महात्मा गांधी का आध्यात्मिकतावाद

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— सत्यम् सम्राट आचार्य —

न्दौर विश्वविद्यालय में पिछले तीन अकादमिक वर्षों से राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम का पारायण करवा रहा हूँ। स्नातकोत्तर के विद्यार्थियों में विवेक का इतना स्तर तो है ही कि वे अपने आसपास के सामाजिक यथार्थ को पाठ्यक्रम के सिद्धांतों से सह-संबंधित कर सके।

भारतीय राजनीतिक चिंतन के उनके सिलेबस की शुरुआत उन विशेषताओं से होती है जिनमें भारत की राजनीतिक परम्परा रची-बसी है और जिनके कारण आज तक वे जीवंत है।

भारतीय राजनीतिक चिंतन की इस जीवंतता में आध्यात्मिकता के प्राण समाये हुए हैं। और यह आध्यात्मिकवाद के उस सनातन सिद्धांत पर आधारित है जिसे मनु से लेकर मोन्या (मोहनदास करमचंद गांधी) तक ने अपने-अपने समकालीन संदर्भों में व्याख्यायित किया है।

भारतीय राजनीति में अध्यात्मवाद के तत्त्व ढूँढ़ना, दरअसल सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का ही सांगोपांग अध्ययन करना है। वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के ध्वजवाहक पश्चिम से अलग यहाँ पौर्वात्य का दर्शन धर्म से अनुप्राणित, ध्यात्म से सिंचित और ईश्वर नामक एक लगभग अव्यक्त शक्ति से निर्देशित है और इसके पीछे है इसके अनुयायियों, अनुगामियों और अनुसरणकर्ताओं की भीड़।

राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में वेदों, उपनिषदों और दर्शन ग्रन्थों के प्रस्तोता के रूप में मनु के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विचारों को एक आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ाया जाता है। यह आलोचनात्मक दृष्टि कभी-कभी मनु के संदर्भ में एकपक्षीय भी हो जाती है।

लेकिन मनु, कौटिल्य और शुक्र के इस प्राथमिक अध्याय से आगे गांधी के संदर्भ में हम जब भी आध्यात्मिकता की बात करते हैं तब हमें अपनी विश्लेषण बुद्धि को थोड़ा और क्लिष्ट करना पड़ता है। गांधी का आध्यात्मिकवाद सनातन संस्कृति की उस परम्परा का चिर सम्वाहक है जिसने दया, शांति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य आदि को मानव स्वभाव का उपांग निर्धारित किया है।

दया शांति समता क्षमा सत्य त्याग वैराग्य।

होय मुमुक्षु घट विषे एह सदाय सुजाग्य ।।

(श्रीमद् राजचंद्र कृत आत्मसिद्धि शास्त्र 138)

इसने धर्म को मानव जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य की प्राप्ति का साधन बनाया है,अर्थ को उस उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त एक माध्यम, काम को उद्देश्य की सर्जना का विषय और मोक्ष‌‌ को मानव जीवन की अंतिम अवस्थिति।

मनु को यदि सनातन भारत के आध्यात्मिकवाद का राजनीतिकरण करने वाला प्रथम चिंतक मान लिया जाए तो निश्चित ही गांधी आधुनिक भारत की राजनीति का आध्यात्मिकरण करनेवाले लगभग सबसे पहले शिल्पकार सिद्ध होते हैं।

प्रायः हमें गांधी के राजनीति में आगमन के इतिवृत पढ़ाये जाते हैं, लेकिन लंदन में बैरिस्टरी और अफ्रीका में सोशल लीडरी करनेवाला एक गुजराती कैसे महात्मा की उस उपाधि को पा गया जो भारत में आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचे किसी संत पुरुष को दी जाती है।

