छत्तीसगढ़ राज्य में एक जिला है– सुकमा। इसी सुकमा ज़िले का एक गांव है सिलगेर। इस गांव में रहने वालेलोग आदिवासी हैं। वैसे तो पूरा सुकमा जिला ही आदिवासियों का जिला है| क्योंकि यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग आदिवासी हैं। इन्हें कोया आदिवासी कहा जाता है। यहां दोरला और हलबा आदिवासी भी रहते हैं। इसके अलावा तेलंगा, धाकड़, कलार, राउत और घसिया जातियां भी रहती हैं, लेकिन ये लोग संख्या में कोया लोगों से कम हैं।
पिछले छह महीने से यहां के कोया आदिवासी एक आंदोलन कर रहे हैं। आदिवासी यह आंदोलन छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकार तक अपनी मांगें पहुंचाने के लिए कर रहे हैं। जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तब सरकार ने आदिवासियों को डराकर आंदोलन खत्म करवाने के लिए उन पर गोलियां चलवाई। इसमें तीन पुरुष, एक महिला और एक गर्भस्थ शिशु मारा गया।
इसके बावजूद आदिवासी नहीं डरे और उन्होंने अपना आंदोलन आजतक जारी रखा है। इस आंदोलन की खासियत यह है कि इस का कोई एक नेता नहीं है। हरेक फैसला आदिवासी स्वयं ही सर्वसम्मति से लेते हैं।
दरअसल, सरकार ने इस गांव में एक पुलिस कैम्प खोला। इसका विरोध करने के लिए आदिवासी एकजुट हुए। सरकार ने आदिवासियों पर गोलियां चलवा दी। इस तरह आदिवासियों का विरोध एक स्थायी आंदोलन में बदल गया।
पहले भारत में लोग आंदोलन करते थे कि हमारे पास ज़मीन नहीं है, सरकार हमें ज़मीन दे। इसे भूमि आंदोलन कहा गया। नेहरु का ज़मींदारी उन्मूलन, विनोबा का भूदान, इंदिरा गांधी का हदबंदी और बीस सूत्री कार्यक्रम में भूमिहीनों को ज़मीन देना, सब इसी मांग से निकले हुए उपाय थे।
लेकिन जबसे भारत में वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण का दौर आया। उसके बाद पूंजीपतियों की कंपनियों अर्थात कार्पोरेट ने जनता की जमीनों, नादियों व समंदर के तटों और खदानों को सरकारों की मदद से हथियाना शुरू किया। जिस किसी आदिवासी, दलित जननेता ने अथवा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध करने की जुर्रत की तो सरकारों ने उन्हें जेल में डाल दिया। सलवा जुडूम और ग्रीन हंट जैसे हिंसक और गैर संवैधानिक अभियान चला कर हज़ारों आदिवासियों की हत्या की गई। महिलाओं से सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कार किये गये और निर्दोष आदिवासियों को जेलों में डाल दिया गया।
आज भारत के आदिवासी इस जगह पहुंच गये हैं कि वे सरकार से कुछ नहीं मांग रहे। वे सिर्फ यह कह रहे हैं कि जो कुछ हमारे पास है, बस सरकार उसे हमसे ना छीने, हमारे ऊपर इतनी मेहरबानी कर दीजिये। लेकिन सरकार आदिवासियों की इतनी-सी बात भी मानने के लिए तैयार नहीं है।
पूरा सुकमा जिला पांचवीं अनुसूची का इलाका है। जैसे आजकल सरकार पूरे पूरे ज़िले को धारा 144 के अंतर्गत घोषित कर देती है, और जनता को सरकार के विरोध में इकट्ठा नहीं होने देती, उसी तरह भारत के संविधान में सरकार को काबू में रखने के लिए और आदिवासियों की जल-जंगल-ज़मीन, जीवन और आजीविका की रक्षा के लिए पांचवी अनुसूची लागू की गई है, जो आजकल सरकारों के गले की हड्डी बनी हुई है।
पांचवीं अनुसूची इलाके में सरकार किसी भी जमीन का इस्तेमाल बिना आदिवासियों की इजाज़त के नहीं कर सकती| लेकिन भारत में सरकार जनता को अपने सामने कुछ भी नहीं समझती। इसलिए सरकार बार-बार आदिवासियों की जमीनें हड़पकर अपने मंसूबे पूरे करना चाहती है। लेकिन जब आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकार की याद दिलाते हैं और सरकार को रोकने की कोशिश करते हैं, तो सरकार आदिवासियों पर गोलियां चलवा देती है।
अगर छत्तीसगढ़ सरकार का यह बहाना कुछ देर के लिए मान भी लिया जाय कि सिलगेर आंदोलन को नक्सली भड़का रहे हैं तो सरकार को तो खुश होना चाहिए कि हिंसा में विश्वास रखने वाले लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया की तरफ आ रहे हैं।
