कई बरसों से देश के संविधान, सामाजिक सौहार्द, सहिष्णुता, सांस्कृतिक वैविध्य, उदात्त परंपरा, भाईचारा, नागरिक स्वतंत्रता, मानवाधिकार, स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत और लोकतांत्रिक मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं। और भी चिंता की बात यह है कि ये हमले सत्ता में बैठे लोगों की सरपरस्ती में हो रहे हैं। यही नहीं, अब तो खुलेआम जनसंहार का आह्वान किया जाने लगा है। जाहिर है, यह बहुत ही असामान्य, बहुत ही संकटपूर्ण और बहुत ही चुनौतीपूर्ण दौर है और कोई भी संवेदनशील तथा जिम्मेदार नागरिक इससे मुंह नहीं मोड़ सकता। ऐसे में, उचित ही हिंदी के कुछ लेखकों ने एक प्रतिरोध अभियान की पहल की है। इस सिलसिले में उनकी ओर से जारी अपील इस प्रकार है –
प्रियवर,
इस समय देश भर में जो हो रहा है उसकी भीषण सचाई से आप, सृजनकर्मी होने के नाते, अच्छी तरह से परिचित हैं। संविधान के बुनियादी ढाँचे की उपेक्षा करते हुए संवैधानिक संस्थाओं और मर्यादाओं का, लोकतांत्रिक असहमति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का, नागरिक सजगता-सक्रियता का, राजनैतिक-सांस्कृतिक-नागरिक विपक्षों का खुलकर दमन किया जा रहा है। याराना पूँजीपतियों और कारपोरेट क्षेत्र को छोड़कर लगभग सभी अन्य वर्गों की स्वतंत्रता-समता-न्याय के खाते में कटौतियाँ हो रही हैं। असहमति को देशद्रोह तक क़रार दिया जा रहा है। तरह-तरह की क़ानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक बन्दिशें लगायी जा रही हैं। स्त्रियाँ-दलित-अल्पसंख्यक-आदिवासी लोग निरन्तर हिंसा, हत्या, बलात्कार, अन्याय आदि के शिकार हो रहे हैं। मँहगाई, ग़रीबी, विषमता, बेरोज़गारी रिकार्ड स्तर पर तेज़ी से बढ़ रही है और मानो इनसे ध्यान बँटाने के लिए साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, जातिवाद आदि को राज्य के संरक्षण में बढ़ावा दिया जा रहा है। सामाजिक समरसता, सद्भाव और आपसदारी को सुनियोजित ढंग से नष्ट किया जा रहा है और उतने ही ढंग से विस्मृति तथा दुर्व्याख्या फैलायी जा रही हैं। भारतीय परम्परा और संस्कृति के नाम पर पाखंड, तमाशे, अनाचार और अत्याचार हो रहे हैं। तरह-तरह के डर फैलाये जा रहे हैं। धर्म संसद के नाम से सजाए गए मंच से हत्याओं का खुला आह्वान तो बिल्कुल हाल की बात है और पिछले सात सालों में जो कुछ हुआ है, उन्हें देखते हुए वह कहीं से अप्रत्याशित और आश्चर्यजनक नहीं है।
यह सब भारतीय लोकतंत्र और संविधान, भारतीय सभ्यता, भारतीय परम्परा की उदात्त मूल्य-दृष्टियों का, अकसर निस्संकोच नासमझ पर सदलबल, प्रत्याख्यान और अपमान है।
ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में साहित्य-कला-संस्कृति से जुड़ा समाज चुप नहीं बैठ सकता क्योंकि उसके सत्व और स्वतंत्रता को भी लगातार अवमूल्यित किया जा रहा है। इस समय ज़रूरी है कि लेखक और पाठक, अन्य कलाकारों, विद्वानों के साथ मिलकर अपना गहरा प्रतिरोध प्रगट करें। हाल ही में इलाहाबाद में हुए प्रलेस-जलेस-जसम के साझा आयोजन में पारित प्रस्ताव एक संयुक्त मोर्चे का आह्वान करते हुए इस बात को रेखांकित करता है कि आरएसएस-भाजपा ने ‘2022 तक चलनेवाले अमृत-महोत्सव अभियान के जरिए अपने एजेंडे को ज़ोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया है। विभाजन की त्रासदी को आधार बनाकर देश के भीतर मुसलमानों के खिलाफ़ नफ़रत और सीमा पर पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्धोन्माद भड़काने का स्थायी आधार विकसित करने में वे लग गए हैं। यहाँ तक कि वे संविधान को भी अपनी डिज़ाइन के राष्ट्रवादी जामे में फिट करने की क़वायद में लग गए हैं। इस सबका हमें जवाब देना होगा।’
