— गोपेश्वर सिंह —
अशोक वाजपेयी मूलतः कवि हैं। उनकी कविताएँ अपने समकालीनों में अलग तरह की हैं- ख़ासकर अपनी विषय-वस्तु में। इसके अतिरिक्त उन्होंने कविता और कवियों पर बड़ी संख्या में लेख और टिप्पणियाँ लिखी हैं। उनके कारण हिंदी में बहस और विवाद का माहौल बना रहा है। कहा जा सकता है कि नामवर सिंह के बाद अपने वक्तव्यों और लेखों के लिए विवादों के केंद्र में रहनेवाले अशोक पहले व्यक्ति हैं। अपने आयोजनों के जरिए जहाँ उन्होंने साहित्य के अलक्षित पक्षों की ओर हिंदी समाज का ध्यान खींचा है, वहीं प्रगतिशील-जनवादी खेमे के सामने बहस की नयी चुनौतियाँ भी उछाली हैं। अज्ञेय के बाद प्रगतिशील-जनवादी मंचों की ओर से सबसे अधिक हमले अशोक वाजपेयी पर हुए हैं। हालाँकि उनसे संवाद करने में उन्होंने कभी कोताही नहीं की। हिंदी समाज में गैर-कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के खाली स्पेस को भरने में उन्होंने अज्ञेय, साही आदि के बाद सक्रिय भूमिका निभायी।
साम्प्रदायिकता विरोधी अपने सक्रिय अभियान के कारण सत्ता को असहज करनेवाले आज की तारीख़ में अशोक वाजपेयी हिंदी के सबसे बड़े कवि-लेखक हैं। भारत के ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ के रूप में हिंदी समाज की ओर से बोलनेवाले कवि-लेखकों में उनकी आवाज सबसे ऊँची है।
साहित्य के अलावा कला, संगीत आदि पर लिखनेवाले अशोक वाजपेयी हिंदी के ऐसे कवि-आलोचक हैं, जिनसे तुलना के लिए दूसरा नाम ढूंढने के लिए देर तक सोचना पड़ता है। हिंदी लेखकों में कला और संगीत की बारीक समझ के साथ लिखने-बोलनेवाले बहुत कम लोग हैं। अशोक वाजपेयी अधिकारपूर्वक न सिर्फ इन विषयों पर लिखते हैं, बोलते हैं; बल्कि इन विधाओं से जुड़े हुए अपने आयोजनों के जरिए हिंदी की एकरस हो रही अभिरुचि को नित नवीन बनाने में तत्पर रहते हैं। वे साहित्य को विचारधारा का उपनिवेश बनाये जाने के विरुद्ध सतत संघर्षशील रहे हैं और इस बात पर जोर देते रहे हैं कि साहित्य की स्वायत्तता बनी रहे। उन्होंने इसके लिए लगातार बहस की है और प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया है। इन कारणों से प्रगतिशील-जनवादी जमात में वे ‘कलावादी’, ‘रूपवादी’ और ‘अभिजनवादी’ लेखक भी कहे जाते रहे हैं। उन पर जो हमले हुए उसका एक कारण उनका भारतीय प्रशासनिक सेवा में होना भी रहा है। लेकिन इस सेवा में रहते हुए उन्होंने कवियों-लेखकों की सुध लेने का जो दायित्व निभाया है, वह अनुपम है। इस काम में दक्षिण और वाम का कभी उन्होंने ध्यान नहीं रखा।
विचारधारात्मक बाड़ेबंदी से अलग हिंदी के अच्छे कवियों-लेखकों को पसंद करने, उनकी चिंता करने का काम उनका ऐसा पक्ष रहा है जो उन्हें एक ऊँचे दर्जे के साहित्य-पारखी का स्थान देता है। ‘पूर्वग्रह’ जैसी बहसधर्मी और सृजनधर्मी पत्रिका निकालना और उसे खुले मंच के रूप में प्रतिष्ठित करना उनके लोकतांत्रिक मिज़ाज का उदाहरण है। एक समय भोपाल को कला और साहित्य के सबसे सक्रिय केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्हें जाता है। नयी प्रतिभाओं को पहचानने और उन्हें मंच देने में अशोक जी की अग्रणी भूमिका रही है। इन सब कारणों से अशोक वाजपेयी कवि-लेखक के साथ हमारे समय के एक बड़े साहित्यिक नेता के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
