
— अरमान अंसारी —
शिक्षा को गरीबी से मुक्ति के औजार के रूप में देखा जाता रहा है। हाल में हुए अध्ययन इस बात को स्थापित करते हैं कि वर्तमान में दी जा रही शिक्षा गरीब और अमीर के बीच खाई तेजी से बढ़ा रही है बल्कि गरीब को गरीब बनाये रखने के लिए जाल बुन रही है। यदि हम इसके कारणों की पड़ताल करें तो कई चौंकानेवाले नतीजे सामने आएंगे।
आज शिक्षा में बहुस्तरीय व्यवस्था कायम हो चुकी है। यह व्यवस्था और तेजी से समाज के बीच खाई बढ़ाने का काम कर रही है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, जो प्रत्येक बच्चे का हक है, भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त एक ऐसा हक जो किसी बच्चे से छीना नहीं जा सकता। स्वतंत्रता आंदोलन के दरम्यान स्वतंत्रता सेनानियों ने सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा का सपना देखा था। आजादी के बाद समाजवादी चिंतक और 1942 के आंदोलन के नायक रहे डॉ राममनोहर लोहिया ने यह नारा दिया था : ‘राष्ट्रपति का बच्चा हो या हो मजदूर की संतान, सबको शिक्षा एक समान’। आज उस नारे और उसके माध्यम से देखे गए सपने को भुला दिया गया है।
भारतीय समाज में शिक्षा अपने सामाजिक-आर्थिक खाँचे में बंट गयी है। बच्चे के माता-पिता की आर्थिक-सामाजिक हैसियत के हिसाब से बच्चे को शिक्षा मिलती है। फिर जैसी शिक्षा मिलती है, बच्चे का भविष्य और उसका आगे का करियर उसी के अनुरूप बनता है। भारतीय समाज में, यह लगभग तय हो चुका है कि पैसेवाले माँ-बाप के बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलेगी। वे अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप शिक्षा को खरीद लेंगे। फिर उसके अनुरूप आगे का कैरियर और भविष्य भी। शिक्षा में, बन गयी इस स्थिति को किसी भी तरह से, किसी भी सिद्धांत के तहत, जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई बच्चा, किसी गरीब मां-बाप के घर पैदा होता है, इसमें उस बच्चे की कोई गलती नहीं होती है। वह बच्चा गरीब घर में पैदा हुआ क्या इसलिए उसे अच्छी शिक्षा नहीं मिलेगी? इससे बड़ी हास्यास्पद बात एक लोक कल्याणकारी, राष्ट्र-राज्यके लिए और क्या हो सकती है?
प्रत्येक बच्चा बड़ा होकर देश का नागरिक बनता है।अन्ततोगत्वा वह अपने राष्ट्र और उसके विकास के लिए अपना योगदान देता है। ऐसी स्थिति में उस राष्ट्र विशेष की यह महती जिम्मेदारी बनती है कि उसकी सीमाओं में पैदा होनेवाले प्रत्येक बच्चे के लालन-पालन से लेकर सबको समान रूप से शिक्षा उपलब्ध कराये। सबके साथ समान व्यवहार करे। यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो उस राज्य विशेष के नागरिकों की यह महती जिम्मेदारी बनती है कि अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग कर राज्य को बाध्य करें कि वह राज्य विशेष,अपने प्रत्येक बच्चे को समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराये।
