भाषा में नहीं, भाषा को सोचते हुए मणि कौल

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मणि कौल (25 दिसंबर 1944 - 6 जुलाई 2011)


— प्रयाग शुक्ल —

णि कौल की अधिकतर फिल्में हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर ही केंद्रित/आधारित हैं। सतह से उठता आदमी (मुक्तिबोध)उसकी रोटी (मोहन राकेश) और नौकर की कमीज (विनोदकुमार शुक्ल) का ध्यान इस सिलसिले में सहज ही हो आता है। फिर दुविधा (विजयदान देथा) भी है- राजस्थानी / हिंदी में। इस तथ्य के स्मरण के साथ यह बात भी सहज ही ध्यान में आती है कि वह भाषा से संबंधित या भाषा में हुआ सिनेमा भर नहीं है- वह भाषा को सोचता हुआ सिनेमा भी है। इस नाते मणि कौल का सिनेमा हिंदी में बनी हुई फिल्मों से बहुत अलग है : फिर वे चाहे बॉलीवुड की फिल्में हों या समान्तर सिनेमा की फिल्में।

यह तो सर्वज्ञात है कि कोई भी भाषा किसी अन्य माध्यम/विधा में व्यवहृत होते ही, एक अलग प्रकार की भूमिका में उतर जाती है, फिर वह चाहे कविता-कहानी-नाटक-उपन्यास-निबंध में बरती जा रही हो, या रंगमंच, सिनेमा और संगीत में। पर, यह भी होता ही है कि उसकी यह भूमिका कभी-कभी इतनी सघन, तीव्र, गहरी, एकाग्र और मौलिक हो सकती है कि उस पर अलग से सोचने की जरूरत महसूस होती है। मणि कौल की फिल्मों में हिंदी की भूमिका पर, भाषा की भूमिका पर, अलग से सोचने और चर्चा करने की ऐसी ही जरूरत सचमुच महसूस होती है, क्योंकि वहाँ सिने भाषा में, सिने माध्यम में, भाषा का व्यवहार कुछ ऐसा सोचने और खोजने के लिए किया जा रहा है जो किसी मानवीय अर्थ और बोध को छवियों के साथ मिलकर उन्हें बहुत गहरा कर दे। जब उसकी रोटी फिल्म रिलीज हुई थी तो उसे यह कहकर बहुतों के द्वारा कोसा गया था कि वह अत्यंत शिथिल और उबाऊ है, कि उसके विलंबित लय वाले संवाद अत्यंत असहज लगते हैं। तब इस बात को भुला दिया गया था कि  संवादों की इस प्रकार की अदायगी का अपना अर्थ और मर्म है। दुर्भाग्यवश मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह बात इतनी बार दुहरायी गयी कि आम दर्शक का ध्यान तो उसकी ओर से कटता ही गया, जिन्हें हम प्रबुद्ध दर्शक कहेंगे वे भी उनके सिनेमा को लेकर उस तरह उत्साहित नहीं हुए, जिस तरह कि होना चाहिए। उदयन वाजपेयी की एक पुस्तक अनेक आकाश जरूर एक अपवाद की तरह सामने आयी, और कुछ कवियों-लेखकों सिने-प्रेमियों की वे टिप्पणियाँ भी जो मणि कौल के सिनेमा को खारिजकरने की जगह उसकी खोजपरक-यात्रा को समझने का यत्न करती हुई मालूम पड़ीं।

यह भी कम दुर्भाग्य की बात नहीं थी कि मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह धारणा भी बनी, बनाई गयी-  और प्रचारित भी हुई- कि उनका सिनेमा पश्चिम के फिल्मकारों से प्रेरित सिनेमा है। जबकि स्थिति यह है कि वह फेलिनी, इंगमार बर्गमैन, फ्रांसुआ त्रुफो, गोदार आदि-आदि के सिनेमा से कहीं मेल नहीं खाता। हाँ, उसमें ऋत्विक घटक के सिनेमा की  ‘प्रतिध्वनियाँ अवश्य हैं, जो मणि कौल के गुरु और पथ प्रदर्शक थे। अच्छी बात यह भी है कि मणि  ‘प्रतिध्वनियों पर ही नहीं रुके, अपनी तरह की सिने-भाषा की खोज में लगे रहे।

प्रसंगवश, यहाँ यह भी याद करने की जरूरत है कि मणि कौल का संगीत से गहरा संबंध था और उन्होंने स्वयं ध्रुपद सीखा, और अनन्तर कुछ देशी-विदेशी शिष्यों को सिखाया भी। यह स्वाभाविक ही था कि सिनेमा में भी वह शब्द-भाषा को सांगीतिक रचना का-सा आधार देकर, भाषा-मर्म की कई तहों को टटोलते-खँगालते। सिद्धेश्वरी देवी जैसी वृत्तात्मक फिल्म में मणि कौल ने बनारस के घाटों, गंगा, और इमारतों के भीतर-बाहर के दृश्यों को जिस तरह फिल्माया है, और शब्द की बारी आने पर, इन सबके बीच उन्हें तैराया-गुँजाया है, उसका मर्म फिल्म देखते हुए ही समझा जा सकता है- उसे लिखकर बताना बहुत मुश्किल ही है। सो, वह यत्न मैं नहीं करूँगा। अपने को एक बार यह याद जरूर दिलाऊँगा कि अगली बार जब भी  सिद्धेश्वरी देवी को देखने का अवसर आए तो उसमें शब्द-व्यवहार को लेकर अपनाये गये दृष्टिकोण को लेकर और सजग रहूँ। स्मृति के आधार पर- फिल्म की स्मृति के आधार पर- अभी तो एक चीज का ध्यान और गहरा रहा है कि मणि ने अपनी फिल्मों में शब्द को प्रहरों के आधार पर जिस तरह बरता है, उस पर भी ध्यान जाना ही चाहिए। कोई पहर रात का है, या दिन, दुपहर-शाम का है, इसका एक विशेष ध्यान वह रखते थे।

