महेश आलोक की चार कविताएँ

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फोटो : कौशलेश पांडेय

1. किसान

उसके पास जितनी जमीन है उससे ज्यादा आँसू हैं
उसके पास जितनी खेती है
उससे ज्यादा दुख है

उसके पास जितना पानी है
पानी के भीतर उससे ज्यादा पुराने जमींदार साहब
द्वारा खैरात में दिया गया पोखर है
पोखर सूखा है

पचास कोस दूर धीरे धीरे रेत बनती हुई नदी है

उसके पास जितनी फसल है उससे ज्यादा
उसके पास कर्ज है

उससे ज्यादा उसके पास मिट्टी का अकेलापन है
उससे ज्यादा उसके पास चूल्हे में धुआँ है

उससे ज्यादा उसके पास मिट्टी की कम होती साँसें हैं
उससे ज्यादा उसके पास घर की कम होती साँसें हैं
उससे ज्यादा उसके पास अपने आकाश
अपने सपनों की कम होती साँसें हैं

उसकी कम होती साँसों का हिसाब-किताब
जमीन खेत पानी फसल और मिट्टी की
बेतरतीब डायरी में दर्ज है

आँसू दुख धुआँ कर्ज भूख और अकेलेपन ने
उसकी हत्या की है

वह किसान है
उसने आत्महत्या नहीं की है

 

2. बहस यहाँ से शुरू करें

वह जो लटक गया पेड़ पर
किसान नहीं था

वह जो लटक गया पेड़ पर
पिता नहीं था

वह जो लटक गया पेड़ पर
हादसा नहीं था

वह जो लटक गया पेड़ पर
बहस यहाँ से शुरू करें कि
नागरिक था वह

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

3. खेतों के रोने की आवाज

खेतों के रोने की आवाज सुनी है आपने

किसने सुनी है वह आवाज
जब फीता लेकर नापा जा रहा होता है
उनके हृदय की लम्बाई

या तौला जा रहा होता है उनका वजन
सिक्के और संसद की आँखों में तैरते
सपने के साथ

उन्हें कहा जा रहा है रोशनी नृत्य करेगी
उनके कपाल पर

हम बाल्टी-बाल्टी निकाल रहे हैं
फेंक रहे हैं अँधेरा
उनके दिलों से बाहर

हम अँधेरा बाहर फेंकने का नियम बना रहे हैं
कह रहे हैं वे

खेत रोते-रोते हँस रहे हैं
और पूछ रहे हैं खुद से
हमें इतना मूर्ख क्यों समझा जा रहा है

 

4. खेत जब चिल्ला रहे थे

खेत जब चिल्ला रहे थे उनकी आवाज
किसी को सुनाई नहीं दे रही थी
कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ थीं जिनमें इतना खून लगा था कि मिट्टी
लाल होने से इनकार तो कतई नहीं कर सकती थी
चन्द्रमा जब नदी में अपनी खूबसूरती निहार रहा था और ईश्वर
भोजन की खुशबू लेने के बाद सोने की तैयारी कर रहा था
हवा के जिस्म पर खरोंचें थीं और खेत की मेंड़ पर खड़े
रातरानी के फूल खुशबू की सियासत के विरुद्ध
विद्रोह की तैयारी कर रहे थे

खेत जब चिल्ला रहे थे
लोग टमाटर दस रुपए किलो खाकर इतने प्रसन्न थे
कि खेत की पीड़ा को किसान की पीड़ा के साथ जोड़कर
देखने का नजरिया भी लगभग भुला चुके थे
यह एक इतना बड़ा सामाजिक हादसा था जिसपर
मध्यवर्गीय बौद्धिक समुदाय बोलने से कतरा रहा था
मुझे बोलने की इजाजत दें कि यहाँ पर
हर तरह के प्रगतिशील सिद्धान्त की शव-यात्रा
कब निकल गयी किसी को पता भी न चला

खेत अपने किसानों से इतना प्रेम करते थे
कि उसकी तुलना किसी अन्य प्रेम से करना कठिन था
वे किसी भी सत्ता के चेहरे पर मिट्टी पोत सकते थे अगर
किसानों को उनके नाखून की लम्बाई जितना भी कष्ट हुआ तो
वे पृथ्वी की कोख में पुनः वापस लौट जाने के बारे में भी
सोच सकते थे। वे जानते थे कि अगर लौटने की प्रक्रिया में
पृथ्वी के गर्भ तक पहुँच गये तो ज्वालामुखी की तरह
फट सकते हैं और सत्ताएँ मोम की तरह
पिघल सकती हैं

खेत चिल्ला रहे थे और जानते थे कि लोग लगभग
इतने बहरे हो गये हैं जितनी सत्ताएँ जन्मजात होती हैं
फिर भी वे चिल्ला रहे थे कि उन्हें विश्वास था
कि लोगों के कान के परदों को थोड़ी सी मरम्मत के साथ
सही किया जा सकता है

सत्ताओं का तो कतई नहीं

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