— लाडली मोहन निगम —
1958 की बात है। हम लोग अमरकंटक (मध्यप्रदेश) में थे। एक सुबह डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक अजीब ख्वाहिश जाहिर की– एक ही तमन्ना बाकी है कि शेर की इजाजत लेकर उसके सर पर हाथ फेरूँ। मैंने कहा कि यह इच्छा किसी भी सर्कस में चलकर पूरी की जा सकती है। उन्होंने कहा कि नहीं, उसके इलाके में चलकर उससे बातचीत की जाए। अगर शेर इजाजत दे, तभी उसके सर पर हाथ फेरना चाहूँगा। बात मुझे बहुत अजीब लगी। एक-दो बार उन्होंने मुझे विभिन्न मौकों पर इसकी याद भी दिलायी।
हमारे एक मित्र श्री प्रसन्न धगद उस जमाने में रायपुर में सूचना अधिकारी थे। छत्तीसगढ़ के जंगल शेरों के लिए प्रसिद्ध थे। डॉक्टर साहब की एक शर्त यह भी थी कि इस मुलाकात में उनके साथ और कोई न हो। शेर से मुलाकात भी गुप्त होनी चाहिए। रायपुर के ही एक ख्यातिप्राप्त शिकारी श्री गाजी मिर्जा से मैंने श्री धगद के जरिये मुलाकात की। मैंने इस काम के लिए उनकी इमदाद चाही और यह भी कहा कि यह यात्रा गोपनीय हो। उन्होंने एक जीप का भी इंतजाम किया।
बाघ नवापार का जंगल रायपुर जिले की महासमुंद तहसील के अंतर्गत आता है। रायपुर सरायपाली बसना के अधबीच मुख्य सड़क के जंगल को रास्ता जाता था। दिसंबर, 1951 में एक अलस्सुबह ओस और सीलन भरी सर्दी में डॉक्टर साहब को लेकर रायपुर पहुँचा। पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के मुताबिक श्री गाजी मिर्जा की जीप से हम लोग चले और दोपहर होने के पहले बहुत देर अंदर जंगलों में भटकते हुए एक ऐसी सुनसान जगह पहुँचे, जहाँ सिर्फ एक ‘फॉरेस्ट गार्ड’ की उजड़ी हुई चौकी थी।
आसपास घना जंगल, आदमी का नामोनिशान नहीं। बहरहाल, पेड़ की डालियाँ लेकर उस चौकी को साफ किया और वहीं जमीन पर डेरा लगाया। गाजी मिर्जा ने इतना इंतजाम कर दिया था कि वहाँ हम लोग चाय वगैरह बना सकते थे और डिब्बाबंद खाद्य–सामग्री भी साथ थी। शाम होने के पहले मुझे और डॉक्टर साहब को वहाँ छोड़ कर गाजी मिर्जा वापस रायपुर जानेवाले थे।
इसी जंगल चौकी के प्रांगण में सूरज डूबने के पहले हम लोग जमीन पर बैठ कर चाय पी रहे थे कि अचानक हम लोगों के बायीं ओर लगभग तीन मीटर दूर एक सरसराहट-सी हुई कुछ पत्ते चरमराये। जब तक हम समझे कि क्या हो रहा है, शेर चौकी के पीछे की पगडंडी को पार करके सामने से गुजरता हुआ निकल गया। डॉक्टर साहब ने तत्काल इच्छा जाहिर की कि चलो उससे मुलाकात की जाए। गाजी मिर्जा ने खतरे की बात कही। लेकिन डॉक्टर साहब की जिद पर हम लोग गाड़ी में बैठे। बैठते समय ही डॉक्टर साहब ने गाजी मिर्जा से यह वचन ले लिया कि अगर शेर से मुलाकात हो जाए, तो गोली नहीं चलाएंगे। गाजी मिर्जा ने पूछा, क्या अगर शेर हमला करे तब भी नहीं? डॉक्टर साहब ने कहा कि शेर इतना छोटा प्राणी नहीं है कि वह आदमियों पर हमला करे। शेर तो तभी हमला करता है जब आदमी उसके साम्राज्य में दखलंदाजी करता है। बहरहाल, हमारी जीप चली। डॉक्टर साहब, गाजी मिर्जा आगे, मैं पीछे। जीप गाजी मिर्जा चला रहे थे। एक घंटा भटकने के बाद हम दूसरे रास्ते से लौट रहे थे, तो अचानक शेर दिखा। जीप रोकी गयी। जैसे ही डॉक्टर साहब उतरने लगे, एक मिनट शेर खड़ा होकर तड़ी हो गया। हम लौट आए।
