ऐसे थे हमारे खडस भाई – अनिल सिन्हा : पहली किस्त

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1987 का साल था जब मैं खडस भाई के संपर्क में आया। मुझे याद है कि खडस भाई के घर का पता बताते समय प्रसिद्ध मानवाधिकार और समाजवादी कार्यकर्ता माधव साठे ने कहा था कि दादर टीटी से बस आगे बढ़ेगी तो एक फ्लाइओवर आएगा। जब ठंडी हवा का झोंका आने लगे तो अगले स्टॉप पर उतर जाना। यह एवराड नगर स्टॉप है। हाइवे के उस पार त्रिमूर्ति सोसाइटी है। इसी में खडस का मकान है। माधव को मुबई के हर हिस्से की गंध मालूम थी। अब मुंबई में न वह गंध बची है और न उसे पहचानने वाले लोग!

मैं और जेपी आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता रघुपति उनके घर गये थे। दरअसल यह औपचारिक तथा सामान्य मुलाकात का हिस्सा था। किसे पता था कि मुहम्मद खडस, फातिमा खडस और उनके बेटे समर के इस छोटे-से लगनेवाले परिवार में किसी अजनबी को भी खींच लेने की चुंबकीय शक्ति है?

अस्सी का दशक बदलाव की राजनीति में थकान का दशक था। साठ और सत्तर के तूफानी दशकों के बाद यह थकान आयी थी। सारी विचारधाराएँ बेअसर साबित हो रही थीं। साम्यवादी तेलंगाना आंदोलन के बाद संसदीय रास्ते के उतार-चढ़ाव में उलझ गये। उनके एक दुस्साहसी तबके ने नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया और साठ के दशक के मध्य में भारतीय समाज और राजनीति में एक उबाल पैदा कर दिया था। समाजवादियों का आंदोलन डा राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर-कांग्रेसवाद के रूप में एक असरदार संसदीय विकल्प के रूप में उभर रहा था। उन्होंने उत्तर भारत के पिछड़ों को संगठित करने में भी बड़ी सफलता पायी थी। जयप्रकाश नारायण सर्वोदय में नया समाज बनाने के प्रयोग में थकने लगे थे। लेकिन इन सबके बीच सत्ता लगातार निरंकुश होती जा रही थी और इसका नतीजा देश में आपातकाल के रूप में सामने आया।

सन 1974 में इस निरंकुश शासन के खिलाफ एक बड़ा संघर्ष खड़ा करने में जयप्रकाश नारायण कामयाब हो गये थे। श्रीमती गांधी ने आपातकाल लगा दिया। इसके विरोध में समाजवादी आगे की पंक्ति में थे।

लेकिन सन अस्सी के आते-आते यह लगने लगा था कि कोई भी विचारधारा देश में बुनियादी बदलाव लाने में सक्षम नहीं है। समाजवादी धारा का सबसे बुरा हाल था। साल 1977 में जनता पार्टी बनाने के लिए समाजवादियों ने अपने संगठन का उसी तरह विसर्जन कर दिया था जिस तरह लोग अपने पुरखों की अस्थियाँ नदी में बहा देते हैं या मिट्टी में दफन कर देते हैं। संगठन के साथ विचारधारा का बड़ा हिस्सा भी राजनीतिक अवसरवाद की गंगा में बह गया था।

हालत यह थी कि जनता पार्टी के बिखरने के बाद यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन समाजवादी किस दल के साथ है। ऐसे में विचारों के कुछ दीये देश के अलग-अलग ठिकानों पर जल रहे थे। देश और समाज बदलने का सपना देखनेवाले कई समूह थे जो दलों से बाहर सक्रिय थे। इन समूहों से जुड़े लोगों का एक सम्मेलन मुंबई के जनता केंद्र में आयोजित किया गया था जिसका उद्देश्य समाजवादियों की परिवर्तनकारी धारा को संगठित करना था। इसमें समता आंदोलन भी शामिल था जो खडस भाई जैसे लोगों ने बनाया था। हम इसी सम्मेलन में भाग लेने आए थे।

मुहम्मद खडस के जीवन और संघर्षों पर आधारित किताब ‘मुहम्मद खडस : मिस्टर पब्लिक’ का मुखपृष्ठ। डॉ भालचंद्र मुंगेकर द्वारा संपादित इस किताब का हाल ही में मुंबई में लोकार्पण हुआ।

