विषमता की बिसात पर वनवासी

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— जयराम शुक्ल —

ध्यप्रदेश सरकार के मंत्री बिसाहूलाल सिंह के एक बयान से क्षत्रिय वर्ग के लोग आगबबूला हैं। इसकी प्रतिक्रिया में क्षत्रियों के एक संगठन ने ऐलान कर दिया कि मंत्री को एक जूता मारने पर एक लाख रु. दिये जाएंगे। बिसाहूलाल के बयान को किस गंभीरता से लिया गया है इसे दिग्विजय सिंह के बेटे पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह के ट्वीट से समझा जा सकता। जयवर्धन ने ट्वीट कर कुछ ऐसा कहा- हमारी महिलाओं को घर से बाहर निकालने की बात तो दूर, उनपर नजर उठाने तक का अंजाम क्या हुआ इतिहास इसका गवाह है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा तलब किये जाने के बाद बिसाहूलाल सिंह ने माफी माँग ली लेकिन आँच ठंडी नहीं पड़ी है।

पहले जानें कि बिसाहूलाल सिंह ने ऐसा क्या कह दिया…? एक वीडियो क्लिप जिसे मैंने देखा…उसमें वे एक सभा को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि समाज में समानता कैसे आएगी? हमारी महिलाएं खेत में और घरों में काम करती हैं लेकिन ठाकुर-ठकार लोग अपने घर की औरतों को कोठरी में बंद किये रहते हैं। ये ठाकुर-वाकुर की महिलाओं को भी खींचकर बाहर काम करने के लिए लाना पड़ेगा, हमारी महिलाओं की तरह इन्हें भी खेतों में काम करना होगा, विषमता तब दूर होगी। बिसाहूलाल यदि ठाकुर-ठकार की जगह ‘बड़े घर के लोग’ कह देते तो उनके भाषण को शायद कोई अन्यथा लेता लेकिन वे ठाकुर-वाकुर में ही उलझे रहे और खींचकर बाहर निकालने की बात कुछ ज्यादा ही अभद्र हो गयी। हमारे विन्ध्य इलाके में ठाकुर कहकर क्षत्रियों को संबोधित किया जाता है।

वैसे देखा जाए तो ठाकुर जातिसूचक नहीं पदसूचक है। ठाकुरजी कृष्ण भगवान को भी कहते हैं। ठाकुर का अर्थ पालनकर्ता, अन्नदाता से है। हमारी जानकारी में ब्राह्मण व अन्य वर्ग के लोगों को भी कहीं-कहीं ठाकुर कहा जाता है। अभी पिछले महीने ही हम लोगों ने अपने परिजनों में एक, जो मेरे ताऊ लगते हैं उनकी पुण्यतिथि पर एक बड़ा समारोह किया। आसपास के दस कोस के गाँवों में उन्हें ठाकुर ही कहा जाता था, वजह यह कि वे दीनहीन वर्गों के मसीहा माने जाते थे, हर जरूरतमंद उनकी बखरी में पहुँचकर यथोचित मदद पाता था।

मंत्री बिसाहूलाल सिंह के खिलाफ प्रदर्शन

लेकिन बिसाहूलाल सिंह के कहे को क्षत्रिय समाज ने अपनी अस्मिता के साथ जोड़ लिया और लगे हाथ कतिपय संगठनों ने मुँह काला करने, जूता मारने का फतवा जारी कर दिया।

बिसाहूलाल सिंह वनवासी वर्ग से आने के बावजूद वनवासियों के बीच सामंत जैसे हैं। कई बार विधायक और मंत्री रहते हुए उन्होंने वह रसूख अर्जित कर लिया जो कि सामंतों की पहचान के साथ जुड़ा है। भाजपा में शामिल होने तथा चुनाव जीतने के बाद तो उनकी व उनके परिजनों की ठसक और भी दिखने लगी। वे जिस अनूपपुर से चुनाव जीतते हैं वहाँ वनवासी नहीं अपितु सामान्य वर्ग के मतदाता निर्णायक हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में कई कोयलरीज हैं जहाँ से अवैध धन का प्रवाह राजनीति में जाता रहता है और यहां से प्रतिनिधित्व करनेवाले नेता की आर्थिक हैसियत बढ़ाता है। संभवतः यह बयान तो उनके बड़बोलेपन की रौ में बह निकला होगा क्योंकि उनका एकमात्र लक्ष्य इस क्षेत्र के वनवासी नेतृत्व को ठिकाने लगाने का रहा है।

बिसाहूलाल सिंह क्या, इस क्षेत्र के लोग शायद ही यह जानते होंगे कि रीवा महाराज गुलाब सिंह ने 1938 में इसी अनूपपुर के पुष्पराजगढ़ से एक घोषणापत्र जारी करते हुए गोंडों को अपनी बिरादरी में शामिल करने की बात कही थी। महाराज ने यहाँ तक कहा कि इनसे अब हमारा रोटी-बेटी का संबंध है। गुलाब सिंह प्रत्येक दशहरे पर रीवा किले में सहभोज आयोजित करते थे। सहभोज में वनवासी और दलितवर्ग के लोग ‘ठाकुर-ठकारों’ के साथ एक पंगत पर बैठकर भोजन करते थे। सहभोज में शामिल न होने वाले जमींदार सामंतों पर कड़ा आर्थिक दंड लगाया जाता था। गुलाब सिंह दूरदृष्टा महापुरुष थे, उन्होंने अपने राज्य में जिस सामाजिक समरसता की कल्पना की थी आजादी मिलने के बाद वोटीय राजनीति उसे तार-तार करने पर तुली है।

