— डॉ. महेश विक्रम —
पूँजीवादी सभ्यता के स्वर
वर्तमान मानव सभ्यता को विभिन्न कसौटियों पर परखने और सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में उसकी प्रगति को समझने के बड़े प्रयास काफी पहले से होते रहे हैं। 19वीं सदी में विकसित औद्योगिक पूँजीवाद के चरित्र और सर्वहारा के शोषण की पृष्ठभूमि में पहली बार राज्य के मूलभूत संगठन और उसके आर्थिक ढांचे के बीच सम्बन्धों और उसके सामाजिक निहितार्थों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। निसंदेह यह कार्ल मार्क्स ही था जिसने अपने महान ग्रंथ ‘दास कैपिटल’(1867) में मानव सभ्यता के विभिन्न चरणों में उत्पादन के स्वरूप और उसके सम्बन्धों पर पहला गंभीर और विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसके अनंतर मानव संवेदनाओं के स्तर पर इस आर्थिक व्यवहार को सम्यक रूप से समझते हुए विशाल साहित्य की रचना भी चलती रही। इनमें प्रमुखत: जॉन रस्किन की ‘अन टु दिस लास्ट’(1862), लियो टोल्सटोय की ‘वार एंड पीस’(1869) और ऐसी अनेक अन्य रचनाएँ सम्मिलित हैं जिन्होंने मानव सभ्यता के गुण-दोषों का विवेचन कर मनुष्य के और अधिक प्रज्ञावान और विवेकयुक्त होने की अपेक्षा की। एडवर्ड बेलामी ने अपने ‘लुकिंग बैकवर्ड’ (1888) की रचना इस आशावादी सोच और स्वप्न के साथ की थी कि प्रगतिशील, समतावादी और लोकतान्त्रिक दिशा में आगे बढ़ते हुए इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर खड़े मानव के लिए भूख, असमानता, अपराध कल्पनातीत हो चुके होंगे।
परंतु बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सभ्यता पूँजीवाद के जिस नये दौर में प्रविष्ट होती दिखी तो उसके साहित्य को भी उसी स्वर में मुखरित होना स्वाभाविक था जिसमें मनुष्य के लिए प्रत्युत्पन्न परिस्थितियों में स्वयं को बहने देने के अलावा कोई मार्ग सुझाना आवश्यक नहीं था। पहले तो एल्विन टाफलर ने अपनी कृति ‘द फ़्यूचर शॉक’(1970) में इसका संकेत भर दिया था। फिर इस कोटि की रचनाओं में हम फ्रांसिस फुकुयामा की ‘एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ (1992) और सैमुअल पी. हटिंगटन की ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइज़ेशन’(1996) को ध्यान में रख सकते हैं जिन्हें पश्चिमी जगत में काफी मान्यता मिली। इसी क्रम में 21वीं सदी के दूसरे दशक में पेंगुइन द्वारा विंटेज बुक के रूप में प्रकाशित और इस काल में ‘बेस्ट-सेलर’ रही येरुशलम (इजराइल) में इतिहास के प्रोफेसर युवाल नोआ हरारी की मानव नस्ल की कहानी की तीन जिल्दें- ‘सैपियन्स, अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ मैनकाइंड’, ‘होमो डेअस’ तथा ‘21 लेसन्स फॉर द 21स्ट सेंचुरी’ किसी भी जागरूक व्यक्ति को चौंकाने का काम कर सकती हैं। विशेष रूप से यह मान लेने पर कि विशाल मानवता अब नव-पूंजीवाद और उसके द्वारा प्रेरित रोबोटिक तकनीकी या ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ और बायो-टेक के समक्ष घुटने टेक चुकी है और अब उसके लिए उसके सुर में सुर मिलाते हुए अमरत्व प्राप्त कर सकने वाले थोड़े से अति सम्पन्न और साधनयुक्त लोगों के लिए अपनी बलि देते रहने की दिशा में ही आगे बढ़ते जाने के अलावा कुछ भी शेष नहीं रहा है! और उसके लिए किसी आदर्श दिशा में व्यवस्था परिवर्तन और एक सम्यक और समतायुक्त समाज के निर्माण का स्वप्न भी एक भ्रांति ही होगी!
