“लोहिया की विरासत और नेपाल की लोकतांत्रिक यात्राएँ”

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suresh khairnar

— डॉ. सुरेश खैरनार —

12 अक्तुबर को डॉ. राममनोहर लोहिया की 58 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन इस उपलक्ष्य में मुझे लगा कि अभी हाल ही में नेपाल में जे – झेड आंदोलन के बाद सत्तापालट हो रहा था. तभी से ही मुझे डॉ. लोहिया और जेपी की याद आ रही है. क्योंकि मुझे पहली बार (1994) नेपाल के मानवाधिकार संगठन हूरोन शायद नेपाली काँग्रेस की ही विंग है क्योंकि प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला उद्घाटन के लिए थे के. और उनके मंत्रिमंडल के कुछ मंत्री भी हाजीर थे और हमे स्टेट गेस्ट के रूप में रखा गया था. इस अधिवेशन में शामिल होने के लिए जाने का मौका मिला था. अधिवेशन में मैनें मेरे संबोधन की शुरुआत ही नेपाल के राजशाही के खिलाफ मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर डॉ. राममनोहर लोहिया ने ही सुत्रपात किया था. और उनके नारीवादी दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में नेपाल की महिलाओं को लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सेक्सवर्कर के रूप में हो रहें शोषण की बात क्या हूरोन को मानवाधिकार के उल्लंघन की नहीं लग रही है ?.यह सुनने के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री. गिरिजा प्रसाद कोईराला ने मेरे भाषण बाद अपने जगह से उठकर पोडियम पर आकर दोबारा माइक हाथों में लेकर मुझे कहाँ कि “मै डॉ. सुरेश खैरनार को आश्वासन देता हूँ कि जब आगे वह नेपाल आएंगे तो इस ट्रैफिकिंग को हम लोगो के तरफ से बंद कीया हुआ देखेंगे.”

जेन – झेड आंदोलन के बाद वर्तमान कार्यकारी प्रधानमंत्री का निर्वाहन कर रही न्यायमूर्ति सुशिला कार्कि जी ने अपने महिला संघठन मे दुसरे दिन मुझे अलग से इसी विषय पर विस्तार से चर्चा करने के लिए काठमांडू के अपने आवास पर आमंत्रित करने का प्रसंग, जैसे ही उनका नाम कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में आया. तभी मुझे यह सब याद आ रहा था. और उस संघठन के भी प्रेरणा स्रोत डॉ. लोहिया ही थे. यह बात मुझे सुशिलाजीने विशेष रूप से कहीं थी और नेपाली भाषा में देवनागरी लिपि में लिखी अनुवाद की हुई नर-नारी समता, सिता द्रोपदी और सावित्री, वशिष्ठ और वाल्मिकी ऐसे कुछ शिर्षक याद आ रहे हैं. लोहिया की कुछ पुस्तिकाएं भी भेट दी थी. और टिपिकल नेपाल का विशेष भोजन खिलाया था और उस दौरान वह नेपाल सर्वोच्च न्यायालय मे अधिवक्ता थी.

लेकिन फिलहाल मैं डाक्टरसाहब के 58 वे पुण्यस्मरण दिवसपर  कुछ लिखने के लिए  पिछले कुछ दिनों से उज्जैन के डॉ. प्रविण मल्होत्राजी ने “डॉ. लोहिया देशज समाजवाद और समाजवादी आंदोलन की विचारधारा” शिर्षक से एक किताब को इसी साल के शुरुआत में 349 पन्नौ की छापने का कष्ट किया है. जो मुलतः उनके पीएचडी का प्रबंध है. इसलिए इतनी बड़ी साईज और साडेतीनसौ पन्ने को मेरी कोशिश तो पुस्तक पढ़ने के बाद विस्तार से समिक्षा लिखने की हैं. लेकिन नेपाल के राजशाही के खिलाफ चले आंदोलन के प्रेरणा स्रोत डॉ. राममनोहर लोहिया के योगदान को लेकर डॉ. प्रविण मल्होत्राजी ने ढेढ पन्ना 48,49, 50 (ब) “नेपाली क्रांति और लोहिया की भुमिका” इस शिर्षक के मजमून को हूबहू नकल करते हूऐ दे रहा हूँ.

(ब)  नेपाली क्रांति और लोहिया की भूमिका –

स्वातत्रोंत्तर भारतीय राजनीति और समाजवादी आंदोलन के विकास के इस युग में, नेपाल में नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्राप्ति के लिए लोहिया की संघर्षशील भूमिका और उनके योगदान का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि लोहिया ने ही सर्वप्रथम नेपाल में लोकतांत्रिक जन – क्रांति की व्यापक रूप रेखा बनाने मे नेपाल के राष्ट्रवादी – क्रांतिकारियों को सक्रिय सहयोग दिया था.

