— राजू पाण्डेय —
सत्याग्रही गांधी और उनकी अहिंसा तथा सेकुलरवाद की रक्षा को समर्पित नेहरू व उनकी वैज्ञानिकता लंबे समय से हिन्दू कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे हैं। हमारे संघात्मक ढाँचे को सशक्त बनाकर हमारी बहुलताओं को सम्मान, स्वीकृति तथा संरक्षण देनेवाले संविधान की आलोचना व इसके सेकुलर-समावेशी चरित्र को बदलने की कोशिश इन फासिस्ट शक्तियों द्वारा की जाती रही है। हिंसक हिंदुत्व के हिमायती जानते हैं कि गांधी, नेहरू और संविधान को अलोकप्रिय बनाकर कर इन्हें अप्रासंगिक सिद्ध किये बिना हिंसाप्रिय सांप्रदायिक समाज बनाने का उनका सपना कभी पूरा नहीं हो सकता।
रायपुर में हुई धर्म संसद में साधु का बहुरूप धारण किये हुए एक व्यक्ति ने गांधी के विषय में जहरीली और अपमानजनक टिप्पणियां कीं। छत्तीसगढ़ सरकार ने उसे गिरफ्तार कर लिया है और शायद उसे कानून दंडित भी करे। किंतु इस व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद सोशल मीडिया में उसे नायक सिद्ध करने के लिए चलाया जा रहा अभियान और रायपुर में हिन्दूवादी संगठनों की बढ़ती सक्रियता तथा उनके आक्रामक तेवर यह संकेत दे रहे हैं कि छत्तीसगढ़ के नागरिकों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने के प्रयास अब परवान चढ़नेवाले हैं। वैसे भी साम्प्रदायिक हिंसा का प्रवेश कुछ दिनों पूर्व ही छत्तीसगढ़ की शांत फिजाओं में हो चुका है।
यह सारा घटनाक्रम अनेक जटिल और विचारणीय प्रश्नों को हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर रहा है। क्या आनेवाले समय में हिंसक तथा असमावेशी हिंदुत्व की हिमायत करनेवाली फासीवादी ताकतें अपना ध्यान उन प्रदेशों पर केंद्रित करनेवाली हैं जो अभी तक सांप्रदायिकता के जहर से अछूते रहे हैं? क्या साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाकर सत्ता हासिल करने की रणनीति की कामयाबी ने इन ताकतों को यह हौसला दिया है कि वे इसके देशव्यापी क्रियान्वयन के लिए आक्रामक अभियान चलाएं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन प्रदेशों में धार्मिक-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की रणनीति ने भाजपा को सत्ता दिलायी थी, उन प्रदेशों की जनता अब इसे नकारने लगी है और इसी कारण कट्टरपंथी नये प्रदेशों की ओर रुख कर रहे हैं? क्या केंद्र सरकार और अन्य भाजपा-शासित राज्यों द्वारा हिन्दू वर्चस्व व हिन्दू सांप्रदायिकता के समर्थकों को दिये जानेवाले स्पष्ट संरक्षण में यह संकेत निहित है कि हिंदुत्ववादी एजेंडे को क्रियान्वित करने का यह सर्वोत्तम समय है और इस कार्य को युद्धस्तर पर किया जाए?
छत्तीसगढ़ सरकार ने कालीचरण की गिरफ्तारी सुनिश्चित कर वही किया जो एक सेकुलर और संवैधानिक मूल्यों पर विश्वास करनेवाली सरकार को करना चाहिए था। किंतु कालीचरण को प्रखर और निर्भीक हिन्दू नेता के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास और उसकी गिरफ्तारी का उग्र विरोध करने की रणनीति यह दर्शाते हैं कि अराजक शक्तियाँ इसे भी अपने प्रचार के एक अवसर के रूप में भुनाने का मन बना चुकी हैं।
जहरीले, विवादित, साम्प्रदायिक वैमनस्य और हिंसा फैलानेवाले बयान देकर स्वयं को और अपने घातक एजेंडे को भी चर्चा में बनाये रखनेवाले नेताओं-धर्मगुरुओं-पत्रकारों की एक पूरी फौज इन हिन्दू संगठनों के पास है। केंद्र सरकार और भाजपा-शासित राज्यों की सरकारों द्वारा इन्हें अभयदान प्राप्त है। क्या सेकुलरवाद पर विश्वास करनेवाली गैर-भाजपाई सरकारों पर यह जिम्मेदारी आयद नहीं होती कि वे इस तरह के तत्त्वों पर कठोरतम कानूनी कार्रवाई करें?
