भयभीत करने वाली सफलता

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— नन्दकिशोर आचार्य —

स बार जब बीकानेर से वर्धा आ रहा था तो यात्रा में छात्रों के एक समूह से हुई मुलाकात ने बड़ी दुश्चिन्ता में डाल दिया। अहमदाबाद में यह छात्र-समूह डिब्बे में चढ़ा था और देर तक प्रारंभिक हुल्लड़ के बाद जब छात्र थोड़ा विश्राम की मुद्रा में आये तो उन्हें शायद यह खयाल आया कि वे रेल के डिब्बे में हैं, जिसमें कुछ अन्य लोग भी यात्रा कर रहे हैं। इससे पहले तो उन्होंने उस डिब्बे को अपने हॉस्टल का गलियारा ही बना रखा था। किसी वातानुकूलित डिब्बे में इस तरह के हुल्लड़ से मेरा साबका पहले नहीं पड़ा था।

थोड़ी देर की बातचीत से पता चला कि वे सब उच्च तकनीकी विषयों के छात्र हैं। बातचीत के दौरान जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मैं वर्धा के महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अहिंसा पाठ्यक्रम पढ़ाता रहा हूँ तो उन सब को अपवादरहित आश्चर्य हुआ कि अहिंसा का भी कोई पाठ्यक्रम हो सकता है और यह भी कि आखिर उसमें क्या पढ़ाया जा सकता है। उनके इस आश्चर्य पर तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इससे पहले भी कई बार ऐसे आश्चर्य का सामना मैं कर चुका था और इसलिए धैर्यपूर्वक उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करने की कोशिश करता रहा- यद्यपि यह नहीं जान पाया कि यह कोशिश कितनी कामयाब रही होगी।

लेकिन चिंता में डालने वाली बात कुछ दूसरी थी। उनमें से लगभग सभी का विचार था कि अहिंसा वगैरह सब बेकार की बातें हैं और दुनिया की समस्याएँ केवल तकनीकी से ही हल हो सकती हैं। लगभग इसलिए कह रहा हूँ कि जो दो-तीन छात्र बातचीत में विशेष हिस्सा नहीं ले रहे थे, हो सकता है उनके विचार कुछ भिन्न रहे हों। अन्यथा तो सभी का यही मत मानना चाहिए। मैंने जब कहा कि तकनीकी स्वयं हिंसक हो सकती है- हुई भी है और आखिर सैनिक तकनीकी का विकास स्वयं दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा है- तो उनका उत्तर और भी भयभीत कर देने वाला था।

एक छात्र ने कहा कि युद्ध अपने में कोई समस्या नहीं है, बल्कि समस्या के समाधान का तरीका है क्योंकि युद्ध को यदि अन्तिम सीमा तक जाने दिया जाए तो समस्या का स्वयमेव समाधान हो जाता है। लेकिन शांति के नाम पर युद्ध को बीच ही में रोक दिया जाता है और उसके परिणामस्वरूप समस्या भी लटकी रहती है। उसका स्थायी समाधान संभव ही नहीं होता।

एक अन्य छात्र का तर्क था कि यूरोप के देश अब आपस में इसीलिए नहीं लड़ते कि उन्होंने युद्धों के द्वारा अन्ततः अपनी समस्याओं का समाधान पा लिया है। संकेत यह था कि यदि भारत-पाकिस्तान अथवा भारत-चीन युद्धों को बीच में ही न रोका जाता तो उनकी समस्याएँ भी- किसी के भी हक में सही- सुलझ ही जातीं। यदि भारत का पक्ष विजयी नहीं होता तो भी समस्या के बने रहने के तनाव से उत्पन्न नुकसान से तो हम बच ही गये होते। इससे क्या फर्क पड़ता है कि नरसंहार एकमुश्त न होकर किस्तों में हो रहा है! यदि समस्या का समाधान करना हो तो हिंसा तो होगी ही होगी- अहिंसा से किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है।

अपनी प्रारंभिक प्रस्थापना उन्होंने फिर दुहरायी कि अन्ततः तकनीकी का विकास ही समस्याओं का समाधान करेगा क्योंकि जब सबका पेट भरा होगा– जो तकनीकी संभव कर सकती है- तो आपसी झगड़ों और हिंसा की कोई जरूरत ही नहीं होगी।

मैंने जब कहा कि आज तक दुनिया में जितना भी शोषण, दमन और उत्पीड़न होता आया है, वह सब उन लोगों ने ही किया है जिनके पेट जरूरत से ज्यादा भरे रहे हैं तो उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं था। बस इतना ही कि स्वार्थ और हिंसा मनुष्य के जैविक स्वभाव में है- पशुओं में भी इसीलिए हिंसा है। लेकिन पशु का पेट भरा हो तो वह हिंसा नहीं करता और मनुष्य अधिकांशतः पेट भरने के बाद हिंसक होता है- मेरी इस स्थूल आपत्ति का भी उनके पास कोई समाधान नहीं था।

इस सारी बातचीत का उन पर शायद कुछ असर पड़ा होगा क्योंकि दो-तीन छात्रों ने मुझसे जानना चाहा कि इन बातों को ठीक तरह से समझने के लिए क्या मैं उन्हें दो-तीन किताबों के नाम बता सकता हूँ क्योंकि उन्हें अपनी पढ़ाई की व्यस्तता में अन्य चीजों को समझने के लिए ज्यादा वक्त नहीं मिलता।