काव्य-रचना के साथ कविता और कवियों पर अशोक वाजपेयी ने जिस मात्रा में और जितनी तल्लीनता के साथ लिखा है, वह उन्हें बड़े आलोचक और काव्य-चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करता है। कवियों और कविता पर लिखी हुई उनकी लगभग दर्जन भर पुस्तकों से गुजरने के बाद उनके काम का महत्त्व समझ में आता है। इस रूप में वे सहज ही अज्ञेय, मुक्तिबोध, साही आदि से तुलनीय हैं। उनके समकालीन या बाद के किसी कवि ने शायद ही इतनी मात्रा में गद्य-लेखन किया हो। उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन से साहित्य संबंधी चिंतन में नया जोड़ा है और कुछ नई अवधारणाएँ दी हैं। उनकी स्थापनाओं और निष्पत्तियों से किसी का मतभेद हो सकता है, लेकिन उनकी चिंताओं की अनदेखी कोई नहीं कर सकता। अपने आलोचनात्मक लेखन से अशोक वाजपेयी ने हिंदी की जड़ होती हुई और सुप्त पड़ती हुई मनीषा को बार-बार झकझोरा है और बहस करने के लिए आमंत्रित किया है। ‘फ़िलहाल’, ‘कुछ पूर्वग्रह’, ‘कविता का गल्प’, ‘तीसरा साक्ष्य’, ‘समय के सामने’, ‘ कुछ खोजते हुए’ ‘पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज’, ‘सीढ़ियाँ शुरू हो गयी हैं,’ ‘कभी-कभार’, ‘कविता के तीन दरवाज़े’ आदि लगभग एक दर्जन से ऊपर उनकी पुस्तकों से गुजरने के बाद कोई भी व्यक्ति अशोक वाजपेयी से बहस का आमंत्रण ठुकरा नहीं सकता। वह उस बहस में शामिल होकर हिंदी समाज और साहित्य की दो-चार सार्थक और बहसतलब अवधारणाएँ तो ले ही सकता है।
अशोक वाजपेयी आलोचक के रूप में सामाजिक यथार्थ के आधार पर साहित्य के मूल्यांकन के तौर-तरीकों के कभी समर्थक नहीं रहे। यथार्थवाद जैसे साहित्यिक प्रतिमानों से उनकी दूरी बनी रही। इसके विपरीत ‘सामाजिक यथार्थ से सीधे जुड़े’ साहित्य की तरफदारी उन्होंने कभी नहीं की। वे रचना को सामाजिक यथार्थ का उपजीव्य बनाये जाने का सतत विरोध करते रहे। आलोचना की भूमिका को रेखांकित करते हुए अशोक जी ने लिखा है : “आलोचना सिर्फ रचना का नहीं, उसके माध्यम से मनुष्य का ही साक्षात्कार है। और अगर रचना सामाजिक यथार्थ को अपना उपजीव्य बताती है तो उसकी प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और वस्तुपरकता की जाँच किये बिना यह साक्षात्कार सार्थक बल्कि पूरा भी नहीं हो सकता। हमारी समूची संस्कृति के स्वास्थ्य के लिए यह अनिवार्य है कि आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदनहीनता के विरुद्ध लगातार संघर्ष करे ताकि साहित्य में व्यक्त अनुभव, आकलन और समझ राजनीति, विज्ञान, पत्रकारिता, अर्थशास्त्र जैसे अनुशासनों के मुकाबले अवयस्क या अविश्वसनीय न माने जाएँ जैसा कि इन दिनों अक्सर माना जा रहा है।”
इसी के साथ अशोक जी यह मानते हैं कि सामाजिक यथार्थ से अधिक जुड़ाव के बावजूद समाज में साहित्य का स्थान हाशिये पर का हो गया है, समाज को साहित्य की बहुत चिंता नहीं है। इसलिए उनकी नजर में आलोचना की जरूरत है। वे कहते हैं : “आलोचना की एक बुनियादी चिंता साहित्य को अन्य अनुशासनों के समकक्ष उसका केन्द्रीय स्थान वापस दिलाने की है और एक ऐसा माहौल और दबाव बनाये रखने की है जिसमें समकालीन रचना आज की हालत की उत्कट, वयस्क, समावेशी और वस्तुनिष्ठ पहचान बने और बनी रह सके।” (आलोचना की ज़रूरत, कुछ पूर्वग्रह-57-58).
