भाषाएं ने केवल हमारे बातचीत करने और विचारों को प्रकट करने का माध्यम हैं, यह हमारी संस्कृति का भी अंश हैं, जो अपने साथ हमारे पूर्वजों के ज्ञान को भी बांधे रखती हैं। ऐसे में यदि एक भी भाषा दुनिया से विलुप्त होती है, तो उसका नुकसान सारी मानव जाति को होगा। पर दुर्भाग्य की बात देखिए हमारे पूर्वजों की यह देन धीरे-धीरे संसार से विलुप्त होती जा रही है।
इस बाबत हाल ही में द ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू) द्वारा किये एक अध्ययन से पता चला है कि सदी के अंत तक दुनिया की करीब 1500 भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी, जिसका मतलब है कि इनको बालने और जानने वाला कोई शेष नहीं होगा। यह शोध जर्नल नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। साथ ही अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने उन कारणों को भी जानने का प्रयास किया है, जिनके कारण यह भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गयी हैं।
इस शोध से जुड़े सह-शोधकर्ता प्रोफेसर लिंडेल ब्रोमहैम ने जानकारी दी है कि दुनिया में 7,000 से ज्यादा ज्ञात भाषाएं हैं, जिनमें से करीब आधी खतरे में हैं। इतना ही नहीं, उनके अनुसार यदि इन भाषाओं को बचाने के लिए तत्काल प्रयास न किये गये तो अगले 40 वर्षों में भाषाओं को होनेवाला नुकसान बढ़कर तीन गुना हो सकता है। शोध में यह भी सामने आया है कि सदी के अंत तक दुनिया की करीब 1500 भाषाएं बोलचाल में नहीं रहेंगी।
किस वजह से खतरे में हैं यह पारम्परिक भाषाएं
भाषाओं पर मंडराते खतरे को स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर ब्रोमहैम ने जानकारी दी है कि भाषाओं को प्रभावित करनेवाले जिन 51 कारकों या संभावनाओं की उन्होंने जांच की है उनमें से कुछ तो इतने अप्रत्याशित और आश्चर्यजनक हैं जिनके बारे में कल्पना करना भी मुश्किल है। इनमें से एक कारक तो सड़कों का घनत्व भी है। उनके अनुसार किसी भाषा के अन्य स्थानीय भाषाओं के संपर्क में आना कोई बड़ी समस्या नहीं है, वास्तविकता में देखा जाए तो कई अन्य देशी भाषाओं के संपर्क में आनेवाली भाषाएं कम खतरे में हैं।
वहीं शोध में सामने आया है कि जिस क्षेत्र में देश को शहरों और गांवों को कस्बों से जोड़नेवाली जितनी ज्यादा सड़कें हैं, वहां भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा उतना ज्यादा है। शोधकर्ताओं के अनुसार ऐसा लगता है कि जैसे सड़कें प्रभावी भाषाओं को अन्य छोटी भाषाओं पर थोपने में मदद कर रही हैं।
इतना ही नहीं, शोध के अनुसार जिस तरह से स्कूली शिक्षा का विकास किया गया है, उससे भाषाओं पर मंडराता खतरा और बढ़ गया है। निष्कर्ष दिखाते हैं कि हमें ऐसे पाठ्यक्रम का विकास करने की आवश्यकता है, जो एकसाथ कई भाषाओं का समर्थन करे। साथ ही स्वदेशी भाषा में प्रवीणता के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
देखा जाए तो भाषा किसी संस्कृति की पहचान, उसकी विरासत होती है, वो सिर्फ शब्दों को ही नहीं संजोती, वो अपने में सदियों पुराने ज्ञान को भी संजोये रहती है|
एक अन्य अनुमान के अनुसार, विश्व की करीब 95 फीसदी आबादी केवल 6 फीसदी भाषाओं को बोलती है। भाषाओं पर मंडराता खतरा कितना जटिल है इस बारे में जानकारी देते हुए शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण देते हुए बताया है कि उपनिवेशीकरण से पहले ऑस्ट्रेलिया में 250 से अधिक भाषाओं को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी गयी थी और एकसाथ कई भाषाओं को अपनाने का चलन था। लेकिन अब वहां केवल 40 भाषाएं ही बोली जाती हैं, जबकि केवल 12 की शिक्षा बच्चों को दी जा रही है।
यदि भारत में 2011 के जनगणना सम्बन्धी आंकड़ों को देखें तो उसके अनुसार देश में करीब 19,569 भाषाएं या बोलियां बोली जाती हैं। इनमें से 121भाषाएं ऐसी हैं जिनको बोलनेवालों की आबादी 10 हजार या उससे ज्यादा है, जबकि बाकी के जानकर 10 हजार से भी कम हैं, कुछ भाषाओं के जानकारों की संख्या तो बस इतनी है जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। इतना ही नहीं, कई भाषाओं के जानकारों की आबादी तो तेजी से घट रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत ने पिछले पांच दशकों में अपनी 20 फीसदी भाषाओं को खो दिया है।
सिर्फ भाषाएं नहीं, उनके साथ उनमें संजोया ज्ञान भी हो जाएगा विलुप्त
पारम्परिक भाषाओं के विलुप्त होने का यह खतरा हमारे लिए कितना नुकसानदेह है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इन भाषाओं के साथ उनमें हमारे पुरखों का संजोया ज्ञान भी विलुप्त होता जा रहा है। इस बारे में यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिच के शोधकर्ताओं द्वारा किये एक शोध से पता चला है कि जैसे-जैसे स्थानीय पारम्परिक भाषाई विविधता खत्म हो रही है, उसके साथ ही सदियों पुराने उपचार और औषधीय पौधों का ज्ञान भी समाप्त होता जा रहा है।
देखा जाए तो जब कोई भाषा खोती है तो हम उस भाषा के लिए बड़ी सहजता से कह देते हैं कि वो भाषा अब नहीं बोली जा रही, लेकिन हमें समझना होगा कि हम उस भाषा के साथ अपनी मानव सांस्कृतिक विविधता का एक हिस्सा भी खो देते हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक जिन भाषाओं के बारे में सदी के अंत तक लुप्त होने की भविष्यवाणी की है उनमें से कई के जानकार अभी भी इस दुनिया में हैं। ऐसे में हमारे पास अभी भी उन स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने का एक मौका बचा है। इसकी मदद से हम आनेवाली पीढ़ियों को अपने पूर्वजों का संजोया हुआ ज्ञान तोहफे में दे सकते हैं।
– ललित मौर्य
( डाउन टु अर्थ हिंदी से साभार )