— राजेन्द्र राजन —
साल के आरंभ को संकल्प पर्व कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस मौके पर दुनिया भर में अनगिनत प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं। यों जीवन में कुछ नया करना हो तो महत्त्वपूर्ण तारीखों का टोटा नहीं है, पर इसके लिए सबसे ज्यादा, साल बीतने का ही इंतजार किया जाता है। बीतते साल में कुछ खास न कर पाने का दंश उसे सालता रहता है। हर कोई नये साल के आरंभ में कुछ बेहतर होने, कुछ ऊपर उठने, कुछ नया करने की कोशिश करता है। इससे पता चलता है कि जिन्दगी के चलते आ रहे ढर्रे में बदलाव की इच्छा कितनी व्यापक है और दूसरी दुनिया संभव है।
नया साल आते ही कोई सिगरेट, कोई पान तो कोई तंबाकू या गुटखा वगैरह छोड़ देने का संकल्प करता है। कोई अपने क्रोध पर काबू रखने का आत्मविश्वास जुटाता है और इसमें सफल रहने का भरोसा दिलाता है। आदमी कुछ ज्यादा उत्साही हो तो वह झूठ न बोलने तक का संकल्प कर डालता है। ऐसे भी बहुत-से लोग मिलेंगे तो रोज सुबह जल्दी उठने, नियमित योग-व्यायाम आदि करने, सारे दैनिक काम समय से निपटाने की भीष्म प्रतिज्ञा के साथ एक जनवरी को सुबह उठते हैं। विद्यार्थी नये साल में लगन से पढ़ाई करने का बीड़ा उठाते हैं।
जहाँ तक सिगरेट, गुटखा, तंबाकू वगैरह छोड़ने का सवाल है, यह इतना मुश्किल नहीं है जितना आमतौर पर समझा जाता है। कोई चाहे तो बड़ी आसानी से इन आदतों से मुक्ति पा सकता है। तभी तो ऐसे लोग हर जगह मिल जाएंगे जो कई-कई बार ये व्यसन छोड़ चुके हैं और आगे भी छोड़ने का इरादा रखते हैं। धुनी लोग हैं कि कुछ संकल्प लिये बगैर मानते नहीं। फिर क्या होता है, यह कोई रहस्य की बात नहीं है।
अमूमन ये प्रतिज्ञाएँ दो-चार दिन की मेहमान होती हैं। मगर चिंता की बात नहीं। एक जनवरी का शो फ्लॉप हो गया, तो दूसरा शुभ दिन ज्यादा दूर नहीं। एक पखवाड़ा भी नहीं बीतेगा कि मकर संक्रांति का स्वर्णिम अवसर आपके सामने होगा। जिस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं, उससे अच्छा दिन खुद को बदलने के लिए और क्या होगा। जीवन में क्रांति के बिना संक्रांति कैसी? वैसे भी कायदे से भारतीयों का देशज या ठेठ नया साल तो यही है। तब तक ठंड की मार भी कम हो जाती है और मौसम पुरानी आदतों के खिलाफ उठ खड़े होने के कुछ अनुकूल हो जाता है। तब तक यह समझ भी आ चुकी होती है कि एक जनवरी से नया साल शुरू भले होता हो पर जिन्दगी में किसी नयी शुरुआत के लिए यह माकूल तारीख नहीं है, क्योंकि इस दिन आदमी पिछले साल भर से सँजोयी हिम्मत के साथ डटा रहे तो भी तमाम संकल्प सुबह-सुबह ठिठुर जाते हैं। इसलिए मकर संक्रांति ही जीवन में क्रांति के लिए उपयुक्त तिथि है। पर होगा फिर यही कि हमारी संकल्प-शक्ति के आगे सूर्य देवता भी शीश नवा देंगे।
लेकिन काहे की फिक्र! आगे छब्बीस जनवरी, वसंत पंचमी, बैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती जैसी महत्त्वपूर्ण तिथियाँ आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। इनसे काम नहीं बना तो अगस्त क्रांति दिवस को आप अंग्रेजो भारत छोड़ो की तर्ज पर अपने लिए व्यसन छोड़ो दिवस और पंद्रह अगस्त को खुद अपने ही अतीत की बेड़ियों से आजादी पाने के दिवस के रूप में मना सकते हैं। हालांकि ऐसे लोग भी हैं जिन्हें जिन्दगी में कोई बड़ा फैसला करने के लिए अपना जन्मदिन ही सबसे उपयुक्त मालूम पड़ता है। कोई हर्ज नहीं। असल बात है संकल्प। एक सज्जन को मैं जानता हूँ जो अपने दिवंगत पिता की उनके जीते-जी न पूरी का जा सकी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हर साल उनकी पुण्यतिथि पर शराब छोड़ने का संकल्प करते हैं। एक दूसरे हैं जो यही वादा हर वर्ष पितृपक्ष में आकाश की ओर उन्मुख होकर दोहराते हैं। मगर कुछ रोज बाद पता चलेगा कि ये सब प्रेरक तारीखें भी काम नहीं आयीं।