हिंदी में यह आम धारणा बनी हुई है जो प्रगतिशील-जनवादी जमात की ओर से बनायी गयी है कि अशोक वाजपेयी विचार से परहेज़ करनेवाले कवि हैं। सचाई क्या है? अशोक यह नहीं मानते कि ‘किसी महान विचार से महान कविता’ पैदा होती है। विचार से यहाँ उनका तात्पर्य ‘विचार-प्रणाली’ से है।
आगे वे कहते हैं : “ शायद बिना विचारों और विचारशीलता के कोई कविता महान नहीं हो सकती।” लेकिन वे ‘विचार’ को किसी ‘विचार-प्रणाली’ से जोड़े जाने के ख़िलाफ़ हैं। उनका कहना है कि ‘कविता में विचारों का आत्यंतिक महत्त्व नहीं है।’ लेकिन इसी के साथ वे यह भी जोड़ते हैं : “ …. बिना विचारों के, बिना किन्हीं विचारों में जड़ जमाये, कविता निरी ऐंद्रिक फुरफुरी या तुच्छ खिलवाड़ भर रह सकती है। विचारहीन कविता कभी भी मनुष्य की हालत की कोई सार्थक पहचान या कोई समझ उत्तेजित नहीं कर सकती।”(विचारों की विदाई, फ़िलहाल,131-32) संक्षेप में यह कि कविता के लिए विचार ज़रूरी है,कोई विचार-प्रणाली नहीं।
अशोक वाजपेयी मुख्य रूप से समकालीन कविता के आलोचक हैं। नयी कविता से लेकर पिछली सदी के आठवें दशक तक की कविता में उनकी गहरी पैठ है। उन्होंने आलोचना लिखने का काम नयी काव्य- कृतियों की समीक्षा लिखकर शुरू किया। वे किसी आलोचक के लिए समकालीनता का बोध आवश्यक मानते हैं। लेकिन साहित्य के ‘कुछ स्थायी प्रश्नों’ का ज्ञान भी आलोचना के लिए ज़रूरी समझते हैं।
उनका कहना है : “… कोई भी आलोचना सिर्फ समकालीन कृतियों या लेखकों तक सीमित रहकर अंततः बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकती। हमेशा आलोचना का काम ऐसी वैचारिक संस्कृति को खोजना और बनाना है जिसमें साहित्य और साहित्य को प्रभावित करनेवाले सभी मानव-व्यापार ठीक से समझे और रखे-परखे जा सकें।”( आठवें दशक की आलोचना, कुछ पूर्वग्रह-163). यह काम आलोचना में यदि नहीं हो रहा है तो इसका कारण अशोक की नज़र में यह है कि बहस करनेवाले और प्रश्न उठानेवाले लोग कम हो गए हैं। आलोचक यह करने की जगह ‘फ़ैसला’ देने लगे हैं; जबकि आलोचक को प्रश्न उठाना चाहिए. फ़ैसला देनेवाली प्रवृत्ति ने ‘आलोचना को अवमूल्यित कर अभिमत बना दिया’ है। इसी के साथ वे यह भी कहते हैं कि वैचारिक संस्कृति में विचारों का जो ‘गहरा और सार्थक टकराव’ होना चाहिए, वह नहीं है। वैचारिक बहस की दृष्टि से नयी कविता का दौर अशोक वाजपेयी को अधिक सार्थक लगता है, जो सही भी है।
इन सब कारणों से मत-भिन्नता के बावजूद अशोक वाजपेयी को नामवर सिंह की आलोचना अच्छी लगती है। नामवर सिंह मार्क्सवादी थे। इसके बावजूद अशोक जी को उनकी आलोचना पसंद आती है तो इसका कारण शुद्ध साहित्यिक है। अशोक लिखते हैं : “यह नहीं है कि नामवर सिंह साहित्य में अंतर्निहित विचारधारा या राजनीति को नजरंदाज करते हैं। 20वीं सदी में साहित्य और जीवन में हुई जद्दोजहद के बाद ऐसा करना बहुत अबोध कर्म होगा। लेकिन यह उनकी केन्द्रीय चिंता नहीं है। वे साहित्य को निरी विचारधारा या विचार-निरपेक्ष संरचना में रिड्यूस कर उसे आँकने के प्रलोभन से बराबर बच सके हैं…..” मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की आलोचना में जो नयापन है वह अशोक वाजपेयी को प्रिय है।