मुंबई में समाजवादियों, कम्युनिस्टों और आंबेडकरवादियों ने जिस इंसानी संस्कृति की रचना की, वह कभी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस का हिस्सा नहीं बन पायी। खडस भाई चाल और झोपड़पट्टी से लेकर आभिजात्य इलाके तक फैली इसी संस्कृति का हिस्सा थे। लेकिन उन्होंने कभी इसे भुनाने की कोशिश नहीं की। परिवार में कई अंतरधार्मिक विवाह हैं, लेकिन खडस भाई को कभी इसे उपलब्धि के रूप में बखान करते नहीं देखा। यह सब इतना सहज था कि रोज के व्यवहार में शामिल था।

खादी का चकाचक सफेद कुर्ता-पाजामा धारण किये खडस भाई की निर्दोष हँसी में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की बंदिशों से मुक्त इंसानियत झाँकती थी और उनके संपर्क में आनेवाला कोई इंसान इससे ग्रसित हुए बगैर नहीं रह सकता था।

लोग कई बार समाजवादी व्यवहार की बात करते हैं, लेकिन इसे असलियत में उतार नहीं पाते। खडस भाई के विचारों में इंसानियत घुली थी। रात हो या दिन, कोई भी कार्यकर्ता उनके घर आ सकता था, वही मुहब्बत पा सकता था जो वह अपने प्रियजनों के यहाँ पाता था। उनका जीवन सादा था, लेकिन उनकी सादगी में एक सुरुचि थी। वह अपने कपड़े खुद धोते थे और स्टार्च करते थे। वह मुस्कुराकर बताते थे कि भयंकर गरीबी के दिनों में भी उनके वस्त्र कभी मैले नहीं रहते थे। यह सुरुचि उनके जीवन में हर जगह पसरी थी। किसी भी यात्रा में वह अपना बैग खुद तैयार करते थे। महीने-दो महीने में बेकाम कागज-पत्रों को छाँट कर फेंक देते थे। उनके पास कचरे का ढेर कभी जमा होते नहीं देखा। मन की तरह अपने चारों ओर भी सफाई रखते थे।

असल में, वह सार्थक तरीके से जिंदगी जीने का तरीका सिखानेवाली किताब थे। अपने कठिन दिनों की कहानी बड़े आकर्षक ढंग से सुनाते थे। कहीं कोई शिकायत का स्वर नहीं। उन्होंने एक यात्री की तरह जीवन जीने का आनंद लिया। मुझे याद है कि दोपहर का भोजन करने के बाद वह कुछ मिनटों के लिए सोते थे। मैं पूछता था कि आप सोने का नाटक करते हैं; इतनी कम देर में किसी को नींद नहीं आ सकती। वह हँसते थे- यह एकदम आसान है, दिमाग से सब कुछ निकाल दो।

स्कूल में ही पढाई छूट जाने और गरीबी में जिदगी बिताने को लेकर उनके मन में कोई दुख या आत्मदया का भाव नहीं था। वह उसे जीवन के सामान्य उतार-चढ़ाव के रूप में देखते थे। वह बताया करते थे कि किस तरह उन्हें नहाने का पानी ढोकर लाना पड़ता था और वह मन ही मन मनाया करते थे कि कोई नया मेहमान न आ जाए जिसके लिए उन्हें ज्यादा पानी ढोना पड़े। वह मालवाहक जहाज में काम करते थे और महीनों समंदर में रहते थे। इसके दिलचस्प किस्से सुनाते थे।

पचास-साठ के दशक में समुद्री रास्ते से स्मगलिंग का बड़ा रैकेट चल रहा था। डॉन हाजी मस्तान इसी रैकेट के कारण मुबई का बड़ा डॉन बन गया था। खडस यह जरूर बताते थे कि बाद के दिनों में किस तरह यह डॉन अपने मुहल्ले की गली में एक खाट पर पड़ा रहता था। निश्चित तौर पर यह उनके अवचेतन में डॉन की जिंदगी के निरर्थक हो जाने की तस्वीर की अभिव्यक्ति थी। उनकी तरुणाई सोशलिस्ट पार्टी के साये में गढ़ी जा रही थी। वहीं उनका राजनीतिक प्रशिक्षण भी हुआ। जीवन की खिड़की एक बड़े मैदान में इस तरह खुली थी कि जीवन का अलग अर्थ था। नये भारत का सपना देखनेवाले एक परिवर्तनवादी तरुण के लिए समुद्री रास्ते से चल रही स्मलिंग जैसे काम को लेकर वितृष्णा का ही भाव पैदा होगा।

( जारी )

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