रायपुर में आयोजित कथित धर्म संसद में कुछ कांग्रेस विधायक भी उपस्थित थे। निश्चित ही उन्हें यह मालूम रहा होगा कि इस आयोजन का उद्देश्य महज धार्मिक चर्चा नहीं है बल्कि इस जमावड़े की असल मंशा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए रणनीति बनाना है। इसके बावजूद इन्हें इस कार्यक्रम का हिस्सा बनना पड़ा। दरअसल कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दल असमंजस में हैं कि आक्रामक हिंदुत्व के इस उभार के प्रति उनकी प्रतिक्रिया क्या हो? उन्हें यह भय सता रहा है कि यदि वे सच्चे अर्थों में सेकुलर पार्टी की भांति आचरण करेंगे तो हिन्दू मतदाता उन्हें नकार देगा। इसीलिए भाजपा के हिंदुत्व की फीकी नकल समझे जानेवाले सॉफ्ट हिंदुत्व की रणनीति इन्हें सुरक्षित लग रही है। हम इन दलों के नेताओं को मंदिरों के चक्कर लगाते, धार्मिक आयोजन कराते और उनमें भाग लेते तथा उदार व प्रगतिशील विचार वाले धर्मगुरुओं की तलाश करते देखते हैं।
इन राजनीतिक दलों को इस बात का आकलन करना होगा कि क्या हिंदुत्व की अवधारणा इतनी लोकप्रिय हो गयी है कि इसने हिन्दू समाज में व्याप्त जातिगत, आर्थिक व लैंगिक असमानता को गौण बना दिया है? क्या अब दलित,आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग पीढ़ियों से चले आ रहे शोषण को भुलाकर अपने शोषकों को केवल इस कारण वोट दे सकते हैं कि वे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण हेतु प्रयत्नशील हैं? क्या सदियों से धर्म आधारित लैंगिक भेदभाव की शिकार महिलाएँ हिन्दू राष्ट्र की स्थापना जैसे किसी नारे को अपने शोषण का अंत मान सकती हैं?
कांग्रेस और अन्य प्रतिपक्षी दलों को यह भी ध्यान में रखना होगा कि हिन्दू धर्मावलंबियों की केवल धार्मिक पहचान नहीं होती, इनकी भाषिक, प्रांतीय और जातीय विशेषताएँ इन्हें एक रंग में रँगे जाने से बचाती हैं। यदि हिन्दू समाज को धार्मिक आधार पर मतदान करने वाली वोटिंग यूनिट में नहीं बदला जा सकता तब आक्रामक हिंदुत्व के उभार के प्रति विपक्षी दलों के भय को अकारण एवं इनकी प्रतिक्रिया को अतिरंजित मानना होगा।
यह भी विश्लेषण का विषय है कि क्या 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता और विभिन्न प्रान्तों में उसके बढ़ते जनाधार का सम्पूर्ण श्रेय केवल हिंदुत्व के एजेंडे को दिया जा सकता है? यदि विपक्षी पार्टियाँ भाजपा के अनुकरण में गढ़े गये हिंदुत्व के किसी संस्करण की मृग मरीचिका के पीछे भागना बंद कर अपने मूलाधार सेकुलरवाद पर अडिग रहतीं तो क्या उनका प्रदर्शन कुछ अलग रहता- इस प्रश्न का उत्तर भी ढूँढ़ा जाना चाहिए।
क्या हिन्दू राष्ट्रवाद के नेतृत्वकर्ताओं में अधिसंख्य हिन्दू समाज के सवर्ण-सम्पन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? यह वही वर्ग है जिसकी हमेशा से सत्ता, संपन्नता और शक्ति से नजदीकी रही है। यह हिन्दू जनमत को कुछ हद तक प्रभावित तो कर सकता है किंतु यह हिन्दू जनसंख्या का बहुत थोड़ा भाग है। वंचित व शोषित समुदायों में आ रही राजनीतिक जागृति के कारण पारंपरिक, शास्त्रीय राजनीति में सवर्ण वर्चस्व घटने लगा है। हम दलितों,पिछड़ों व आदिवासियों को सत्ता पर काबिज होते देख रहे हैं। क्या उग्र हिंदुत्व के उभार को सवर्ण वर्चस्व को कायम रखने की रणनीति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है?