पशु-जगत से पूँजीवाद तक
हरारी ने अपने गंभीर अध्यवसाय पर आधारित मानव प्रजाति का रोचक इतिहास प्रस्तुत किया है और कई आकर्षक उदघाटन भी किये हैं। उसके अनुसार पशु की अवस्था से आगे बढ़ते हुए अपनी निरंतर बढ़ती जिज्ञासा के साथ परस्पर सम्प्रेषण के व्यवस्थित तरीके प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप होमो सैपियन्स ने जीव-जगत की समझ की दिशा में पहली बड़ी क्रांति की। अपने उदर की पूर्ति के लिए वह किसी एक स्थल तक सीमित नहीं रहा और संचरणशील होते हुए पूरी दुनिया में फैल गया। भोजन के स्थायी स्रोतों की लालसा में उसने प्राकृतिक जैविकीय और वानस्पतिक स्थितियों से आगे बढ़कर खेती और खेतिहर बस्तियों के निर्माण द्वारा दूसरी क्रांति की। इसके साथ ही संस्कृति, धर्म और देश की अवधारणाओं ने जन्म लिया जो मानव मस्तिष्क में अनेक तरह के मिथकों या कथाओं के रूप में बने रहते हुए उसे संचालित करने और आक्रामक बनाये रखते हुए साम्राज्य और धर्म के विस्तार का उत्प्रेरक बने।
एक तीसरी क्रांति वैज्ञानिक क्रांति के रूप में घटित हुई जब होमो सैपिएन्स ने यह स्वीकारना शुरू किया कि अभी वह भौतिक रहस्यों के बारे में सब कुछ नहीं जान पाए हैं और उन्हे बहुत कुछ जानना और बनाना बाकी है। आधुनिक काल में इसका धरातल उपनिवेशों के निर्माण और साम्राज्यवाद ने ही निर्मित किया जिसके माध्यम से पूंजी के विकास और आवश्यक यंत्रों के निर्माण का एक बड़ा सिलसिला प्रारम्भ हुआ जिसे पूँजीवादी युग के रूप में देखा जाता है।
हरारी की दृष्टि में यह पूँजीवाद और उसके अनुकूल यंत्र-तंत्र ही मानव इतिहास की नियति है जिसका अप्रतिरोधनीय विस्तार अंतत: मानव प्रजाति का ही रूप बदलने की ओर उन्मुख है। एक प्रकार से वर्तमान पूंजीवाद का स्तुतिगान जैसा करते हुए हरारी यह मानकर चलते हैं कि पूँजीवाद ने एक ऐसे विश्व का निर्माण कर दिया है जिसे केवल कोई पूँजीवादी ही संचालित कर सकता है। एक दूसरी तरह से विश्व को व्यवस्थित करने का एकमात्र गंभीर प्रयास साम्यवाद द्वारा ही किया जा सका जो व्यावहारिक रूप से हर एक स्तर पर इतना भयानक साबित हुआ कि अब किसी में भी उसे पचा सक्ने का माद्दा नहीं बचा होगा। हम भले ही पूँजीवाद को पसंद करें या नहीं परंतु हमें इसी में जीने की आदत डालनी होगी।
एक अन्य तर्क यह है कि हमें थोड़ा और धैर्य रखना होगा और तब वह पूँजीवादी वादा कि बस हम स्वर्ग के द्वार पर पहुँच चुके हैं, चरितार्थ होगा। अगर हम थोड़ा समय और इंतजार कर सके और हमने इस पूँजीवादी फल को थोड़ा और बड़ा होने दिया तो हर एक को उसका बड़ा टुकड़ा मिलना तय है। फिर भी यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि क्या यह आर्थिक फल अनंत काल तक बड़ा होता रह सकता है! क्योंकि ऐसे प्रत्येक फल को बड़ा होने के लिए कच्चे माल और ऊर्जा की आवश्यकता भी होती है और दुनिया की तबाही के भविष्यवक्ता लगातार यह चेताते रहे हैं कि जल्दी या कुछ देर से एक दिन यह होमो-सैपिएन्स हमारी पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त कच्चे माल और ऊर्जा के स्रोतों को समाप्त कर देंगे, तब क्या होगा!