दूसरे दिन मिर्जा छायाकार श्री बिरदी और एक रसोइये के साथ आए। सुबह जब रोशनी भी न निकली थी और न ही जंगल जगा था, हम लोग 5 बजे से जंगल में भटकने निकले। दो-तीन घंटे भटकने के बाद अन्य जानवर तो दिखे, लेकिन राजा से मुलाकात नहीं हुई। तीसरे दिन सुबह में गाजी मिर्जा फिर आए। उस रोज हम लोगों ने दोपहर को जमकर खाना खाया।
दूसरे दिन भी भटकने के बाद शेर से मुलाकात न हो पायी। करीब 4 बजे होंगे। हमारी जीप जंगल में भटक रही थी, तभी पास में ही खटका–सा हुआ। गाजी मिर्जा ने कहा कि लगता है कि यहीं कहीं आसपास शेर है और शायद उसने रात को कोई जानवर भी मारा है। बातचीत करते-करते हम लोग एक छोटी-सी सड़क पर आए। कुछ आगे बढ़े ही थे कि मिर्जा की चौकन्नी आँखों ने करीब 15 मीटर की दूरी पर सड़क के किनारे एक जानवर बैठा हुआ देखा। उन्होंने जीप धीमी की। कुछ आगे बढ़े होंगे कि दूसरी ओर से चीतलों का झुंड सड़क को लाँघता हुआ भागा। मैंने कहा कि शेर का खटका नहीं चीतलों का है।
मुश्किल से 6-7 मीटर आगे बढ़े होंगे कि शेर साफ सामने सड़क के किनारे बैठा हुआ नजर आया। जीप का इंजन बंद करके इशारों में बातचीत होने लगी। डॉक्टर साहब जीप से धीरे-से उतरने लगे। गाजी मिर्जा ने उनका कोट पकड़ा कि खतरा है, उतरो नहीं। डॉक्टर साहब ने गुस्से से उनको खामोश रहने का इशारा किया। जीप से उतरकर वे सड़क पर धीरे-धीरे बढ़ने लगे। हम सबकी साँस रुक गयी। गाजी मिर्जा ने मुझे इशारे से समझाया घबराओ नहीं, बंदूक मेरे साथ है। थोड़ी-सी हरकत होगी, तो मैं डॉक्टर साहब को दिया वचन तोड़ दूँगा और शेर को गोली मार दूँगा। बहरहाल, हम लोग जीप में बैठे रहे। डॉक्टर साहब खरामा-खरामा कोई 2-3 मीटर आगे बढ़े होंगे कि शेर उठा और बीच सड़क पर खड़ा हो गया। डॉक्टर साहब रेंगते कदम बढ़ाते हुए और आगे बढ़ते जा रहे थे। गाजी मिर्जा भी खतरे को समझ कर उतरे और निशाना ले लिया। एक–दो मिनट के बाद देखता हूँ कि डॉक्टर साहब वहीं जमीन पर थोड़े–से बैठ गये और उसके बाद शेर उनकी तरफ देखता रहा। फासला कोई 4-5 मीटर का होगा। डॉक्टर साहब शेर की ओर एकटक देखते रहे, शेर भी उनकी ओर देखता रहा और करीब 5 मिनट उन दोनों के बीच खामोश गुफ्तगू होती रही। उसके बाद शेर धीरे-से सड़क की दूसरी ओर उतर गया।
हम लोग डॉक्टर साहब के पास पहुँचे। उस वक्त उनके चेहरे पर जो चमक और खुशी मुझे दिखी, वैसी उनके चेहरे पर बहुत कम देखने को मिली। हम लोग लौट आए। डॉक्टर साहब बच्चों की तरह खुश होकर शेर से अपनी गुफ्तगू का किस्सा सुनाते रहे। डॉक्टर साहब ने कहा कि शेर प्रकृति का सबसे हसीन प्राणी है। मनुष्य अगर इससे संवाद स्थापित कर सके, तो उसके अंदर की हिंसा भी खत्म हो जाएगी और वह सही माने में मनुष्य का बन सकेगा।
