ही बदल गयी।
लंदन पहुँचने के बाद उन प्रारंभिक दिनों में मोहनदास गांधी को काफी संघर्ष करना पड़ा, जीवन-निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कई तरह के छोटे-मोटे काम भी करने पड़े। सबसे बड़ी परेशानी तो उन्हें माँ के सामने की गयी प्रतिज्ञाओं के कारण रोजमर्रा के खान-पान को लेकर ही बनी रहती। लंदन में प्रारंभिक संपर्क के तौर पर उनके पास जिन चार लोगों के नाम सिफारिशी पत्र थे, उनमें डॉ प्राणजीवन मेहता, दलपतराम शुक्ल और दादा भाई नौरोजी के नाम प्रमुख थे। डॉ मेहता ने उन प्रारंभिक दिनों में उन्हें अच्छा सहारा और सलाहें दीं, अपने मित्र के घर उनके रहने की व्यवस्था करवायी, जिसने उन्हें भाई की तरह रखा, अंग्रेजी में बातचीत की आदत डलवायी, जिससे वे उस मुल्क में रहने-जीने के तौर-तरीके जान सके। विलायत में अपनी पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने ईसाई धर्म और अन्य धर्मों के बारे में बहुत-कुछ नया पढ़ा-समझा, कई धर्माचार्यों की जीवनियाँ पढ़ीं और इस प्रक्रिया में अपने सनातन धर्म के प्रति उनकी आस्था और दृढ़ हुई। साहित्य और समाज-दर्शन के अन्य विषयों के संबंध में उनकी समझ गहरी बनी। लंदन में रहते हुए वे यूरोप के दूसरे देशों में भी गये और वहाँ के जीवन की बारीकियों को देखा-समझा।
बेशक गाँधीजी की जीवन के विभिन्न विषयों में गहरी रुचि रही, लेकिन अपनी वकालत की पढ़ाई के बारे में भी वे उतने ईमानदार और गंभीर बने रहे। उन्होंने ब्रूम के ‘कॉमन लॉ’ को पढ़ा-समझा और मेइन के ‘हिन्दू लॉ’ की बुनियादी जानकारियाँ भी लीं। अपने लंदन-प्रवास के दौरान वे दादा भाई नौरोजी के संपर्क में भी आए और उनसे गहरी आत्मीयता पायी। वे उनके स्वदेश-प्रेम से बेहद प्रभावित रहे और उन्हीं की वजह से अपने देश के स्वाधीनता आन्दोलन के विषय में उनकी जानकारियाँ बेहतर बनीं। विलायत में बैरिस्टरी की शिक्षा के बावजूद अपने देश के हिन्दू लॉ का व्यवस्थित और व्यावहारिक ज्ञान उन्हें विलायत से लौटने के बाद ही हो सका। 10 जून 1891 को मोहनदास गांधी ने लंदन से बैरिस्टर की डिग्री हासिल की, 11जून को इंगलैंड हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12जून को हिन्दुस्तान की वापसी यात्रा पर रवाना हो गये।
( जारी )