पूँजीवाद और यंत्र-मानव
पूँजीवादी विकास की दिशा के पक्ष में ही हरारी ने इसका भी उत्तर इस रूप में देना चाहा है कि इस सर्वनाश के पहले ही पूँजीवाद से संरक्षित और प्रेरित ‘आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस’ और रोबोटिक तकनीकी और उसके साथ ही आगे बढ़ती जैव-तकनीकी मानव जाति को एक दूसरे धरातल पर खड़ा कर चुकी होगी। जब मनुष्य अपने अमरत्व के स्वप्न को साकार कर रहा होगा, उसकी आवश्यकताएँ बदल चुकी होंगी, यहाँ तक कि उसकी भावनात्मक या संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ भी नियंत्रित हो चुकी होंगी। उसे तब परिवार, समाज, राज्य और धर्म के मिथकों पर निर्भर होने की अनिवार्यता नहीं होगी आदि आदि! उसके लिए जीवन का अर्थ या उद्देश्य ही बदल चुका होगा। वह रासायनिक रूप से परिवर्तित और संचालित न्यूरान के प्रभाव में एक खुशनुमा जीवन जी रहा होगा। निष्कर्षत: कहें तो वह ऐसी विलक्षण शक्तियों से सम्पन्न हो चुका होगा जिसकी कल्पना वह देवताओं में करता आया था और वह खुद देवतुल्य हो चुका होगा।
तो अब मनुष्य को व्यक्तिगत स्तर पर क्या करना अपेक्षित है इसके लिए हरारी का सुझाव है कि उसे अपनी मानसिक क्षमताओं को बढ़ाते रहने और अपने को संतुलित रखने के लिए विपस्सना या ऐसी ही कुछ यौगिक क्रियाओं का सहारा लेना चाहिए। क्योंकि जो कुछ उसके इर्द-गिर्द घटित हो रहा है वह व्यक्तिगत या किसी सामूहिक स्तर पर भी उसकी पहुँच से बहुत दूर बड़ी पूंजी और व्यवस्थाओं द्वारा सुनियोजित और संगठित है जिस पर उसका कोई बस चलने वाला नहीं है।
पूँजीवादी सभ्यता की विसंगतियाँ और विरोधाभास
जैसा कि स्वाभाविक है हरारी अपने इस विश्लेषण में अनेक पुराने प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देता है और कुछ नये प्रश्न उठा भी देता है। जब वह कहता है कि इस समस्त विकास क्रम का लाभ निश्चितत: कुछ अति सम्पन्न और साधनयुक्त व्यक्ति या वर्ग ही लेने में सफल होंगे तो क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि वह अपने साधनों और विशिष्ट सामर्थ्य और प्रभुता को इस अत्याधुनिक तकनीकी के लिए गैरजरूरी कौशल और श्रम से युक्त विशाल मानवता के बीच यूँ ही बाँटते चलेंगे या उसके लिए अधिसंख्य लोगों को बिना किसी उपार्जन के अपनी क्षुधापूर्ति करने, अपनी संतानों को गोद में झुलाने और सैर सपाटे का अवकाश प्रदान कर देंगे। अथवा, क्या वह साधनहीन और भुखमरी और बीमारियों से ग्रस्त ऐसी विशाल जनसंख्या को मानवता की महान संवेदना से उत्प्रेरित होकर उनमें कुछ भोजन और दवाइयाँ वितरित करते होंगे, और वह भी कब तक!
एक अन्य प्रश्न यह है कि पिछले कुछ दशकों से प्रभावी संकट बने हुए भोंडे राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक और धार्मिक हठवाद और आतंकवाद, जिन्हें हरारी कमजोर पड़ते मिथकों के रूप में देखना चाहता है, बिना किसी परिणति और गंभीर परिणाम के स्वत: ही अपना आग्रह छोड़ देंगे! क्या वर्तमान में उनके उभार के कारणों की यह पड़ताल जरूरी नहीं है कि कहीं इनकी जड़ें इस नये वातावरण में दूसरों द्वारा निगल लिये जाने के भय, भयानक रूप से बढ़ती आर्थिक असमानता एवं हताशा तथा पूँजी व प्रभुता की लालसा में तो निहित नहीं हैं जो वर्तमान जगत में खुली छूट पा चुकी है!
क्या एक तीसरा और भी महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी नहीं है कि होमो-सैपियन्स के ही मानस तंत्र में उपजित लोकतन्त्र, स्वतन्त्रता और समता के महान मानवीय आदर्शों को, जिन्हें हरारे आधुनिक काल की मानव सभ्यता के नये मिथक के ही रूप में देखता है, क्या उसके आग्रही समर्थक तथा अपने पारंपरिक श्रम और कौशल से वंचित और विस्थापित पूंजीविहीन विशाल जनसंख्या अनायास ही तिलांजलि दे बैठेगी और स्वयं को निएण्डेर्थलों की तरह ही समाप्त होने देगी!
(जारी)