मार्क्सवाद के नाम पर हिंदी आलोचना में जो एक-सा पन है उसकी जगह नामवर सिंह की आलोचना में अशोक को ताजगी दिखती है। उस अंतर को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है : “आज बहुत-सी आलोचना जो ऐतिहासिक तर्क का सहारा लेती है, अपने व्यवहार में अनैतिहासिक है; वह नितांत समसामयिकता से इतनी ग्रस्त है कि उसे पन्द्रह-बीस वर्षों पहले के साहित्य से भी कोई मतलब नहीं रह गया है। अलंकरण या शोभा के लिए वह भले किसी प्राचीन का उल्लेख करे पर उसकी दृष्टि समकालीनों को अपनी और गैरों की सूची बाँटने तक ही महदूद है. नामवर सिंह ने यह खेल, जो उन्हें निश्चय ही लोकप्रिय बना सकता है, खेलने से साफ़ इंकार किया है. न केवल उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी या प्रेमचंद पर बिल्कुल नए ढंग से सार्थक विचार किया है, बल्कि यह हिम्मत भी दिखाई है कि रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा या निर्मल वर्मा जैसे लेखकों के साहित्य के महत्त्व को गंभीरता और जिम्मेदारी से स्वीकार किया और समझा जाए, भले ही उनकी विचारधारा से वे बिल्कुल असहमत हैं. यह रूचि और दृष्टि का अंतर्विरोध नहीं है. यह प्रगतिशीलता में रूपवादी रुझान भी नहीं है. यह साहित्य के प्रति लीविस के स्मरणीय शब्दों में ‘पिकूलियर कम्प्लीटनेस ऑफ़ रिस्पॉन्स’ विकसित करना है” (नामवर सिंह, कुछ पूर्वग्रह-184-85).
आलोचक नामवर सिंह की बहुत-सी बातों का अशोक वाजपेयी ने कड़ा प्रतिवाद किया है, उन्हें ‘अचूक अवसरवादी’ भी कहा है। लेकिन उनके वैशिष्ट्य की प्रशंसा की है। अपने विरोधी के गुणों की प्रशंसा का संस्कार, जो एक दुर्लभ मानवीय गुण है, जो अशोक वाजपेयी की आलोचना और आचरण में है।
वे नामवर जी को दृष्टि संपन्न आलोचक मानते हैं। एक विदेशी लेखक इरविंग होवे के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा है : “नामवर सिंह दृष्टि के बंदी नहीं, यायावर हैं।” (वही) साहित्य में शत्रुओं और मित्रों का खेमा बनाने का ‘सरल-दिमागीपन’ से खेला जानेवाला जो आलोचनात्मक खेल है अशोक वाजपेयी हमेशा उसके विरुद्ध हैं। वे नामवर सिंह को इसलिए भी पसंद करते हैं कि मार्क्सवादी होने के बावजूद सरल-दिमागीपन से खेले जा रहे आलोचनात्मक खेल में नामवर सिंह शामिल नहीं हैं। नामवर सिंह की आलोचना में जो संवादधर्मी रुझान है उसकी तारीफ़ करते हुए अशोक वाजपेयी ने लिखा है : “… अगर किसी आलोचक ने हिंदी में संवाद को आलोचना का अध्यात्म बनाया है तो नामवर सिंह ने। कृति की विशिष्टता, अद्वितीयता और वस्तुवत्ता खोजने-पहचानने के जो औजार नए रूपवादियों ने विकसित किये, उनका सतर्क और सक्षम इस्तेमाल करते हुए साहित्य को उसकी ऐतिहासिकता और सामाजिक पृष्ठभूमि में स्थित करने और आलोचनात्मक निर्णय को आलोचक की नैतिक और सामाजिक दृष्टि से जोड़कर देखने का काम नामवर सिंह ने किया है और हिंदी आलोचना को सार्थक परिपक्वता दी है।” (वही 185).