इसके पीछे एक ओर वह परम्परागत पृष्ठभूमि है जो भारतीय समाज के नेतृत्वकर्ताओं को विरासत में मिलती है जिससे उनके भीतर का एक समाज सुधारक, युग प्रवर्तक आकार लेता है, और दूसरी ओर है वह पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि जिसमें एक सामान्य व्यक्ति का व्यक्तित्व आकार लेता है।

दूसरी पृष्ठभूमि से देखें तो पोरबंदर के दीवान का बेटा मोन्या अपनी माँ पुतलीबाई से बाल-सुलभ अबोध ‌जिज्ञासा लेकर ईश्वर के बारे में प्रश्न करता है, माँ के साथ नियमित मंदिर जाता है, हरिवंश चरित्र और श्रवण कुमार के पौराणिक नैतिक आख्यान सुनता है। बचपन में ही उनकी धर्म परायण माँ उन्हें गीता के श्लोक, नरसी मेहता ‌के भजन और धार्मिक प्रार्थनाएँ कंठस्थ करवा देती हैं। यह भारतीय समाज में बालकों के आध्यात्मिक विकास का पहला सोपान रहा है।

निश्चित रूप से गांधी में आध्यात्मिकता का बीज-वपन पुतलीबाई के मातृत्व की छाया में हुआ। गांधी खुद अपने लेखन में इसका जिक्र करते हैं। लेकिन आध्यात्मिकता के इस बीज को सींचने में गांधी के अनुसार तीन महापुरुषों का बड़ा योगदान है- लियो टॉलस्टाय, रस्किन और श्रीमद् राजचंद्र भाई।

रूस के महान साहित्यकार टॉलस्टाय से गांधी की बातचीत 1909  के अक्टूबर में होती है। ईश्वरीय सत्ता के संबंध में टॉल्स्टाय की एक पुस्तक पर गांधी का पहला पत्र-व्यवहार तभी शुरू होता है और हम देखते हैं कि गांधी के सामाजिक जीवन पर लियो के विचारों का प्रतिरूप झलक आता है। सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, निष्क्रिय प्रतिरोध और किन्ही अर्थों में सम्पत्ति के समेकित विभाजन का न्यासिता का सिद्धांत भी कहीं न कहीं इन्हीं की प्रेरणा का हिस्सा है।

अपनी आत्मकथा के अठारहवें अध्याय द मैजिक स्पेल ऑफ ए बुक(एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव) में गांधी महान ब्रिटिश कलाविद व चिंतक जॉन रस्किन की पुस्तक अनटु दिस लास्ट का अपने निजी जीवन में प्रभावकारी बदलाव का वर्णन करते हैं। 1904 के जून में दक्षिण अफ्रीका के किसी स्टेशन पर हेनरी पोलाक अपने मित्र बैरिस्टर गांधी को रास्ता काटने के लिए ये किताब थमाते हैं और रास्ता खत्म होते-होते यह पुस्तक गांधी के जीवन में सत्य, सदाचार और विनम्रता की प्रधान प्रेरणा बन जाती है। 1908 में ही गांधी इस पुस्तक का सरल संक्षिप्त गुजराती अनुवाद सर्वोदय के नाम से प्रकाशित करते हैं ।

व्यष्टि में ही समष्टि का अर्थ छुपा हुआ है और जब बात समाज के परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति की हो तो निश्चित रूप से समाज के सबसे अंतिम और उपेक्षित व्यक्ति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, लेकिन नीति इतनी उदार भी हो कि सबसे अंतिम के उत्कर्ष के साथ सबसे आगेवाले का अपकर्ष न हो। सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय की यह भावना गांधी के सर्वोदय का लक्ष्य है।

टॉलस्टाय से नैतिकता और रस्किन से सदाचार सीखनेवाले गांधी के आध्यात्मिकवाद को प्राण तब मिलते हैं जब रंगून के एक झवेरी और बैरिस्टर गांधी के दोस्त प्राणजीवनदास मेहता ने 1891 की जुलाई में उनका परिचय राजचंद्र भाई से करवाया।