सिलगेर गांव में भी यही हुआ| सरकार ने बिना आदिवासियों से बातचीत किये पुलिस कैम्प खोल दिया। आदिवासियों को पहले से पुलिस कैम्पों का बहुत बुरा अनुभव है। जिस गांव में पुलिस कैम्प खोला जाता है, उस गांव के जंगलों पर पुलिस वाले कब्ज़ा कर लेते हैं। पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बल इन जंगलों से अंधाधुंध लकडियाँ काटते हैं। आदिवासी जब जंगल की तरफ जाते हैं, तो उन्हें सिपाही पीटते हैं। अगर कभी इन सिपाहियों पर नक्सली हमला करते हैं तो सिपाही आसपास के गांववालों को पीटते हैं तथा कई बार गुस्से में आदिवासियों की हत्या भी कर देते हैं और निर्दोष नौजवानों को जेलों में डाल देते हैं। बुर्कापाल गांव में ऐसा ही हुआ था। पुलिस ने उस गांव के डेढ़ सौ आदिवासियों को जेल में डाल दिया। तीन साल से उन गांववालों की अदालत में एक भी सुनवाई तक नहीं हुई है। पूरे गांव में कोई मर्द नहीं बचा है। इस तरह एक पुलिस कैम्प के कारण पूरा गांव बर्बाद कर दिया गया है।
सिलगेर के गांववाले पुलिस कैम्प को अपने गांव में गलत तरीके से खोलने का विरोध करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। अब उस आंदोलन में पेसा कानून का पालन, मानवाधिकार, निर्दोष आदिवासियों की रिहाई जैसे मुद्दे भी जुड़ गये हैं। पुलिस ने आंदोलन में शामिल लोगों को गिरफ्तार भी किया है।
इस आंदोलन को विभिन्न सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनैतिक दलों का समर्थन मिला है। हाल ही में दिल्ली बार्डर पर चलने वाले किसान आंदोलनने भी इसे अपने ही आंदोलन का मोर्चा स्वीकार किया है।
इस आंदोलन की खासियत यह है कि इस का कोई एक नेता नहीं है। हरेक फैसला आदिवासी स्वयं ही सर्वसम्मति से लेते हैं।
जबकि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने इसे नक्सलियों के समर्थन से चलनेवाला आंदोलन कहा है। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ने मीडिया से बातचीत में ऐसा आरोप लगाया है। लेकिन यह आरोप बहुत कमज़ोर और लचर है। सरकार को इस तरह का आरोप लगाने से बचना चाहिए। यह तो वैसा ही बहाना हुआ, जैसे मोदी कहते हैं कि विपक्ष जनता को मेरे खिलाफ भड़का रहा है।
अगर छत्तीसगढ़ सरकार का यह बहाना कुछ देर के लिए मान भी लिया जाय कि सिलगेर आंदोलन को नक्सली भड़का रहे हैं तो सरकार को तो खुश होना चाहिए कि हिंसा में विश्वास रखने वाले लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया की तरफ आ रहे हैं। वैसे भी भारत के संविधान में ऐसा कहाँ लिखा है कि यदि हिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति अहिंसक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करेगा, तो उसकी बात नहीं सुनी जायेगी? अगर नक्सली भी लोकतांत्रिक तरीके से संविधान के अंतर्गत कोई बात कह रहे हैं, तो सरकार को उनकी बात सुननी चाहिए। वैसे भी सरकार हमेशा यही कहती आई है कि अगर नक्सली हथियार छोड़ दें तो हम उनसे बात करने के लिए तैयार हैं। अगर सरकार के मुताबिक़ सिलगेर के आंदोलनकारी नक्सली हैं तो सरकार को निहत्थे नक्सलियों से बात करने में कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए क्योंकि यह तो उनका पुराना वादा है कि आप हथियार छोड़ने के बाद ही नक्सलियों से बात करेंगे, तो सरकार को उनसे अब बात करनी ही चाहिए।
लेकिन जिस तरह से कांग्रेस छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ व्यवहार कर रही है और दूसरी तरफ देश भर में लोकतंत्र, मानवाधिकार और किसानों की हितैषी होने का दावा कर रही है, उससे उसकी विश्वसनीयता खतरे में पड़ रही है|
कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को इस आंदोलन को लोकतांत्रिक तरीके से बातचीत से समाधान निकालने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार को निर्देशित करना चाहिए। अन्यथा अगर यह आंदोलन लंबा चल गया तो कांग्रेस को पूरे भारत में नुकसान पहुंचा सकता है।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ सरकार को सिलगेर मामले में एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए, जिसमें चह जनता को बताएं कि उसने सिलगेर में जो पुलिस कैंप खोला है, उसके लिए जमीन लेने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई गई थी। ग्राम सभा का प्रस्ताव लिया गया था या नहीं? उसमें से कितनी जमीन आरक्षित वन है और कितना छोटे झाड़ का जंगल है तथा कितनी व्यक्तिगत पट्टे की जमीन है? क्या पट्टे की जमीन जिनसे ली गई है, उनकी अनुमति ली गई थी? क्या उन्होंने जमीन देने के लिए अपनी सहमति दी थी?
– हिमांशु कुमार
(संपादन : नवल/अनिल)
( फारवर्ड प्रेस से साभार )