बहरहाल, बिसाहूलाल सिंह ने जो कहा वह निंदनीय है और संवैधानिक पद पर रहते हुए ऐसा कहना घोर निंदनीय। मंत्री संविधान के पालन की शपथ लेते हैं और सबके सामने यह संकल्प लेते हैं कि वे पद पर रहते हुए, कास्ट, क्रीड, रेस, रिलीजन के आधार पर भेदभाव किये बिना अपने दायित्वों का निर्वहन करेंगे। इस बिना पर उन्होंने शपथ और संकल्पों की अवहेलना की है इसलिए उन्हें मंत्रिपद से बर्खास्त करने का पूरा-पूरा आधार बनता है। लेकिन यदि यह कार्रवाई हुई तो केन्द्र और राज्यों की सरकार में महज दस फीसद ही मंत्री रह जाएंगे। बताने की जरूरत नहीं कि शेष नब्बे फीसद जाति, धर्म, नस्ल, और कुल पर आधारित राजनीति करते है, वोटीय फायदे के लिए इसी आधार पर सरकारें फैसले लेती हैं। सो संविधान की शपथ अब रस्मी दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं।

संविधान में कानून राजा-रंक सबके लिए बराबर है सो मंत्री बिसाहूलाल सिंह के खिलाफ उनके बयानों के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के तहत अपराध पंजीबद्ध कराया जा सकता है। लेकिन प्रतिक्रियास्वरूप ‘जूते मारने’ और ‘मुँह काला’ करने की धमकी गाली देने से बड़ा जुर्म है।

इन दोनों जुर्मों से बड़ा वह जुर्म है जिससे सामाजिक समरसता के विध्वंस का खतरा है। कल्पना कीजिए, यदि धमकी देनेवाले संगठनों की रौ पर ऐसा कुछ हो गया तो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर इतना उल्टापलट हो जाएगा जिसकी कल्पना अभी आप नहीं कर सकते।

विषमता की बात सभी बड़े नेता कहते रहे है- गाँधी, आम्बेडकर , लोहिया आदि। लोहिया जी तो इस मामले में अतिवादी थे। ग्वालियर के एक चुनाव में उन्होंने ‘महारानी बनाम मेहतरानी’ का जुमला दिया था, उस चुनाव में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के मुकाबले सोशलिस्ट पार्टी ने एक अति दलित महिला को अपना प्रत्याशी बनाया था। 1952 में सिंगरौली से चुनाव जीतनेवाली अनुसूचित जनजाति वर्ग की सुमित्री खैरवारिन को तो डा.राजेन्द्र प्रसाद के खिलाफ राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर दी थी। तो वनवासी वर्ग के शोषण और विषमता की बातें आजादी से पहले से उठती रही हैं। उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के यत्न अभी भी हो रहे हैं। वनवासी नायकों की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए एक के बाद एक फैसले लिये जा रहे हैं। ऐसे समय में यह विद्वेष एक नये खतरे की पृष्ठभूमि बनाता है।

विन्ध्यक्षेत्र में धार-झाबुआ और छत्तीसगढ़ की तरह धर्मान्तरण नहीं हुआ, न ही मिशनरियों के वैसे पाँव जमे। वह इसलिए कि यहाँ सामाजिक समरसता की मजबूत पृष्ठभूमि रही। रीवा के आखिरी महाराज मार्तण्ड सिंह वनवासियों के लिए दैवतुल्य रहे। उन्हें निकट से जाननेवाले लोग यह भी जानते हैं कि मार्तण्ड सिंह जी के आखिरी समय तक उनके अंतरंग सेवक वनवासी गोंड-बैगा ही थे, यहां तक कि उनका सबसे विश्वसनीय ड्राइवर भी एक गोंड युवक था जिसे महाराज ट्वंटी कहकर मजा लेते थे।

पिछले यानी कि 2018 के विधानसभा चुनाव में अनूपपुर और डिंडोरी के वनांचल की सभी विधानसभा सीटों से भाजपा चुनाव हार गयी थी। यहाँ कांग्रेस अपनी लोकप्रियता की वजह से नहीं जीती बल्कि जयस और कुछ एनजीओ ने अंदरूनी काम किया और भाजपा के आधार को छीन लिया। ये वही संगठन हैं जो वनवासी युवाओं के बीच यह भावना फैला रहे हैं कि आप हिंदू नहीं हो बल्कि वनवासियों का धर्म अलग है। अगले वर्ष जनगणना होनी है इस लिहाज से भी यह क्षेत्र अब बेहद संवेदनशील है।