लोहिया के प्रयत्न और सहयोग से ही नेपाली कांग्रेस का गठन हुआ था. नेपाली कांग्रेस की स्थापना के बाद लोहिया के निर्देश और विश्वेश्वर प्रसाद कोईराला के नेतृत्व में राणाशाही के विरुद्ध जन आंदोलन तीव्र वेग से आरंभ हो गया था. शेकडो आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिये गये. जेलों में राजनीतिक बंदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के विरोध में 1 मई 1949 से कोइराला जेल में आमरण अनशन कर रहे थे . नेपाली कांग्रेस के आंदोलन के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति व्यक्त करने की दृष्टि से 25 मई 1949 को सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से “नेपाल दिवस” मनाने का तय किया गया था. कनॉट प्लेस (नई दिल्ली) में एक जनसभा आयोजित की गई थी, जो बाद में एक जुलूस में परिवर्तित हो गई. प्रदर्शन का उद्देश्य नेपाली राजदूत को ज्ञापन देना था. लगभग 300 व्यक्तियों के इस प्रदर्शन का नेतृत्व लोहिया कर रहे थे. जुलूस पर पहले लाठीचार्ज किया गया और फिर आंँसू गैस छोडी गयी. लोहिया सहित 50 सत्याग्रही गिरफ्तार कर लिये गये, जिनमें दो यूवतीयाँ और दो 12 से 15 वर्ष के बच्चे भी थे जिन्हें तत्काल रिहा कर दिया गया . स्वतंत्र भारत में लोहिया की यह पहली गिरफ्तारी थी. इस घटना के विरोधस्वरुप 4 जून को सोशलिस्ट पार्टी की दिल्ली इकाई ने “विरोध दिवस” मनाने के लिए जनसभा आयोजित की और पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति ने 20 जून को “लोहिया दिवस” मनाने का निश्चय किया. कानून तोडने के अपराध में लोहिया तथा अन्य सत्याग्रहियों पर मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें दो – दो महीने की सादी कैद और सौ – सौ रुपये जुर्माने की सजा दी गयी. जुर्माना न देने पर डेढ महीने की अतिरिक्त सजा का प्रावधान था.

दिसम्बर 1950 मे नेपाल में जन क्रांति आरंभ हो गयी थी और उसने अप्रत्याशित रूप से कई क्षेत्रों में सफलता भी प्राप्त की थी, किंतु इसके साथ ही नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में समझौतावादी प्रवृत्तियाँ भी प्रकट होने लगी थी. भारत सरकार और प्रधानमंत्री नेहरू ने कोइराला और अन्य नेपाली नेताओं पर दबाव डालना आरंभ किया कि वे महाराजा त्रिभुवन से, जिन्होंने उस समय भारत में शरण ले रखी थी, समझौता कर ले. कोइराला स्वयं भी समझौते के इच्छुक थे. लोहिया ने समझौते के विरुद्ध चेतावनी देते हूए कहां कि, “अगर नेपाली कांग्रेस ने इस समय साहसपूर्ण कदम उठाया तो नेपाल की क्रांति विश्व इतिहास में एक प्रमुख स्थान बना लेगी लेकिन जल्दबाजी में समझौता कर लिया तो एशिया में विद्रोहों, समझौते और निराशाओं की पुरानी कहानी ही दोहरायी जायेगी.

लोहिया ने नेपाली कांग्रेस से आग्रह किया था कि जिन क्षेत्रों को मुक्त कर लिया गया है और जो गाँव नेपाली कांग्रेस के अधिकार मे है, वहां वयस्क मताधिकार से चुनाव करा कर पंचायतें कायम कर दी जाएँ और नौकरशाही को उन्हीं के नियंत्रण में कर दिया जाए. पांच या दस पंचायतों से एक- एक  प्रतिनिधि लेकर अस्थायी क्रांतिकारी संसद निर्मित की जाए और उसी के द्वारा एक अस्थायी सरकार बने. जो क्षेत्र नेपाली कांग्रेस के अधिकार मे आ जाएँ वहाँ जोत की सीमा निर्धारित करके जमीन का बटवारा कर दिया जाए. ” किंतु नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में समझौतावादी प्रवृत्तियां पैदा हो गयी थी. कोइराला ने नेहरू की मध्यस्थता मे महाराजा त्रिभुवन से अवसरवादी समझौता कर अधुरी जनक्रांति की भृण हत्या कर दी.”

शायद यही नेपाल में उलट-पलट कर पिछले 76 सालों से लगातार चल रहा है. और अभी भी जेन-जेड के बाद भी अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है. क्योंकि जेन- झेड कोका कोला की बोतल खोलने के बाद जिस तरह से बोतल से तुंरत झाग बाहर निकलता है, और कुछ देर मे बंद हो जाता है. कोई ढंग का वैचारिक प्रतिबध्दता का संघठन नहीं और इसलिए उसका कोई मॅच्यअर नेतृत्व भी दिखाई नहीं दे रहा है .इसलिए मुझे लगता है कि अकेली सुशिला कार्किजी भी क्या कर सकती है ? जैसे बंगला देश में पिछले साल भर से अधिक समय से लगभग ऐसा ही घटनाक्रमों को देख रहे हैं. और इन दोनों देशों की तुलनामे भारत पिछले 11 सालों से लगातार फासिस्ट, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक ईकाई के कब्जे है और तीन लाख जनसंख्या के सिमावर्ती लद्दाख में किस तरह आंदोलन को कुचल रहे हैं. यह मैनें 2013 के चुनाव में गुजरात में इनके खिलाफ चुनाव प्रचार की सभाओ मे दो हफ्ते से अधिक समय देकर बोला था.


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