— डॉ योगेन्द्र —
ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्से मैक्डोनाल्ड ने 17अगस्त 1932 को जब कम्युनल एवार्ड की घोषणा की तो इससे डॉ भीमराव आंबेडकर नाराज थे। उन्होंने अपनी नाराजगी इन शब्दों में व्यक्त की- “प्रधानमंत्री मि. रेम्से मैकोनाल्ड जो फैसला सुनाएंगे, वह सभी को सभी तरह से संतोषजनक होगा, ऐसी अपेक्षा किसी ने नहीं की थी; इसलिए अछूत समाज की ओर से राउंड टेबल कांफ्रेंस में मैं तथा मेरे सहयोगी मित्र रावबहादुर श्रीनिवासन ने अछूतों के लिए जिन अधिकारों की मांग की थी, वह अछूतों को ठीक वैसे ही मिलेंगे, ऐसी आशा हमने नहीं की थी। हमें मालूम था कि हमारी मांग में थोड़ा बहुत बदलाव होगा। लेकिन जाहिर फैसले को देखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि उसमें की गई काट-छांट अत्यंत निर्दयता से की गयी है। प्रांतीय विधानसभा से संबंधित जो सीटें हमारे हिस्से में आयी हैं, वे बहुत अधूरी हैं, इसलिए अछूतों के बहुत कम प्रतिनिधि विधानसभा में जा सकेंगे तथा उससे जैसा प्रभाव पड़ना चाहिए, वैसा नहीं पड़ेगा। मतलब अछूतों के हितों की रक्षा करने के लिए जितनी कम से कम सीटें मिलनी चाहिए, उतनी सीटें इस फैसले से नहीं मिली हैं, इसलिए अछूत समाज की दृष्टि से देखा जाए तो यह फैसला अधूरा, असंतोषजनक तथा अन्यायपूर्ण है।” (पृ. 60, बाबासाहेब डॉ आंबेडकर के ऐतिहासिक व्याख्यान, भाग-2)
गांधीजी नाराज थे ही। यों दोनों की नाराजगी की वजह अलग-अलग थी। डॉ आंबेडकर इस वजह से परेशान थे कि अछूतों को विधानमंडल में बहुत कम सीटें दी गयी हैं तो गांधीजी नाराज थे कि अछूतों को पृथक निर्वाचन का अधिकार क्यों दिया गया? गांधीजी को सीटों के आरक्षण से एतराज नहीं था। गांधीजी ने इस फैसले के खिलाफ ब्रिटिश सरकार को कई पत्र लिखे, लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
अंतत: गांधी ने घोषणा कर सरकार को लिखित रूप से सूचित किया कि अगर आपने फैसले को वापस नहीं लिया तो 20 सितंबर से आमरण अनशन करेंगे। यहॉं इसका जिक्र करना जरूरी है कि जिस तरह से अछूतों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था, अन्य 11 संप्रदायों को भी यह अधिकार दिया गया था। डॉ आंबेडकर के शब्द हैं- “पृथक निर्वाचन केवल दलित वर्ग के लिए ही स्वीकृत नहीं किया गया है, वरन भारतीय ईसाइयों, आंग्ल भारतीयों, यूरोपियों के साथ ही साथ सिखों और मुसलमानों को भी दिया गया है। साथ ही पृथक निर्वाचन भूपतियों, श्रमिकों और व्यापारियों को भी दिया गया है।” (वही, पृ 67-68)
जब गांधीजी ने दलितों के पृथक निर्वाचन के खिलाफ धमकी दी तो 9 सितंबर को डॉ आंबेडकर ने कहा- “मेरा जो फैसला है, वह कायम है। हिन्दुओं के स्वार्थ के लिए अपनी जान देकर गांधीजी को यदि अछूत समाज के विरुद्ध संग्राम ही करना है तो अछूत समाज को भी अपने अधिकारों की प्राप्ति और उसके संरक्षण के लिए प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार होना पड़ेगा।” (पृ 66)
गांधीजी ने जब आमरण अनशन की ठान ली, तो देश में राजनीतिक हलचल बढ़ गयी। सवर्ण और दलित समाज दोनों पुनर्विचार के लिए विवश हुए। डॉ आंबेडकर भी बदले। उन्होंने कहा- “यदि गांधीजी चाहते हैं कि कम्यूनल एवार्ड में बदलाव हो, तो वे अपना प्रस्ताव प्रस्तुत करें कि वह उससे बेहतर गारंटी देंगे, जो हमें एवार्ड में प्राप्त हुई है।” (वही, पृ 72)
19 सितम्बर को एक सभा आयोजित हुई जिसमें हिन्दू नेता, अनेक प्रांतों के अछूत नेता और महिला वर्ग की अनेक नेत्री शामिल हुए। इसमें मदनमोहन मालवीय, डॉ आंबेडकर, डॉ राजेंद्र प्रसाद, कमला नेहरू आदि मौजूद थे।विचारों के आदान-प्रदान, बैठकें, प्रस्ताव, सभाओं के क्रम जारी थे। 22 सितंबर को डॉ आंबेडकर और गांधीजी की मुलाकात यरवडा जेल में हुई। दोनों ने एक दूसरे को समझा। 24 सितम्बर को गांधी और आंबेडकर के बीच समझौता हुआ। इसे ही पूना पैक्ट कहा जाता है। इसमें मुख्य बातें यही हैं कि दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार खत्म कर दिये गये, लेकिन आरक्षित सीटों की संख्या 71से बढ़ाकर 148 कर दी गयी।
28 सितंबर 1932 को आंबेडकर ने वरली की एक सभा में पूना पैक्ट पर संतोष जाहिर करते हुए कहा- “अछूतों का संयोग है कि इस समय गांधीजी द्वारा अछूतों की मांग का विरोध नहीं करने के कारण मुझे बहुत संतोष हुआ। गांधीजी ने बहुत समझदारी दिखाई तथा हिन्दू नेताओं के साथ करार हुआ उससे अछूतों को लाभ हुआ है। पहले पंजाब प्रदेश में अछूतों को एक भी जगह नहीं मिली थी, लेकिन पूना पैक्ट के तहत अब वहां 8 जगह मिली हैं। साथ ही दूसरे प्रदेशों में जो अधिक जगह मिली है, वे अलग हैं।दूसरा लाभ यह हुआ है कि अब केंद्रीय विधि कौंसिल में अछूतों की जगह का अनुपात 18% ठहराया गया है। इस प्रश्न के संबंध में पहले प्रधानमंत्री के संधिपत्र में कुछ नहीं था। प्रधानमंत्री के संधिपत्र में यह एक अत्यंत हानिकारक तथा धोखादायक दोष रह गया था।” ( वही, पृ 94, वही)