भारत दे सकता है आजादी को विशेष अर्थ

1
चित्र : ड्राइंग एकेडेमी से साभार

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

भारत की आजादी की लड़ाई विशिष्ट रही है इसलिए उससे विशिष्ट किस्म की आजादी निकलनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि 75 साल होने के बाद आजादी को विशेष अर्थ मिलने की कौन कहे वह अपना अर्थ ही खो रही है। महात्मा गांधी ने 13 सितंबर 1931 को लंदन से रेडियो कोलंबिया के माध्यम से अमरीकी जनता को संबोधित करते हुए कहा था, हमारा अतीत गौरवशाली है लेकिन उसका महत्त्व तभी है जब हम अपनी आजादी हासिल कर लें। लेकिन हमारे संघर्ष की ओर दुनिया का ध्यान इसलिए नहीं गया है कि हम आजादी के लिए लड़ रहे हैं। बल्कि इसलिए गया है कि हम उसके लिए कौन सा साधन अपना रहे हैं। वह साधन विशिष्ट है। आज तक मानवता के इतिहास में किसी राष्ट्र ने उस साधन को नहीं अपनाया। वह साधन हिंसा नहीं है। न रक्तपात है और न छल-कपट। वह साधन है सत्य और अहिंसा। दुनिया इस अहिंसक क्रांति की ओर निगाह लगाये हुए है। अब तक राष्ट्र उन लोगों से प्रतिशोध लेते रहे हैं जिन्हें वे अपना शत्रु मानते थे। दुनिया के तमाम राष्ट्रों के राष्ट्रगान में शत्रुओं के विनाश का आह्वान है। लेकिन मैं हिंसा के माध्यम से आजादी पाने की बजाय युगों तक इंतजार करूंगा। यही कारण है कि मैं दुनिया के महान देशों का आह्वान कर रहा हूं कि वे भारत का सहयोग करें।

गांधी भारत की आजादी इसलिए नहीं चाहते थे कि उन राष्ट्रों से उन कौमों से और उन जातियों से बदला लेना है जिन्होंने हमारे ऊपर आक्रमण किया या जिन्होंने हमें गुलाम बनाया और यातना दी। उन्हें भारत की आजादी इसलिए चाहिए थी कि भारत वैश्विक सभ्यता में अपना योगदान दे सके। ताकि भारत विश्व मानवता के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके। लेकिन भारत की आजादी अहिंसक क्रांति से नहीं मिली। भारत की आजादी के साथ सांप्रदायिक हिंसा की ऐसी सुनामी आयी कि इस उपमहाद्वीप के साथ पूरी दुनिया हिल गयी। भारत की आजादी के महान संघर्ष पर वही सबसे बड़ा कलंक है। बल्कि यूं कहें कि वही सबसे बड़ी समस्या है जो आजादी को एक दिन ग्रहण लगा सकती है। वही भारत में तानाशाही का कारण बन सकती है।

स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा में कई कोण थे। लेकिन वे एक दूसरे से कहीं न कहीं मिलते थे और त्रिभुज या चतुर्भुज बनाते थे। यानी वे एक दूसरे से लड़कर भी जुड़ जाते थे। लेकिन सांप्रदायिकता वह विस्फोटक विचार था जो भारत को खंडित करने की क्षमता रखता था, रखता है और आगे भी रखेगा।

वह ऐसा विचार है जो हमारे सामने तमाम भेष धर कर प्रकट होता है। कभी वह विचार पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद का रूप धर कर आता है, कभी बहुसंख्यकवाद का, तो कभी अल्पसंख्यक समुदाय और विशेषकर मुसलमानों के विरोध के रूप में आता है। वह कई बार मानवाधिकार के विरोध के बहाने आता है तो कई बार समुदाय बनाम व्यक्ति के अधिकार के नाम पर आता है। कई बार वह किसी नेता, किसी प्रतीक और किसी मिथक के सम्मान और गरिमा के बहाने आता है तो कभी संस्कृति के बहाने। कभी वह विचार राष्ट्र-राज्य की रक्षा के बहाने आता है तो कभी सभी को समान करने और कभी किसी की अलग पहचान को मिटा कर एक राष्ट्रीय पहचान बनाने के बहाने आता है।

भारतीय आजादी का अर्थ उसके संप्रभु राष्ट्र की सुरक्षा ही नहीं है। उसका अर्थ उसके नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा भी है। वहां जितना जरूरी है कि एक राष्ट्र अपने विकास का निर्णय स्वयं ले उतना ही जरूरी है कि एक नागरिक भी अपने खान, पान, भाषा, विचार और आस्था का निर्णय स्वयं ले। यह निर्णय वहां तक जायज है जहां तक वह हिंसक न हो और जहां तक वह समाज की व्यवस्था को नष्ट न करता हो।