एक दुविधा कालीचरण और उस जैसे सैकड़ों विकृत मानसिकता के शिकार लोगों के घृणित और भड़काऊ बयानों पर हमारी प्रतिक्रिया के विषय में भी है। अनेक बुद्धिजीवियों का यह मानना है कि इस तरह के बयान बुनियादी मुद्दों पर विमर्श को केंद्रित न होने देने तथा सरकार की नाकामी को छिपाने की एक तरकीब भर हैं। सरकार समर्थक मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रिय हिंसक हिंदुत्व समर्थक समूह इन बयानों को चर्चा में बनाये रखने की पूरी कोशिश करते हैं और इन बयानों का विरोध कर हम भी इन बयानवीरों और उनकी विचारधारा को अनावश्यक रूप से प्रचारित करते हैं। होना तो यह चाहिए कि इनकी उपेक्षा कर दी जाए।
किंतु चिंतकों का एक दूसरा वर्ग यह मानता है कि भाजपा के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक हिन्दू संगठनों का मूल उद्देश्य ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना है। साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाना तथा हिंसा भड़काना सरकार की नाकामियों और मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने की रणनीति नहीं है बल्कि यही असली एजेंडा है। इसलिए हिन्दू साम्प्रदायिकता से संघर्ष को सर्वोपरि प्राथमिकता देनी होगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो गृहयुद्ध के हालात बनेंगे, शायद इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी से काम न चले और लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्थान सैन्य तानाशाही ले ले।
कुछ अन्य सवाल हिन्दू धर्म की प्रकृति में लाये जा रहे परिवर्तन से संबंधित हैं जिन पर प्रतिपक्षी दलों को गौर करना चाहिए। यूरोप का इतिहास इस बात का गवाह है कि राज्य संचालन में धर्म का हस्तक्षेप हिंसा और युद्ध को बढ़ावा देता है। कठिन संघर्ष के बाद इन देशों ने धर्म को राज्य संचालन से दूर रखने में सफलता प्राप्त की तब जाकर वहाँ उदार नागरिक मूल्यों की स्थापना हुई व लोकतंत्र सफल हुआ। धर्म को सत्ता संचालन का आधार बनाने तथा सैन्य कार्रवाई और हिंसा के द्वारा अपने धर्म का प्रसार करने की प्रवृत्ति इस्लाम के अनुयायियों में भी देखी जाती रही है और नतीजतन इन देशों को भी युद्ध और हिंसा के कारण भारी नुकसान उठाना पड़ा है। इन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था और स्वतंत्र नागरिक जीवन की राह बहुत कठिन रही है।
यह देश के जिम्मेदार बुद्धिजीवियों का उत्तरदायित्व है कि वे जनता को बताएं कि जिस नागरिक आजादी का आनंद वे स्वतंत्रता के बाद से अब तक लेते रहे हैं कोई भी धार्मिक सरकार सबसे पहले उसे छीनने का कार्य करेगी।
सावरकर अपने पूरे जीवनकाल में इस बात से पीड़ित रहे कि हिन्दू धर्म हमारे देश में सत्ता संचालन का आधार क्यों नहीं है, क्यों मनुस्मृति जैसे ग्रंथ हमारे देश के संविधान की जगह नहीं ले सकते? क्यों हमारे अंदर अपने पवित्र स्थानों और धर्मग्रंथों को लेकर ऐसा उन्माद नहीं है कि हम इनके लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाएँ? वे निरंतर इस बात की वकालत करते रहे कि हम हिंसा, छल-कपट और सैन्यशक्ति के बल पर हिन्दू धर्म को दुनिया भर में फैलाएँ। लगता है कि सावरकर के सपनों को अब साकार किया जा रहा है।
संस्थागत धर्म विशाल मठ-मंदिरों और बड़ी-बड़ी धार्मिक संस्थाओं के जरिये संचालित होता है। अपने विशाल धार्मिक साम्राज्य के विस्तार व रक्षा के लिए धर्मगुरुओं को कदम-कदम पर सरकार के सहयोग की आवश्यकता होती है। इन धार्मिक संगठनों का भौतिक ऐश्वर्य और संपत्ति के प्रति आकर्षण इतना प्रबल होता है कि धीरे-धीरे इनकी और किसी पूँजीपति की मालकियत वाले व्यावसायिक समूह की कार्यप्रणाली में अंतर करना कठिन हो जाता है। यही कारण है कि हम हिन्दू धर्म की वैसी व्याख्याएँ होती देखते हैं जैसी सरकार को पसंद हैं।
हिन्दू धर्म की मूल प्रवृत्ति न तो विस्तार की है न ही राज्य संचालन में हस्तक्षेप करने की। जिन धर्मों की आलोचना में कट्टर हिंदुत्व के समर्थक दिन-रात एक कर रहे हैं दरअसल वे उन्हीं धर्मों के कतिपय त्याज्य दोषों का समावेश हिन्दू धर्म में करने को लालायित हैं। पता नहीं हिन्दू धर्म में ऐसे कितने धर्मगुरु हैं जिनमें इतना नैतिक बल शेष है कि वे देश को बता सकें कि सरकारी हिंदुत्व का हिन्दू धर्म से कोई वास्ता नहीं है।
अगर कांग्रेस धर्म के विमर्श में प्रवेश करना ही चाहती है तो उसे बहुत संकोचपूर्वक सॉफ्ट हिंदुत्व जैसे शब्द गढ़ने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उसे तो डंके की चोट पर यह कहना चाहिए कि हिन्दू धर्म तो सॉफ्ट ही है और जिस हिंदुत्व की चर्चा आज की जा रही है वह दया, क्षमा, करुणा, सहनशीलता और उदारता जैसी हिन्दू धर्म की बुनियादी विशेषताओं को ही नष्ट करने पर आमादा है।
आज आवश्यकता असमावेशी और कट्टर हिंदुत्व के उभार के कारणों का विश्लेषण करने की है। हमें यह तय करना होगा कि हमारे बहुलताओं से परिपूर्ण देश को इससे कितना नुकसान पहुँच सकता है? क्या हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी परिपक्व है कि हम इन असंवैधानिक गतिविधियों का सामना कर सकें? वर्तमान परिस्थिति का वैज्ञानिक व वस्तुनिष्ठ आकलन किये बिना हम इन खतरनाक प्रवृत्तियों पर काबू पाने की कारगर रणनीति भी नहीं बना पाएंगे।