श्रीमद् राजचंद्र का जीवन दैनन्दिन के कार्यों, सामाजिक व्यवहारों, व्यापारिक उपक्रमों को आध्यात्मिकता से एकाकार करके ब्रह्म की सिद्धि के लिए‌ शतावधानिक साधना का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण रहा है। बंबई में हीरे-मोती का व्यापार करनेवाला यह गुजराती व्यापारी एक ही साथ धर्मकुशल भी था और एक ही साथ व्यवहार कुशल भी। क्रय-विक्रय के ऊहापोह में फँसा व्यक्ति क्या एक ही समय में मोक्ष प्राप्ति का स्वप्न देख सकता है? रामचंद्र का जीवन इसका अपवाद है।

हाथ में तराजू लेकर वीतरागी होना राजचंद्र के जीवन का वह सबसे बड़ा संदेश था जिसे गांधी ने अपने जीवन व्यवहार में उतारा। विश्व के सबसे बड़े अहिंसक स्वातंत्र्य संग्राम का नेतृत्व करनेवाला और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक राजनीतिक संत की उपमा ग्रहण करनेवाला व्यक्तित्व राजनीति के कूटकर्मों से उतना ही वीतरागी था जितना व्यापार के छलछद्मों से श्रीमद् राजचंद्र।

हम अध्यात्म को मानव जीवन की सर्वथा निजी और अंतरंग अनुभूति समझते हैं। इतनी अंतरंग कि अध्यात्म का उद्देश्य मात्र स्वयं के आत्मिक विकास तक ही सीमित कर दिया जाता है। लेकिन एक संस्कृत सुभाषित कहता है –

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।

परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति।।

धर्म का सांस्थानिक स्वरूप भले ही बाह्य आडम्बरों का स्वाँग लेकर आज साम्प्रदायिकता का तांडव कर रहा हो लेकिन उसका वास्तविक लक्ष्य मानव को आध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रशस्त करके उसके माध्यम से सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण राष्ट्र और उदारवृत्ति का परिचय देते हुए सम्पूर्ण विश्व कुटुंब को आध्यात्मिकता के फल का आस्वादन करवाना है। व्यक्ति के माध्यम से समाज, समाज के माध्यम से राष्ट्र और राष्ट्र के माध्यम से विश्व को जोड़ने का सत्याग्रही उपक्रम दरअसल भारतीय अध्यात्मवाद का ही सनातन लक्ष्य है।

वह वेदों का संज्ञान सूक्त हो जिसमें सभी के समेकित विकास की प्रार्थना की गयी है। या फिर सर्वे भवन्तु सुखिनः का उद्घोष जिसमें सभी के सुखी और निरामय रहने की सद्कामना है। हमारी आध्यात्मिक परम्परा त्रिविध तापों से विश्व की मुक्ति के लिए शांति का संकल्प लेती है और न केवल मानव समाज के लिए बल्कि सम्पूर्ण जड़ चेतनमय जगत के लिए शांति की कल्पना करती है।

1915 के पूर्व दक्षिण अफ्रीका में और उसके पश्चात परतंत्र भारत में महात्मा गांधी के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विचारों का सार शब्द आध्यात्मिकता ही है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के द्वंद्व से त्रस्त और साम्राज्यवादी सत्ताओं के गुलाम कुण्ठित विश्व में गांधी ने एक ऐसे स्वातंत्र्य आंदोलन का नेतृत्व सम्हाला जो मानवीय नैतिकताओं, धार्मिक आदर्शों और आध्यात्मिक लक्ष्यों पर आधारित था।

गांधी ने राजनीति को धर्म से एकाकार करने की बात उस समय कही जब शेष विश्व या तो पश्चिमी साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण से त्रस्त था, या मार्क्सवादी चश्मे से धर्म को अफीम की संज्ञा देकर नैतिकता रहित समाजवाद का अनुसरण कर रहा था।