यह भी गौर करनेवाली बात है कि मणि कौल की जिन फिल्मों में, शब्द- व्यवहार गौण है- जैसे कि माटी मानस में, वहाँ भी छवियों को फिल्मकार के द्वारा भाषा में ही सोचा जा रहा है-माटी मानस, दृश्यों का, माटी निर्मित चीजों का, फिल्मांकन मात्र नहीं है, हर दृश्य कुछ कह रहा है, और उस दृश्य के पीछे से भाषा मानो बिन बोले भी, बोल रही है, हमें गहरे में स्पर्श भी कर रही है। यह एक जादू है, जिसे मणि ने लाघव से साथ साधा है। अगर ऐसा न  होता, तो  ‘माटी मानस जैसा लंबा वृत्त-चित्र, एक फीचर फिल्म का-सा आनन्द हमें नहीं दे पाता। सतह से उठता आदमी तो भाषा के अचूक और नितान्त नये तेवरों के कारण अपूर्व है ही।

मणि की अपनी भाषा तो कश्मीरी थी, पर जब हिंदी को उन्होंने बरता तो उसमें इतना गहरे पैठकर बरता, कि उस पर तो कोई अलग से भी अध्ययनकर सकता है। मैं यह टिप्पणी, अपनी बेटी वर्षिता के यहाँ, त्रांदाइम (नार्वे) में बैठकर लिख रहा हूँ, जहाँ फिलहाल इस बात का अवकाश नहीं है कि मैं मणि कौल की कुछ फिल्मों को पुनः देखता, और कुछ अधिक संदर्भ-सामग्री जुटाता। मणि पर लिखे गये लेखों और टिप्पणियों की प्रतिलिपियाँ भी नहीं हैं, जो भारत में घर पर हैं। पूरी टिप्पणी स्मृति के आधार पर लिखी है, और उन चीजों के आधार पर, जो मन में बसी हुई हैं- मणि के सिनेमा को लेकर।

और कह सकता हूँ कि स्मृतियाँ कई हैं : सिद्धेश्वरी देवी के फिल्मांकन के बीच मीता वशिष्ठ का स्वर जिस तरह तरंगित होकर एक-एक शब्द को ध्वनित करता है, और स्वयं अभिनेत्री की देह जिस तरह जल की सतह के भीतर-ऊपर तरंगित होकर देह-भाषा से भी बहुत कुछ कहती है- और देह-भाषा और शब्द भाषा, अपनी-अपनी तरंगों में अलग होते हुए, कहीं मिल भी जाते हैं, वह अपूर्व है। शब्द भाषा से कब, कैसा, और कितना, काम लेना है, इस पर मणि का सोच निश्चय ही एक अलग प्रभाव डालता है। छवियों के सिलसिले में दुविधा के गुड़ प्रसंग ने भी मुझे बहुत आकर्षित किया था।

मणि के साथ अपनी मुलाकातों की भी कई स्मृतियाँ हैं। एक बार मणि, मैं, चित्रकार मनजीत बावा, और दो-एक अन्य मित्र कार से चण्डीगढ़ और फिर वहाँ से जालंधर गये थे, और साथ ही दिल्ली लौटे थे। मणि की दृष्टि बेधक थी। वे बातें करते थे। मुखर थे। जालंधर के रास्ते में जब हम कहीं कुछ खाने-पीने के लिए किसी ढाबे पर रुकते थे, तो किसी दृश्य, वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग, पर उनकी टिप्पणी देखने-सुनने वाली होती थी। कुछ स्मृतियाँ किसी चित्र-प्रदर्शनी को साथ-साथ देखने की भी हैं। हम स्मृतियों के विवरणों को कुछ भूल भी जाते हैं। और बातचीत भी हूबहू कहाँ याद रहती है। पर, स्मृति में किसी से मिलने-बतियाने का और उस सुख का एक बोध बना रहता है। वही बोध मणि सेमिलने का मन में बना हुआ है।

क्या मणि अपने सिनेमा में भी स्मृति(यों) के बोध की बात ही नहीं करते, और नैरेटिव के बोझ को उतारकर फेंक नहीं देते। और जब शब्द-भाषा के माध्यम से किसा संवाद या उच्चारण को रखते हैं तो बस स्मृति के, उसके मर्म को गहरा करने के लिए ही रखते हैं- शब्दों का कोई अपव्यय किये बिना! (अक्टूबर 2015)

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