कुछ महीनों बाद मुझे डॉक्टर साहब अपने साथ जूनागढ़ ले गये। यहाँ बबर शेरों का अभयारण्य है। वहाँ एक दिन तो डॉक्टर साहब एक शेर परिवार के, जो अपने आखेट को खा रहा था, करीब 3 मीटर की दूरी पर धीरे-धीरे जाकर बैठ गये। हम लोग उनके पीछे थोड़ी दूर पर थे। वहाँ करीब 20 मिनट तक वे शेर के भोजन करने की प्रवृत्ति और तरीके तथा उसके साथ परिवार का सलूक देखते रहे। नर शेर खा रहा था। थोड़ी देर में, वहीं पास में बैठी शेरनी उठी और शेर को देखकर गुर्रायी और अपने बच्चों को साथ लेकर आखेट के पास पहुँची। शेर वहाँ से उठकर अलग बैठ गया। शेरनी ने पहले बच्चों को खिलाया, फिर शेर को देखकर गुर्रायी और बच्चों को साथ लेकर कुछ फासले पर बैठ गयी। शेर पुनः उठा और आखेट के पास पहुँचकर खाने लगा। खाने के बाद शेर आखेट को खींचकर कुछ दूर ले जाना चाहता था। तभी शेरनी धीरे-से उठी और शेर की तरफ गुर्रायी। शेर ने आखेट को घसीटना नहीं छोड़ा। शेरनी ने शेर के पास पहुँच कर उसके मुँह-से मुँह मिलाया और अपने मुँह से ही उसको एक तरफ धकेला। शेर आखेट को छोड़ कर दूसरी तरफ बैठ गया और फिर शेरनी ने खाना शुरू किया। इस बीच थोड़ी देर बाद शेर उठा और आकर उसने शेरनी को एक चपत जमायी। उसने शायद प्यार से उसके कंधे का आलिंगन किया होगा। यह सब करीब आधे घंटे तक चलता रहा। शेर परिवार बिना किसी की तरफ देखे अपने भोजन में मस्त था।
जब हम लौटकर डाकबँगले पहुँचे, तब डॉक्टर साहब ने पूछा कि क्या देखा और क्या निष्कर्ष निकाला। मैंने कहा कि जानवरों में शायद हम लोगों से ज्यादा अच्छा पारिवारिक सामंजस्य हैं। डॉक्टर साहब ने तब जो वाक्य कहे थे, वे मुझे आज तक याद हैं। उन्होंने कहा था कि जिस तरीके से शेर हिंसक नहीं है, मनुष्य को भी हिंसक नहीं होना चाहिए। मनुष्य और शेर में एक साम्य है। मनुष्य जब कुछ पा जाता है तो वह उसको छोड़ना नहीं चाहता। उसपर अपनी मिल्कियत और अधिकार बनाये रखना चाहता है। और किसी को देना नहीं चाहता। उसी तरीके से शेर भी एक मर्तबे जब आखेट कर लेता है तो उस आखेट को वह अपने तक ही रखना चाहता है। तुमने देखा होगा कि जब शेर खाना खा रहा था और शेरनी उसके पास पहुँचने की कोशिश कर रही थी तो शेर गुर्राता था और खाने के बाद भी वह आखेट को एक तरफ घसीटकर ले जाना चाहता था। कमोबेश देश के सत्ताधारी भी ऐसे ही हैं कि एक मर्तबे उनको गद्दी मिल जाए या कुछ उपलब्धि हो जाए, तो फिर वे उसको किसी तरीके से नहीं छोड़ना चाहते, चाहे उसके लिए हिंसा का ही सहारा क्यों न लेना पड़े। जिस तरीके से शेर शेरनी के गुर्राने पर परिवार के लिए समझौता कर लेता है, उसी तरह से मनुष्य अगर अपनी उपलब्धि को सारे समाज को देने के लिए समझौता कर ले तो फिर वह सही माने में मानवीय हो जाएगा। मैं चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के मंत्रियों को जंगल या अजायबघरों में साल में एक बार अनिवार्य रूप से ले जाना चाहिए ताकि वे जानवरों से कुछ सीख सकें और उनके अंदर की जो हिंसा और स्वार्थ प्रवृत्ति है, वह कम हो सके।
(यह संस्मरण पहली बार ‘धर्मयुग’ के 27 जुलाई 1982 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)