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। यदि आजादी के 74वें वर्ष में शिक्षा संबंधी नीतियों का आकलन करें तो कई महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2009 में शिक्षा अधिकार कानून (आरटीई) बना, जिसमें कक्षा आठ तक ही शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है, आगे की शिक्षा के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता। आंकड़े बताते हैं कक्षा 9 से 12 के बीच भारी संख्या में विद्यार्थियों की पढ़ाई छूट जाती है। इनमें सबसे ज्यादा संख्या लड़कियों की होती है। जिसमें ज्यादातर बच्चे समाज के दबे-कुचले वर्गों एस.सी., एस.टी., ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के होते हैं। आज की तारीख में 12वीं की शिक्षा के बिना किसी प्रकार की नौकरी की कल्पना नहीं की जा सकती। संविधान में दिये गये सामाजिक न्याय के तहत मिलनेवाला आरक्षण भी न्यूनतम योग्यता के बिना संभव नहीं है। नागरिकों द्वारा यह मांग की जानी चाहिए कि सभी बच्चों को नर्सरी से लेकर कॉलेज तक की शिक्षा सरकार एक समान और मुफ्त उपलब्ध कराये।
कुछ महीने पहले जिस प्रकार कोरोना के कारण तालाबंदी हुई, उससे भारी संख्या में लोगों के काम-धंधे चले गये। निम्न मध्यवर्ग और समाज के कमजोर तबकों के बच्चों ने भारी संख्या में सरकारी विद्यालयों का रुख किया। ऐसी स्थिति में सरकारी स्कूली व्यवस्था की कमियां और अपर्याप्तता सामने आ गयीं। सरकारी स्कूलों ने कहना शुरू किया, हमारे पास सीटें खाली नहीं हैं, हम इतने सारे बच्चों को नामांकन नहीं दे सकते। जबकि कानूनी रूप से वे ऐसा नहीं कह सकते। इन पंक्तियों के लेखक के अपने पैतृक गांव (बिहार में) भी सरकारी स्कूल में ठीक ऐसी ही घटना घटी। पूर्वी चंपारण के उस विद्यालय ने दाखिला देने से इनकार तो नहीं किया लेकिन नामांकन के बाद स्कूल के संसाधन कम पड़ गये। बच्चों के बैठने के कमरे, शिक्षकों की अपर्याप्त संख्या आदि-आदि।देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी ठीक ऐसी ही स्थिति हुई।दिल्ली सरकार द्वारा बहुप्रचारित स्कूल अपने को अपर्याप्त समझने लगे। कारण है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकारों द्वारा बच्चों की बढ़ती आबादी के हिसाब से सरकारी विद्यालयों और कॉलेजों का निर्माण नहीं किया गया। समाज के कुलीन तबके ने अपने बच्चों के लिए सरकारी स्कूली व्यवस्था से अलग, निजी विद्यालयों की एक व्यवस्था कायम कर ली। ऐसी स्थिति में सरकारों पर नये स्कूल-कॉलेज खोलने तथा शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर हो इसके लिए दबाव बनानेवाला तबका नहीं रहा। जो सरकारी स्कूल बचे हैं, जो चल रहे हैं, उन पर नजर रखनेवाला, समाज की ओर से सरकार पर, प्रभावी दबाव बनानेवाला कोई समूह नहीं है।
सरकारी स्कूल में अपने बच्चे को दाखिला दिलाकर मां-बाप बच्चे के प्रति अपने शैक्षणिक कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। बच्चे कितना पढ़ रहे हैं, क्या पढ़ रहे हैं, जिन विद्यालयों में उनके नौनिहालों के भविष्य का निर्माण हो रहा है वे उनकी सुध तक नहीं लेते। आलम यह है कि आठवीं जमात तक के अधिकांश बच्चे केवल हिंदी पढ़ना और जोड़-घटाव करना ही सीखते रह जाते हैं। अधिकांश बच्चों को पाठ्यक्रम की पढ़ाई तक नसीब नहीं होती। ये हाल दिल्ली से लेकर देश भर के सरकारी स्कूलों का है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने नीतिगत रूप से यह फैसला कर दिया है कि आठवीं तक के बच्चों को साक्षर बनाना है। ऊपर की कक्षाओं में बच्चों की पढ़ाई