मैंने कहा कि सबसे पहले तो उन्हें महात्मा गांधी की हिन्द स्वराज ही पढ़नी चाहिए और एमएन राय की न्यू ह्यूमेनिज्म, जिसका हिंदी अनुवाद नव मानववाद के नाम से मैंने ही किया है। जाहिर है कि इस सुझाव में इनडॉक्ट्रिनेशन की कोई मंशा नहीं थी क्योंकि ये दोनों ही विचारक कई बातों में समान होते हुए भी अपने दार्शनिक आधारों और तर्क प्रक्रियाओं में एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।

मेरा गन्तव्य आने पर मुझे उतरना ही था। इस बातचीत का एक प्रभाव यह तो दिखा कि मेरा सामान आदि डिब्बे के दरवाजे तक पहुँचाने और प्लेटफॉर्म पर उतारने में दो-तीन छात्रों ने मेरी स्वेच्छापूर्वक मदद की क्योंकि विलम्ब से चलने के कारण गाड़ी बारह बजे रात के बाद ही वर्धा पहुँची थी। इतनी देर तक उनका जागते रहकर मुझसे बात करते रहना भी प्रियकर था।

मगर मुझे इस बात की इतनी चिन्ता नहीं हुई कि इतिहास की उनकी जानकारी बहुत कम थी या तकनीकी पर उन्हें जरूरत से ज्यादा भरोसा था- चिन्ता इस बात को लेकर अधिक हो रही है कि हमारे युवा वर्ग के सर्वाधिक प्रतिभाशाली समझे जाने वाले समूह की मानसिकता में हिंसा को वैध और एकमात्र उपाय मानने की भावना किन कारणों से बलवती हो रही है। यह ठीक है कि उन आठ- दस लड़कों को सारे युवा वर्ग का प्रतिनिधि मानना ठीक नहीं होगा। लेकिन अपने कार्यक्षेत्र में उनकी प्रतिभा से इनकार नहीं किया जा सकता और अभी शिक्षा की जो स्थिति है, उसमें स्पष्टतया सर्वाधिक प्रतिभाशाली समझा जाने वाला छात्र वर्ग उच्च तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में ही आ रहा है। सैद्धांतिक विज्ञान से भी ज्यादा आकर्षण तकनीकी शिक्षा का है- इस बात पर प्रो. यशपाल जैसे वैज्ञानिक भी चिन्ता प्रकट कर चुके हैं।

इसलिए इस वर्ग में हिंसा को आवश्यक मानने, युद्ध को अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र प्रभावी उपाय मानने और शान्ति के प्रयासों को सराहने और उनका समर्थन करने के बजाय उन्हें समस्या को बनाये रखने का जिम्मेदार बताने आदि के जो खयाल- उन्हें सुस्पष्ट और तर्कसिद्ध विचार चाहे न भी मानें- भावी समाज का नियन्ता जैसा बनने जा रहे लोगों में घर कर रहे हैं- यह आशंका मुझे चिन्तित ही नहीं, भयभीत भी कर रही है।

क्या कोई भी वैज्ञानिक शिक्षा-दीक्षा से गुजरा हुआ दिमाग हिंसा को वैध उपाय मान सकता है? अगर ऐसा है तो क्या तकनीकी शिक्षा की सारी प्रक्रिया पर हमें पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? क्या तकनीकी शिक्षा का मूल्यबोध से कहीं कोई संबंध नहीं है?

दरअस्ल, स्वयं तकनीकी को भी मूल्यनिरपेक्ष नहीं माना जा सकता। जो छात्र, और छात्र ही क्यों, हमारे बहुत-से राजनीतिक, नौकरशाह, उद्योगपति और अर्थशास्त्री भी तकनीकी विकास में सभी समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं, वे सब इसी भ्रम के शिकार हैं कि तकनीकी के पीछे कोई मूल्य-दृष्टि सक्रिय नहीं होती, वह मूल्य-निरपेक्ष होती है और उसके सही प्रयोजन के लिए इस्तेमाल से सभी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। लेकिन हम किस समस्या को किस रूप में देखते-पहचानते और उसके समाधान के लिए किस प्रकार की तकनीकी का प्रयोग करते हैं, यह तकनीकी पर नहीं, बल्कि हमारी मूल्य-दृष्टि पर निर्भर करता है।

तकनीकी का चयन स्वयं एक मूल्य-दृष्टि से निर्धारित प्रक्रिया है। साथ ही, तकनीकी का प्रयोग समाज और परिवेश में होता है, इसलिए उसके सामाजिक और परिवेशगत प्रभाव होने अवश्यम्भावी हैं। केन्द्रीकरण की व्यवस्था पर आधारित तकनीकी से हम एक ऐसा समाज नहीं बना सकते जो अर्थसत्ता, राजसत्ता अथवा सत्ता के अन्य रूपों में स्थानीय और समान सहभागिता अर्थात् सत्ता के विविध रूपों के विकेन्द्रीकरण यानी वास्तविक सामाजिक स्वतंत्रता की ओर ले जाने वाला हो।

लेकिन इसका हल तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में मूल्यबोध से संबंधित पाठ्य-सामग्री को शामिल कर देने से नहीं निकाला जा सकता। मूल्यों की सूचना से मूल्यसंवेदना विकसित नहीं होती। उसके लिए तकनीकी शिक्षा की समूची प्रक्रिया को उसकी यान्त्रिकता का अतिक्रमण कर एक मूल्यबोध से अनुप्राणित होना होगा। यह कैसे किया जा सकता है, इस प्रश्न पर विचार करना तकनीकी शिक्षा-विशेषज्ञों की प्राथमिकता होनी चाहिए। अन्यथा, हम पुनः एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे होंगे जिसमें सफलता ही सार्थकता की कसौटी हो जाएगी।

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