हालात कितने कठिन थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जावेद इकबाल को डिप्रेशन का भयानक दौरा पड़ गया। मैं और खडस भाई उन्हें लेकर घाटकोपर के एक मनोवैज्ञानिक के पास गये। वह खडस भाई का परिचित था। उसने बताया कि यह मुंबई के मौजूदा तनावों का असर है।
लेकिन इन कठिन दिनों में खडस भाई ने अपने ऊपर मुस्लिम पहचान थोपे जाने का पूरी सहजता से मुकाबला किया। तनाव के दिनों में भी मुस्लिम रिश्तेदारों और परिचितों के साथ जुड़कर उन्होंने अपने को सुरक्षित करने की तरकीब नहीं अपनायी। वह अपने दोस्तों तथा आत्मीयों से ही जुड़े रहे।
उनका आशावाद गजब का था, ‘‘यह वक्त भी निकल जाएगा, इस मुल्क में ऐसे कई दौर आए हैं!’’ सांप्रदायिक तनाव के दौरान कई बार लगता था कि उनके घर भी हमला हो सकता है। पूरी कालोनी में उनका परिवार अकेला मुस्लिम परिवार था और चूना भट्टी शिवसेना का गढ़ बन चुका था। उनकी ताकत यही थी कि आसपास के सारे परिवार उन्हें बेहद चाहते थे। मजहबी दायरे से बाहर रहने का उनका दृढ़निश्चय इसमें दिखाई देता है कि उन्होंने बाद में बेटे की अंतरधार्मिक शादी की।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस की घटना के बाद बढ़ती सांप्रदायिकता का प्रश्न उनके लिए महत्त्वपूर्ण हो गया था। सांप्रदायिकता के मुद्दे को समझने के लिए वह इसके अध्ययन में लगे रहते थे। वह मौलाना आजाद और शेख अब्दुल्ला को बार-बार पढ़ते थे, उन पर बहस करते थे। मौलाना आजाद के जामा मस्जिद वाले भाषण का जिक्र करते रहते थे जिसमें मौलाना ने कहा था कि पाकिस्तान की माँग को समर्थन देकर मुसलमानों ने अपना भारी नुकसान कर लिया। उन्होंने मुझे इसे कई बार पढ़कर सुनाया। ‘‘तुम्हें याद है? मैंने तुम्हें पुकारा और तुमने मेरी ज़बान काट ली। मैंने क़लम उठाया और तुमने मेरे हाथ कलम कर दिये। मैंने चलना चाहा तो तुमने मेरे पाँव काट दिये। मैंने करवट लेनी चाही तो तुमने मेरी कमर तोड़ दी। हद ये कि पिछले सात साल में तल्ख़ सियासत जो तुम्हें दाग़-ए-जुदाई दे गई है। उसके अहद-ए शबाब (शुरुआती दौर) में भी मैंने तुम्हें ख़तरे की हर घड़ी पर झिंझोड़ा था। लेकिन तुमने मेरी सदा (मदद के लिए पुकार) से न सिर्फ एतराज़ किया बल्कि गफ़लत और इनकारी की सारी सुन्नतें ताज़ा कर दीं। नतीजा मालूम ये हुआ कि आज उन्हीं खतरों ने तुम्हें घेर लिया, जिनका अंदेशा तुम्हें सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सही रास्ते) से दूर ले गया था।
………अभी कल की बात है कि यही जमुना के किनारे तुम्हारे काफ़िलों ने वज़ू (नमाज़ से पहले मुँह-हाथ धोना) किया था। और आज तुम हो कि तुम्हें यहाँ रहते हुए खौफ़ महसूस होता है। हालांकि देल्ही तुम्हारे खून की सींची हुई है।’’ मौलाना आजाद ने 1947 की बकरीद के दिन जामा मस्जिद के अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था।
खडस भाई इन किताबों में सांप्रदायिकता से जूझने का कोई राजनीतिक सूत्र तलाश रहे थे। यह राजनीति से ज्यादा खुद के चिंतन का आधार ढूंढ़ने के लिए था क्योंकि यह सवाल उनके लिए भावनात्मक रूप महत्त्वपूर्ण हो चुका था।
वह सोशलिस्ट पार्टी को भंग कर देने के विरोध में थे। आपातकाल के बाद जेल से बाहर आने के बाद अगर नयी बनी जनता पार्टी में शामिल हो जाते तो अपने लिए एक बेहतर राजनीतिक करियर सुनिश्चित कर सकते थे। विधायक भी बन सकते थे। लेकिन उन्होंने इसके बदले दलों से बाहर की राजनीति चुनी। उनके कई साथी और यहाँ तक कि रिश्तेदार हुसैन दलवाई भी बाद में जनता दल में शामिल हो गये थे। हुसैन और मुणगेकर तो अंत में कांग्रेस में शामिल हो गये लेकिन खडस भाई जरा भी नहीं डिगे।
उनका मानना था कि जो दल स्पष्ट समाजवादी विचारधारा पर आधारित नहीं है उससे परिवर्तन की राजनीति की उम्मीद करना बेकार है। समता आंदोलन में ठहराव आने पर उनकी सक्रियता भले ही कम हो गयी लेकिन वह जनता दल में नहीं गये। हुसैन के जनता दल में शामिल होने के बाद फाफा जनता दल के राजनीतिक कार्यक्रमों में जाने लगी थीं लेकिन खडस भाई अपनी राजनीतिक सोच पर टिके रहे। उन्होंने किसी को अपनी राजनीतिक दिशा चुनने से मना भी नहीं किया। फाफा औरतों के बीच सकिय हो गयी थीं। खडस भाई को उन्हें इससे कभी रोकते नहीं देखा। जब समाजवादियों की विचारधारा आाधारित पार्टी बनने की संभावना बनी तो वह झट से समाजवादी जन परिषद में शामिल हो गये।