यहाँ भारत में उस समय धर्म जैसी महतोपकारी अवधारणा को सांप्रदायिकता के संकीर्ण अवधान में लपेटने की तैयारियाँ हो रही थीं। यह भी एक महान विडंबना ही है कि धर्म की सांप्रदायिक व्याख्या करनेवाली विभाजनकारी मानसिकता (जिन्ना और सावरकर) खुद ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं करती थी। हालांकि नेहरू भी अनीश्वरवाद की उसी परम्परा के समाजवादी संवाहक थे लेकिन कम से कम वे पारलौकिक सत्ता में विश्वास और आध्यात्मिक आस्था के बीच के फर्क को समझते थे।

गांधी ने भी ईश्वर की व्याख्या किसी पराभौतिक, पारलौकिक सत्ता के रूप में नहीं की बल्कि उनका ईश्वर समाज के सबसे अंतिम जन का मानवीय अवतार है जिसे वे स्वयं दरिद्रनारायणऔर हरिजनकहते हैं। कंठी, माला, टीका और टोपी के बिना संत-महात्माओं की परिकल्पना न करनेवाले लोग गांधी को देखकर अपने पूर्वाग्रह तोड़ सकते हैं। रूहानियत को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देनेवाले विश्वकवि टैगोर ने गांधी के उसी सादे कलेवर को देखकर उन्हें महात्मा की उपाधि दी थी।

मैकियावेलियन राजनीति के समर्थक और साम, दाम, दण्ड, भेद को सत्ता संघर्ष के शस्त्र माननेवाले राजनीतिक योद्धा शायद गांधी को राजनीति के सिलेबस में रखना पसंद ना करें। लेकिन उन्हें यह तो मानना ही होगा कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी सत्ता को भयाक्रांत कर देनेवाला वह हाड़-मांस का दुबला सा पुतला सत्याग्रह के अहिंसक अस्त्र से अपना प्रतिरोध कर रहा था।

सत्याग्रह की गांधीवादी अवधारणा भारतीय अध्यात्मवाद की निष्पत्ति है। जिसे गांधी ने अपने एकादश व्रतों में स्थान दिया है। इन एकादश व्रतों में उन्होंने अहिंसा को अपने राजनीतिक संघर्ष का साधन बनाया। सत्य को ईश्वर घोषित करके उसे सर्वोच्च साध्य का रूप दिया। अस्तेय को मनसा-वाचा-कर्मणा लोभ से सुरक्षा का कवच बनाया। अपरिग्रह को सामाजिक जीवन का वह मूल्य, जिसमें आप अपने अधिकारभाव को छोड़कर संग्रह का निषेध करते हैं। संग्रह के निषेध से ही संतोष आता है। ब्रह्मचर्य को व्यक्तित्व के संयमित आचरण का पाँचवाँ व्रत घोषित किया तो अस्वाद को स्वास्थ्य के नियंत्रण का उपाय। अभय के सातवें व्रत से गांधी व्यक्ति को आत्मविश्वास और निडरता का सूत्र समझा रहे हैं तो अस्पृश्यता निवारण को वे सामाजिक एकीकरण और बंधुत्वभाव का साधन मानते हैं।

अपने इन्हीं एकादश व्रतों में गांधी व्यक्ति के शारिरिक श्रम की उपयोगिता को स्वावलंबन का श्रेष्ठ गुण कहते हैं। स्वावलंबन का यही गुण स्वदेशी के दसवें व्रत के रूप में राष्ट्र को आत्मनिर्भरता का मंत्र दे रहा है। गांधी का ग्यारहवाँ व्रत सर्व-धर्म समभाव भारतीय अध्यात्मवाद की धर्मनिरपेक्ष दृष्टि का उदाहरण है। यह धर्मनिरपेक्षता राज्य के रूप में और व्यक्ति के संदर्भ में धर्म से कोई अपेक्षा नहीं करती लेकिन व्यक्ति के रूप में और समाज के संदर्भ में धर्म की उपेक्षा भी नहीं करती।

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