को हल्का रखकर काम-धंधे सिखाना है। यह बात सोचने की है कि यदि बच्चे मात्र अक्षर ज्ञान हासिल करेंगे, जोड़-घटाव ही सीखेंगे तो वे सोचना-समझना कब सीखेंगे व संवैधानिक अधिकारों को कब जानेंगे। गरीब तबकों के बच्चे बिना स्कूल गये भी अपने पारिवारिक परिवेश से काम-धंधे और मेहनत-मजदूरी करना तो सीख ही जाते हैं या उनके हालात भी उन्हें कारीगर और मजदूर तो बना ही देते हैं। स्कूल तो बच्चों को समझदार बनाने, बच्चों के अंदर सोचने-समझने की सलाहियत पैदा करने के लिए भेजा जाता है।
अब प्रश्न खड़ा होता है कि क्या महंगे प्राइवेट स्कूलो में, जहाँ धन्ना-सेठों, मंत्रियों, अफसरों के बच्चे पढ़ते हैं, क्या उन्हें भी मात्र अक्षर ज्ञान,जोड़-घटाव और कामकाज के कोर्स सिखाये जाएंगे? आज गरीब बच्चों को अक्षर ज्ञान और मात्र काम-धंधे की शिक्षा इसलिए दी जा रही है कि वे पढ़ाई करके निकलें तो उन्हें फैक्टरियों में कम पैसे पर चुपचाप काम करनेवाला मजदूर मिल सके। दरअसल लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारें भी उद्योगपतियों के लिए काम करती हैं, शिक्षा नीति उन्हीं उद्योगों को समर्थन करने के लिए बनायी जा रही है।
शिक्षा की यह लड़ाई माता-पिता अकेले नहीं लड़ सकते हैं, शिक्षा की लड़ाई में शिक्षकों को भी शामिल करना होगा। आज पूरे देश में, सरकारी स्कूलों में, शिक्षकों की संख्या ऐसे ही बहुत कम है। जितनी है सरकार उन्हें अपना कर्मचारी समझती है।शिक्षकों से पठन-पाठन के अलावा गैर-शैक्षणिक काम भी लेती है। इसका असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ता है। शिक्षकों का सारा ध्यान अपनी नौकरी बचाने पर होता है। अभिभावकों द्वारा इस मसले को लेकर सरकार से कड़े-कड़े सवाल पूछने होंगे। सरकार की जवाबदेही तय करनी होगी।
तालाबंदी के दरम्यान ऑनलाइन शिक्षा को आगे बढ़ाया गया है। इस विषय पर नजर रखनेवाली एजेंसियों का मामना है कि ऑनलाइन शिक्षा का सबसे ज्यादा नुकसान समाज के आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों का हुआ। इनके पास ऑनलाइन क्लास हेतु आवश्यक लैपटाप, टेबलेट जैसी डिवाइस नहीं थे। इनमें से कुछ बच्चों के माता-पिता ने किसी तरह स्मार्टफोन का जुगाड़ किया लेकिन डिवाइस फ्रेंडली नहीं होने के कारण ऑनलाइन शिक्षा का कुछ खास लाभ इन वर्गों के बच्चों को नहीं हुआ। वहीं महंगे निजी विद्यालयों के बच्चों के पास ये तमाम डिवाइस पहले से मौजूद थीं और ये बच्चे इन डिवाइस के साथ काम करने में पहले से फ्रेंडली थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ऑनलाइन शिक्षा का भरपूर लाभ इन अमीर घरों के बच्चों को हुआ और आज भी हो रहा है। आज जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में औपचारिक रूप से ऑनलाइन शिक्षा पर मुहर लगा दी गयी है तो यह बात सहजता से समझी जा सकती है कि इसका लाभ समाज के किस वर्ग को सबसे ज्यादा होगा और इसका नुकसान किस वर्ग को होगा।
