किसकी शिक्षा कैसी शिक्षा

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— दिवेश रंजन —

ज देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है। एक, पैसेवालों और सक्षम लोगों के लिए, जो अच्छे से अच्छे इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पढ़कर देश के उच्च संस्थानों में जाकर अपना भविष्य संवार सकें। और दूसरी, गरीबों के लिए, जिनका सरकारी स्कूलों से पढ़कर अपना भविष्य बनाने की जदोजहद में उच्च संस्थानों में पढ़ना महज एक सपना रह गया है।

आजादी के बाद से जहां ‘राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान’ कहे जानेवाले उच्च संस्थानों का निर्माण हुआ वहीं प्राथमिक शिक्षा बदहाल होती  रही। सरकारी स्कूली व्यवस्था इस तरह से कमजोर हो गयी कि सरकारी स्कूल के बच्चे इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट स्कूल के बच्चों से पिछड़ने लगे और प्राइवेट स्कूल और इंग्लिश मीडियम स्कूल की महत्ता बढ़ने लगी। सत्तर-अस्सी के दशक में पहली बार सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान चलाया, फिर मिड-डे-मील का भी प्रबंध किया गया और उसके उपरांत आनेवाली हर सरकार ने कुछ न कुछ प्रयास किये लेकिन बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं आया।

शिक्षा अधिकार कानून (राइट टु एजुकेशन ऐक्ट) बना लेकिन इतने सालों बाद भी यह सभी राज्यों में सभी प्राइवेट स्कूलों में लागू नहीं हो पा रहा है I   

उधर आई.आई.टी. और आई.आई.एम. से पढ़ने के बाद अधिकतर नौजवान बाहर का रुख करने लगेI इसका सबसे बड़ा कारण था कि अपने देश में उद्योग-धंधों की कमी थी। ऐसे हर एक प्रोफेशनल को शिक्षा देने में सरकार के करोड़ों रुपये खर्च हो रहे थे फिर भी देश को बौद्धिक लाभ होने की जगह बौद्धिक नुकसान हो रहा था। 

आज भारत विश्व का सबसे जवान देश है। भारत की आबादी लगभग 136 करोड़ है जहां 62 फीसदी से अधिक लोग 15 से 59 साल के हैं और 35 फीसदी लोग 19 वर्ष से कम उम्र के हैं। ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि इस तरह के जनसांख्यिकीय लाभांश ने कई देशों के समग्र विकास का 15 फीसद तक योगदान दिया है। कई एशियाई देशों- जापान, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया और हाल ही में चीन ने- अपने तीव्र विकास में इसका लाभ उठाया है। लेकिन क्या भारत जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा पाएगा?

इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए देश में पर्याप्त रोजगार नहीं है, औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं है, अब भी बहुत-से राज्यों में उद्योग-धंधे नगण्य हैं जो कि इतने बड़े मानव संसाधन का उपयोग करने में भारत को असक्षम बनाता हैI

हमारे देश में स्कूली पढ़ाई के पांच साल के बाद पचास फीसद से अधिक छात्रों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल की कमी है। सरकारी स्कूलों के छठी और सातवीं के आधे से अधिक बच्चे सही-सही पठन (रीडिंग) नहीं कर पाते हैं और सामान्य जोड़ तक नहीं जानते हैं।

विश्व चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा है जहां आर्टिफिश्यल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स टेक्नोलॉजी एक सुनहरा भविष्य है, पर इन संभावनाओं का फायदा हम तभी उठा पाएंगे जब अधिक से अधिक बच्चे गणित में औसतन अच्छे होंI इतनी बड़ी आबादी की उचित शिक्षा और पर्याप्त रोजगार की व्यवस्था नहीं होने पर श्रृंखलाबद्ध रूप में बहुत सारी समस्याओं की शुरुआत हो जाती है।

एनसीईआरटी की पुस्तकें बहुत अच्छी हैं, उनमें बच्चों को सिखाने के लिए बहुत सारे क्रियाकलाप दिये होते हैं, लेकिन उन क्रियाकलाप को करवा पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि एक शिक्षक को एक कक्षा में  60 से 100 बच्चे देखने होते हैंI यूरोप और दूसरे विकसित देशों में एक शिक्षक पर 10 से 12 बच्चों का दायित्व होता हैI छात्र-शिक्षक अनुपात को हमारे यहां तर्कसंगत बनाये जाने की जरूरत है।

भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसद शिक्षा पर खर्च करने की आवश्यकता है, 1968 से प्रत्येक राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह कहा गया है। जबकि 2019-20 में भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 3.1 फीसद शिक्षा पर खर्च किया। चीन की आबादी लगभग भारत जितनी है, पर चीन का 2020 का शिक्षा-बजट भारत के 2021  के शिक्षा-बजट की तुलना में 4 गुना अधिक था। प्रत्येक वर्ष प्रति छात्र खर्च की जानेवाली रकम भारत में बहुत सारे देशों की तुलना में नगण्य है। आईएमडी बिजनेस स्कूल की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय के मामले में 62वें स्थान पर है।

चूंकि शिक्षा, केंद्र और राज्य, दोनों के अधीनस्थ विषय है अतः यह तब तक संभव नहीं है जब तक राज्य सरकार की मंशा ना हो। इस मामले में दिल्ली राज्य की शिक्षा व्यवस्था में संसाधनात्मक और संरचनात्मक नवीनता सबसे बड़ा उदाहरण है। केंद्र सरकार देश की बुनियादी शिक्षा की जमीनी हालत को समझते हुए पिछले साल नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति लायी, जिसे अब एक वर्ष पूरा हो गया है लेकिन इसके सफल क्रियान्वयन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को परस्पर प्रतिबद्ध होने की जरूरत है।

बुनियादी शिक्षा व्यवस्था और औद्योगिक शिक्षा में सरकार बजट बढ़ाने की जरूरत है और इसके लिए यदि उच्च शिक्षण संस्थानों के बजट में कटौती करना पड़े तो वो भी किया जा सकता है I

उच्च संस्थानों जैसे आई.आई.टी. और आई.आई.एम. को वित्तीय रूप से स्वावलंबी संस्थान बनाया जा सकता है। अलूमनी ग्रुप्स की सहायता और प्रोजेक्ट बेस्ड इंडस्ट्री, आदि से वित्तीय व्यवस्था का संचालन किया जा सकता है और पहले से ही कुछ उच्च संस्थान इसपर काम भी कर रहे है।

प्राथमिक शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता का ठीक से परीक्षण नहीं होता, जिससे बहुत नुकसान हो रहा है। गुणवत्ता परीक्षण के लिए अलग से एक प्रतिबद्ध विभाग के निर्माण की जरूरत है जिससे शिक्षकों के कार्यों, विद्यालयों के विकास और हर एक विद्यार्थी की शिक्षा और स्वास्थ्य पर एकदम शुरू से नजर रखी जा सके।

बच्चों के विकास के लिए जब समस्त उचित संसाधन मौजूद रहेंगे तो अवश्य ही बुनियादी शिक्षा में एक आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल सकता है। इसके साथ ही, यदि शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन सुनिश्चित करना है तो हर हाल में इस क्षेत्र को भ्रष्टाचार मुक्त रखने का प्रयास करना होगा और इसके लिए हरेक स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करना होगा। 

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