सामाजिक व्यवस्था की परिभाषा को किसी एक संगठन और संप्रदाय के अंधविश्वास, छद्म स्वाभिमान या संस्कृति से नहीं जोड़कर देखा जा सकता। यही कारण है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा हमारी आजादी की अवधारणा से टकरा रही है। 

गांधी आजादी को स्वराज का नाम देते थे। वे उसे रामराज्य का नाम भी देते थे। लेकिन उनके रामराज्य का मतलब अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम की शासन प्रणाली से उतना नहीं था जितना कि दुनिया की सभी काल्पनिक और आदर्श शासन व्यवस्थाओं से था। उन्होंने यह बात बार बार कही है कि मैं रामराज्य का प्रयोग इसलिए करता हूं क्योंकि वह मुहावरा भारत की जनता को समझ में आता है। वह हिंदुओं को भी समझ में आता है और मुसलमानों को भी समझ में आता है।

लेकिन उसका मतलब बाइबल में वर्णित ईश्वर के साम्राज्य से है, उसका मतलब अरब में स्थापित खलीफा के शासन से है, उसका तात्पर्य संत रैदास के बेगमपुरा (जहां गम न हो) से है। उसका मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी सेना चली जाए और उसकी जगह पर भारतीय लोग हिंदुस्तानी सेना के गुलाम हो जाएं। न ही उसका मतलब यह है कि अंग्रेज पूंजीपतियों की जगह पर भारतीय पूंजीपति जनता पर हावी हो जाएं और उनका शोषण करें। वह व्यवस्था हर तरह के शोषण और अत्याचार से मुक्त होगी।

लेकिन आज जिस तरह से निवारक नजरबंदी कानूनों ने भारतीय जनता की आजादी और मौलिक अधिकारों को घेर रखा है उससे न तो गांधी का रामराज्य स्थापित होने वाला है और न ही रैदास का बेगमपुरा। हमारी आजादी का संघर्ष विदेशी राजनीतिक सत्ता की गुलामी से था लेकिन वह उतना ही नहीं था। वह आर्थिक विषमता से लड़ाई का संघर्ष भी था और जातिगत विषमता से भी मुक्त होने का संघर्ष था।

उसके बिना राजनीतिक आजादी बेकार थी। हमारे समाजवादियों ने महात्मा गांधी के आजादी के सपने के साथ कम्युनिस्टों के पूंजीवाद विरोधी संघर्ष और डॉ भीमराव आंबेडकर के जातिविहीन समाज के सपने को जोड़ने का काम किया। वे उनके बीच एक सेतु का काम करना चाहते थे। वे उपनिवेशवाद, जातिवाद, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता सभी का विकल्प प्रस्तुत करना चाहते थे। लेकिन उनका विकल्प न तो सर्वहारा की तानाशाही थी और न ही किसी संप्रदाय या जाति विशेष के प्रति घृणा पर आधारित व्यवस्था। वे सत्ता की राजनीति के साथ बदलाव की राजनीति करने के हिमायती थी। बदलाव की राजनीति को डॉ राममनोहर लोहिया पैगंबरी राजनीति कहते थे।

लोहिया के लिए समाजवाद का मतलब समता और समृद्धि के साथ नागरिक अधिकारों की हिफाजत थी। यही वजह थी कि वे पूंजीवादी और कम्युनिस्ट प्रणाली से अलग समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे जहां पर नागरिक अधिकार भी हों और बराबरी भी हो। इस प्रभाव और प्रतिस्पर्धा में भारत के कम्युनिस्ट भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यकीन करने लगे। उन्होंने सोवियत संघ, चीन और दूसरे कम्युनिस्ट देशों की तरह से क्रांति का रास्ता छोड़कर लोकतांत्रिक चुनाव का रास्ता पकड़ा। जिस कम्युनिस्ट विचारधारा में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा समता की अवधारणा से बहुत पीछे है वह भी अब नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष में आगे है। यह भारत के विचार और उसकी आजादी की अवधारणा का असर है कि आज किसान आंदोलन, सीएए और एनआरसी विरोधी आंदोलन में कम्युनिस्टों ने खुलकर भागीदारी की है और उसके लिए यातना भी झेली है।

आज भारत की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था नयी किस्म का करवट ले रही है। वह करवट व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समता तथा समृद्धि के समाजवादी सपने के साथ छल करनेवाली है। 1991 के साथ उदारीकरण और वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह अपने साथ नयी किस्म की आजादी का सपना लेकर आयी थी। लेकिन वह अपने साथ हिंदुत्ववादी आंदोलन की लहर लेकर आयी। उदारीकरण का दावा था कि वह बाजार की तरह राजनीतिक व्यवस्था को खुला बनाए रखेगा और सभी को समृद्धि देगा और उनकी उपभोक्तावादी आकांक्षाएं पूरा करेगा। ऐसा तेजी से विकसित होती सूचना प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी का दबाव भी था। लेकिन वैसा हो न सका।