निश्चय ही, सृजन-विचार-कर्म सभी स्तरों पर प्रतिरोध की एकजुटता हमारे समय की माँग है। इसी के मद्देनज़र दिल्ली में हुई लेखकों की एक सभा ने यह निश्चय किया है कि हम 2022 को प्रतिरोध वर्ष के रूप में मनायें और उन लेखकों-कलाकारों की जन्मतिथियों पर ऐसे आयोजन करें जिन्होंने साहित्य में स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्यों का सर्जनात्मक और वैचारिक अन्वेषण और सत्यापन किया है। ऐसे आयोजन वैचारिक मतभेदों से अलग हटकर हों और इनसे यह संदेश जाए कि पूरे देश के साहित्य-संस्कृति-कर्मी साहस और ज़िम्मेदारी के साथ इस ऐतिहासिक मुक़ाम पर एकजुट होकर, अहिंसक ढंग से प्रतिरोध कर रहे हैं। इन आयोजनों के ज़रिए संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के सामान्य आह्वान के साथ-साथ भीमा-कोरेगाँव मामले में तथा इस तरह के अन्य फ़र्ज़ी मामलों में गिरफ़्तार किए गए लेखकों-पत्रकारों-बुद्धिजीवियों की रिहाई की माँग ज़ोरदार तरीक़े से उठनी चाहिए।
इस सब के लिए जो भी साधन ज़रूरी लगे वे आप सभी मित्रों को स्थानीय स्तर पर प्रयत्न कर जुटाने होंगे। यह ज़रूरी होगा कि जैसे हाल ही में समाप्त हुए किसान आन्दोलन ने राजनैतिक दलों से दूरी बरती, वैसे ही हम भी इस अभियान को दलीय राजनीति से दूर रखें। हम यह उम्मीद करते हैं कि कम-से-कम हिन्दी-उर्दू अंचल में अगले छः महीनों में सौ से अधिक प्रतिरोध-आयोजन आप सबकी पहल, सजग सक्रियता और शिरकत से सम्भव हो पायेंगे। इस अभियान की शुरुआत महात्मा गांधी की शहादत के दिन, 30 जनवरी 2022 से करना उपयुक्त और ध्यानाकर्षक होगा। अलग-अलग शहरों में वहाँ की स्थानीय बाध्यताओं को देखते हुए इसे एक दिन आगे या पीछे भी किया जा सकता है। दिल्ली में एक आयोजन समिति गठित की गयी है। ऐसी ही आयोजन समितियाँ सभी जगह पर गठित हों ताकि अभियान व्यापक तालमेल और सोद्देश्य ढंग से संचालित हो सके।
निवेदक
अशोक वाजपेयी
असग़र वजाहत (अध्यक्ष, जनवादी लेखक संघ)
कुमार प्रशांत
राजेंद्र कुमार (अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच)
विभूति नारायण राय (अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ)
हीरालाल राजस्थानी (संरक्षक, दलित लेखक संघ)
हेमलता महीश्वर (अध्यक्ष, अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच)
समर्थन और एकजुटता में
मृदुला गर्ग पंकज बिष्ट रामशरण जोशी विष्णु नागर असद ज़ैदी मनमोहन शुभा गोपाल प्रधान मदन कश्यप रामकुमार कृषक मिथिलेश श्रीवास्तव नरेश सक्सेना वीरेंद्र यादव अखिलेश कौशल किशोर कात्यायनी राजेश जोशी राजेन्द्र शर्मा कुमार अम्बुज आलोक धन्वा प्रेम कुमार मणि रंजीत वर्मा संतोष भदौरिया सूर्यनारायण अवधेश प्रधान लाल्टू देवीप्रसाद मिश्र सत्यपाल सहगल अचुत्यानंद मिश्र विजय कुमार शिवमूर्ति संजीव शम्भूनाथ मधु कांकरिया सुधा अरोड़ा संजय सहाय चंचल चौहान कुलदीप कुमार जवरी मल्ल पारख रेखा अवस्थी मुरली मनोहर प्रसाद सिंह आशुतोष कुमार बजरंग बिहारी तिवारी