वनवासी नेतृत्व के साथ विडम्बना यह है कि वे कभी भी अपने वर्ग के शोषण की बात ठोस तरीके से नहीं उठाते बल्कि वे सामान्य वर्ग के नेताओं की तरह दिखने के लिए उनसे होड़ लेते नजर आते हैं।

विंध्य क्षेत्र के आदिवासी

विन्ध्य क्षेत्र में वनवासियों के शोषण का कोई ओर छोर नहीं। हीरालाल त्रिवेदी जब शहडोल में कमिश्नर थे तो उन्होंने उमरिया जिले के ताला मानपुर में वनवासियों की जमीन की लूट-खसोट की जाँच करवायी थी। जाँच में यह तथ्य सामने आया कि पर्यटन का धंधा चलानेवाले रसूखदारों ने किस तरह वनवासियों की व उनके आम निस्तार की सरकारी भूमि को हड़पकर अपने होटल व रिसॉर्ट तान रखे हैं।

कागजों में कई वनवासी होटल व रिसॉर्ट चलानेवाली कंपनियों के डायरेक्टर हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी ही जमीन पर बने इन खूबसूरत ऐशगाहों में कप-प्लेट और टट्टी धोते हैं। कमिश्नर त्रिवेदी की जाँच रिपोर्ट के बाद पर्यटन लॉबी में हड़कंप मचा। रिपोर्ट दबा दी गयी और त्रिवेदी की बदली कर दी गयी। वजह, बाँधवगढ़ नेशनल पार्क के पर्यटन धंधे में नेता और नौकरशाह उद्योगपतियों के साथ बराबरी के भागीदार हैं। यही हाल कान्हा, पेंच, पन्ना सभी राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का है। वनवासियों की जमीन धोखे से छीनी जा रही है, उन्हें बेदखल किया जा रहा है।

सिंगरौली क्षेत्र के वनवासियों की जमीन उद्योगपतियों के हवाले हो चुकी है। सरकारी कर्मचारी और नेता यहाँ उद्योगपतियों के लठैत और दलाल बने बैठे हैं। राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के बीच सदियों से आबाद वनवासियों के गाँव उजाड़े जा रहे हैं।

यह सवाल बिसाहूलाल जैसे नेताओं के जेहन में क्यों नहीं उठता कि वनवासी अंचल की जोत की 90 फीसद जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्जा कैसे हुआ..? औद्योगिक क्षेत्रों, खदानों, पार्क-अभयारण्यों से वनवासी अपनी जमीन गँवाकर क्यों शहरों में मजदूरी करने को विवश हैं। कम से कम पिछले बीस साल के हालात की पड़ताल की जाए तो भयावह सच निकलकर सामने आ जाएगा। लेकिन इस सच को न नौकरशाह सामने आने देना चाहते हैं और न ही शोषक पूँजीपतियों के हितैषी नेता।

अभी सर्दी का सीजन है, आप हमारे रीवा या सतना आ जाइए, यहाँ काम करनेवाला हर दूसरा मजदूर या तो सीधी का या शहडोल का वनवासी है। ये हाड़तोड़ मेहनत के लिए जाने जाते हैं। ठेकेदार लोग लालच देकर इन्हें गाँँवों से ले आते हैं। मेरे मित्र के सदाशयतावश पाँच-छह मजदूरों को अपने फार्महाउस में आश्रय दे रखा है।

एक दिन इन परदेसी मजदूरों से मुलाकात हुई तो इनकी कहानी जानकर विचलित हुए बिना नहीं रहा। न इन्हें कभी मुफ्त या रियायत का राशन मिला और न ही गाँव में काम। सरकार ने सबकुछ ऑनलाइन कर रखा है, राशन की दुकान से लेकर कियोस्क तक हर जगह दाऊ साहब, पंडित जी लोग बैठे हैं। ये बेचारे मशीन में अँँगूठा दबाना भर जानते हैं। सरकार लाख दावा करे पर मैं यह बात यकीन के साथ कहता हूँ कि वनवासियों के लिए बनी उसकी योजनाएं दस फीसद भी उनतक नहीं पहुँचतीं वरना शहडोल की छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे जनकपुर के आसपास के ये वनवासी सौ कोस दूर चलकर दूर शहर में मजदूरी करने न जाते।

वनवासी और अब गाँवों व कस्बों में रहनेवाले अनुसूचित जाति वर्ग के लोग सदियों से शोषण और जुल्म ढोते-सहते आ रहे हैं। राजनीतिक दल, मिशनरीज और एनजीओ इनकी भावनाओं की तिजारत करके कमा-खा रहे है, रसूख बढ़ा रहे हैं लेकिन ये भूखे के भूखे ही हैं। इन्हीं वनवासियों के बीच से निकले बिसाहूलाल जैसे नेता आज अभिजात्यों की पंक्ति में बैठकर इन्हीं के नाम पर मसखरी कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि सामाजिक विद्वेष का अंधड़ समरसता को किस तरह क्षत-विक्षत कर सकता है।

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