उदारीकरण की वैश्विक विफलता ने पूंजीवाद को नए किस्म का आश्रय लेने को मजबूर कर दिया। जो पूंजीवाद 1991 में दावा कर रहा था वह दुनिया में राष्ट्रवादी सीमाओं को ढीला कर देगा और विश्व को आर्थिक रूप से जोड़कर पूरी दुनिया में समृद्धि लाएगा उसने अब कट्टर राष्ट्रवाद से समझौता कर लिया है। 

आज भारत में बहुसंख्यकवाद और पूंजीवाद ने राष्ट्रवाद का ऐसा खाका तैयार किया है जहां पर मजदूरों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का दायरा सीमित होता जा रहा है। व्यक्ति की गरिमा से ज्यादा राष्ट्रीय एकता और अखंडता का एजेंडा अहम होता जा रहा है। अगर कभी कम्युनिस्ट व्यवस्था और पूंजीवाद दोनों व्यवस्थाएं बंद स्वरूप अख्तियार कर चुकी थीं तो उसी तरह से आज भारत में बहुसंख्यकवाद और पूंजीवाद ने एक प्रकार का अधिनायकवादी गठबंधन बनाया है। वह गठबंधन संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों की कद्र नहीं करता। वह संविधान की प्रस्तावना में दिये गये उद्देश्यों को याद नहीं रखता है। हालांकि वह संविधान की शपथ लेता है लेकिन उसको बदलने की तैयारी किये रहता है। वह उन समुदायों को देश का दुश्मन मानता है जो प्राकृतिक संसाधनों की लूट का विरोध करते हैं। वह उन किसानों को अलगाववादी बताता है जो अपने हक के लिए अहिंसक आंदोलन करते हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खेती पर कब्जा किए जाने का विरोध करते हैं।

यह गठबंधन जॉर्ज आरवेल के उपन्यास 1984’ में वर्णित व्यवस्था की तरह अपने नागरिकों की निगरानी करने और प्रमुख संस्थाओं और उनके प्रमुखों की जासूसी करने में यकीन करता है। सूचना प्रौद्योगिकी ने उस निगरानी को सरल बना दिया। इसी के साथ राजद्रोह का कानून, यूएपीए, एनएसए और दूसरे तमाम कानून सरकार को स्वतंत्र नागरिकों को दबाने और कुचलने के असीमित अधिकार देते हैं।

यह ऐसा पूंजीवाद है जो फ्रांसिस फुकुयामा के एंड ऑफ हिस्ट्री को विफल कर रहा है। वह सारी दुनिया को लोकतांत्रिक बनाने की बजाय एक एक कर लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है।

अगर यूरोपीय यूनियन का सदस्य हंगरी यूरोप के लोकतांत्रिक मानदंडों से दूर जा रहा है तो ब्राजील अपने दक्षिण अमरीकी मुक्ति संघर्षों से भाग रहा है। कम्युनिस्ट शासन के पतन के बाद रूस में नयी किस्म की तानाशाही कायम हो गयी है। जो अंततः पूंजीवाद का नया रूप है। एशियाई देशों में म्यांमार समेत कई स्थानों पर बहुसंख्यकवाद प्रबल हो रहा है। भारत जो कि यूरोप और अमेरिका से होड़ लेते हुए अपने लोकतंत्र को विविधतापूर्ण आयाम दे रहा था वह आज आतंकवाद और भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर उसे सीमित कर रहा है।

आजादी की इस 75वीं सालगिरह के मौके पर देश के जागरूक नागरिकों का दायित्व है कि वे जनता को संविधान में वर्णित आजादी और स्वाधीनता संग्राम से उभरे आजादी के मूल्यों के प्रति जागरूक करें।

इस दौरान हिंसा और झूठ का प्रभाव बढ़ा है। सत्य और अहिंसा का प्रभाव घटा है। ऐसा करने में बड़ी पूंजी से संचालित मीडिया ने बड़ा योगदान दिया है। तो सोशल मीडिया भी जो पहले आजादी के दायरे को डिजिटल दुनिया में बढ़ाने का दावा करता था आज उसे घटा रहा है। बल्कि वह परोक्ष रूप से उस सार्वजनिक स्थान को हथिया रहा है जहां जम्हूरियत और आजादी फलती-फूलती थी। यह समय है अपनी आजादी को समझने और उसे विशिष्ट अर्थ देने का और ध्यान रहे कि आजादी का यह विशेष साध्य सत्य और अहिंसा के विशिष्ट साधनों से ही हासिल होगा।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here