कोई बात नहीं, हम गांधी जयंती को आजमा सकते हैं। जिनका गांधीजी से कोई बैर हो, वे चाहें तो नवरात्रि को चुन सकते हैं। अपने देश में अवसरों की कमी नहीं, अवसर प्राधान्य देश है यह। अवसर पर नजर गड़ाये रखिए, अवसर ही अवसर हैं। एक वर्षारंभ चूक गये हैं तो क्या हुआ, नवरात्रि का वर्षारंभ हाजिर है। अपनी परंपरा में ऐसे कई अवसर सुलभ हैं। यह वर्षारंभ संकल्प को पुनर्नवा बना सकता है। लेकिन फुस्स निकला तो आपका क्या बिगाड़ लेगा? कोई तिथि अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं होती, उसे महत्त्वपूर्ण बनाती है कुछ नया शुरू करने और कुछ कर गुजरने की आपकी संकल्प-शक्ति। दूसरा वर्षारंभ भी हाथ से गया तो क्या हुआ, निराश होने की कोई जरूरत नहीं। स्वयं से जोर-आजमाइश शुरू करने की खातिर दशहरे का दिन नजर से नजर मिलाकर सामने खड़ा है। बुराई पर अच्छाई की जीत और शक्ति का विजय-पर्व होने के कारण यह दिन संकल्पारंभ के लिए हर लिहाज से उपयुक्त है।
अगर इसके बाद भी संकल्प लेने की जरूरत और संकल्प-शक्ति बची रही तो दिवाली का अवसर कहीं गया नहीं है। फिर क्यों चूकें! इससे शुभ दिन और कौन-सा हो सकता है- प्रकाश-पर्व। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मुझे अपनी आदतों के अंधकार से संकल्प के प्रकाश की ओर ले चलो। बाहर दीये रखने से क्या होगा, जब तक हम भीतर कोई दीया न जलाएं! इस परम पावन तर्क के सहारे हम अपनी कुप्रवृत्तियों के अँधेरे से बाहर निकलने की प्रतिज्ञा नये सिरे से करते हैं। फिर क्या होता है, प्रभु ही नहीं, हर कोई जानता है। संकल्प-दीयों को बुझने में ज्यादा देर नहीं लगती। उनमें जितना तेल होगा, उसी के हिसाब से तो वे टिकेंगे!
अब निराशा घनीभूत पीड़ा सी मस्तक में छाने लगती है। पर हम हार मानकर बैठ जाएं तो हममें और दूसरे साधारण मनुष्यों में फर्क ही क्या रहेगा? इस तरह अपने को असाधारण समझने वाले लोग नये सिरे से अपनी संकल्प-शक्ति जगाते हैं और फिर किसी अहम तारीख का इंतजार करने लगते हैं। अब इक्का-दुक्का शुभ तिथि ही बची रहती है। पर जो चीज कम होती है उसी का महत्त्व इंसान को समझ में आता है। जो चीज इफरात में होती है उसकी कद्र नहीं होती। जब तक संकल्प के लिए शुभ तिथियों की भरमार है तब तक संकल्प लिया तो क्या लिया! तब संकल्प में कोई खास गंभीरता न हो तो किमाश्चर्यम्? लेकिन अब तो संकल्प को गंभीरता से लेना होगा, नहीं तो यह साल भी पिछले साल की तरह खाली चला जाएगा और सालता रहेगा।
इस तरह साल को सार्थक बनाने का प्रण करते-करते, धीरे-धीरे दूर वर्तमान और भविष्य के क्षितिज पर नया साल उदित होता दिखाई देने लगता है। सारे धुनी लोग एक अहोभाव से भरकर उसका स्वागत करने के लिए व्याकुल हो जाते हैं। जब नया साल आ ही रहा है तो अपने पुरानेपन से छुटकारा पाने और स्वयं के भीतर नवीनता का संचार करने के लिए इससे उपयुक्त अवसर और क्या होगा? इसीलिए तो पिछले वर्षारंभ पर ली गयी प्रतिज्ञाएँ इस बार भी हमारा अभिनंदन करती हैं। इस तरह हमारे संकल्प नित नूतन बने रहते हैं।