शिक्षा अधिकार कानून 2009 (आरटीई) ने शिक्षा की गारंटी के नाम पर समान शिक्षा के लिए सरकार पर बन रहे दबाव को कम कर दिया। आरटीई ने आम आदमी को यह लालच दिया कि महंगे प्राइवेट स्कूलों में आठवीं तक की शिक्षा उनके बच्चों को मुफ्त मिलेगी। गरीब बच्चों के लिए 25 फीसद सीटें आरक्षित हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में आम आदमी ने समान शिक्षा की मांग छोड़ दी और कुछ खास स्कूलों के पीछे भागने लगे। सरकार भी जन-दबाव को कम करने के लिए समय-समय पर कुछ विशेष सरकारी विद्यालयों को लेकर आयी। केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल, प्रतिभा विद्यालय और दिल्ली में शुरू हो रहे स्कूल ऑफ स्पैशलाइज्ड एक्सीलेंस भी इसी कड़ी का एक हिस्सा हैं। इन विद्यालयों की स्थापना से सरकार अपने मकसद में कामयाब हो गयी। उसने मध्य वर्ग और निम्न मध्यवर्ग के दबाव को कम कर दिया। यहाँ फिर एक बार निम्नवर्गीय-निम्नवर्णीय बच्चों के साथ धोखा हुआ। यदि इन विशेष स्कूलों के पीछे भागने के बजाय समान स्कूल प्रणाली के लिए आवाज उठी होती तो सभी बच्चों का भला होता। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जिसने निजी विद्यालयों के माध्यम से अपने बच्चों को शिक्षित किया हो। अमीर देशों में भी सारे बच्चे एकसाथ पढ़ते हैं, चाहे उनके माँ-बाप की आर्थिक-सामाजिक हैसियत कुछ भी हो।
ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि हमारा देश उन देशों से क्यों नहीं सीखता जिन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल प्रणाली द्वारा शिक्षित किया है। यदि सरकार ऐसा नहीं करती तो उसे बाध्य करना होगा। शिक्षा जो कभी चुनावी या राजनीतिक मुद्दा नहीं रही है उसे राजनीतिक मुद्दा बनाना होगा। जनता को शिक्षा के मुद्दे पर भी राजनीतिक पार्टियों को घेरना होगा। उन्हें बताना होगा, जैसा कि ‘लोक शिक्षक मंच’ दिल्ली ने कहा है – समान स्कूली व्यवस्था (कामन स्कूली सिस्टम) एक जरूरी शर्त है।इसका कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ शिक्षा और स्कूल समाज में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का फर्क खत्म नहीं कर सकते, लेकिन बच्चों को बराबरी और इंसाफ का सपना देखना तो सिखा सकते हैं, इसके लिए विचार तो जगा सकते हैं और अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्हें तैयार तो कर सकते हैं!
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क्या लेख है सर ।। हर इंसान को एक बार जरुर पढ़ना चाहिए …. निस्बाद लेख है ..
बाबा साहेब ने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा है .. जबतक बिना कोई अंतर किए सभी बच्चों की पहुंच इस दूध तक नहीं हो जाती – भारत ऊंच-नीच वाला देश बना ही रहेगा .. शायद सत्ताधीशों को यही भेद-भाव वाला राष्ट्र रास आता है , वरना आजादी के 75 सालों के बाद भी समान शिक्षा की व्यवस्था लागू नहीं करने के पीछे कोई बहाना नहीं हो सकता ..
अरमान जी शिक्षा की जरूरत , शिक्षा पर सरकारी नीति , इन नीतियों की विडंबनाएं और परिणाम पर अच्छी बात की है .. बहुत शुक्रिया उनका !
एक जरूरी विषय पर मूल्यवान आलेख अरमान भाई! ‘सबको शिक्षा एक समान’ मु्द्दे पर आजादी के बाद किसी दल की सरकार ने कोई काम नहीं किया।उ .प्र.हाईकोर्ट ने सालों पहले सभी सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाने के निर्देश की सरकार से सिफारिश की थी। कुछ नहीं हुआ। देश के सारे दलों की सरकारें समता विरोधी हैं, भाईजान।कुपढ़-अपढ़ जनता हमेशा राज्यसत्ता की गुलाम रही है।