कविता के साथ सार्थक आलोचना की चिंता करनेवाले कवियों में प्रमुख नाम अशोक वाजपेयी का है। हिंदी आलोचना में आए ठहराव को देखते हुए पिछले सदी के आठवें दशक में उन्होंने ‘पूर्वग्रह’ नाम की पत्रिका निकाली। पूर्वग्रह के प्रकाशन के मूल में अशोक की कुछ चिंताएँ काम कर रही थीं।
पहली तो यह कि ‘आठवें दशक तक आते-आते अकादमिक आलोचना अपनी सारी सार्थकता और प्रासंगिकता खो चुकी थी।’ उनकी दूसरी चिंता थी : “धंधई आलोचना की हालत भी कोई बेहतर न थी। नयी कविता और नयी कहानी के ज़माने में किसी हद तक यह आश्वासन था कि नयी रचना पर धंधई आलोचक लगातार नजर रखे हुए थे और उसके संघर्ष, उपलब्धियों और असफलताओं पर नामवर सिंह जैसे सहृदय और सक्षम आलोचक टिप्पणी करने में बराबर सक्रिय थे। पर आठवें दशक के आते तक ऐसा प्रायः एक भी आलोचक नहीं रह गया जो पूरे परिदृश्य को सहेजने और उसका विश्लेषण कर समझने को उत्सुक या तैयार हो। स्वयं नामवर सिंह दुर्भाग्य से प्रायः चुप और निष्क्रिय हो गए।” (तीसरा साक्ष्य, कुछ पूर्वग्रह, 164-65.
‘अकादमिक’ और ‘धंधई’ आलोचना से अशोक वाजपेयी का तात्पर्य क्या है? अकादमिक से शायद विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा लिखी जा रही आलोचना है जिसका श्रेष्ठ उदाहरण शायद डॉ. नगेन्द्र थे। धंधई आलोचना से तात्पर्य शायद उस आलोचना है जो सिर्फ आलोचकों द्वारा लिखी जाती है। जैसे रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि। इस तरह धंधई आलोचना वह हुई जो ऐसे लोगों द्वारा लिखी गयी है जिनका धंधा ही आलोचना लिखना है, जैसे कवि का धंधा है कविता लिखना। बहुतों को ‘धंधई’ शब्द का प्रयोग ठीक नहीं लगता। शब्द-पारखी अशोक वाजपेयी ने हिंदी आलोचना की मुख्य विरासत को यह जो नाम दिया वह प्रश्नवाचक चिह्न के घेरे में है। धंधई की जगह यदि ‘पेशेवर आलोचना’ कहा जाता तो अधिक ठीक रहता, हालाँकि अर्थ दोनों का एक है।
बहरहाल, अकादमिक और धंधई आलोचना से अलग अशोक वाजपेयी ने ‘सृजनात्मक आलोचना’ का प्रस्ताव दिया जो उनके अनुसार आलोचना का ‘तीसरा साक्ष्य’ है। सृजनात्मक आलोचना लिखनेवाले वे लोग थे जो रचनाकार थे, जिन्होंने आपद्धर्म के रूप में नहीं, रचनाकार का स्वाभाविक कर्म मानकर रचना की तरह ही आलोचना-कर्म किया। ऐसे सृजनधर्मी आलोचकों की जो सूची तब अशोक वाजपेयी ने पेश की थी उसमें निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, मलयज, रमेशचंद्र शाह, प्रभात कुमार त्रिपाठी आदि के नाम प्रमुख हैं। अशोक जी का मानना था कि धंधई और अकादमिक आलोचना ज्यादातर साहसहीन आलोचना रही है जबकि सृजनात्मक आलोचना में ‘कल्पनाशील साहस’ है। उसमें ‘आंतरिकता और वैचारिक खुलापन’ है। इस कारण वह ‘विश्वसनीय और प्रामाणिक’ लगती है।
आलोचना का यह तीसरा साक्ष्य है जो ‘आत्माभियोगी साक्ष्य’ की तरह अधिक ज़रूरी और विश्वसनीय है, क्योंकि यह फैसला नहीं देता, उसकी जगह सहानुभूति और हिस्सेदारी का सुख देता है (वही 166-67)। अशोक वाजपेयी की इस बात से हमारी सहमति हो, यह जरूरी नहीं। लेकिन नामवर सिंह के बाद की हिंदी आलोचना के बारे में उनकी राय यही है। कोई यह सवाल उठा सकता है कि नवजागरण संबंधी बहस रामविलास शर्मा तक ही ठहरी हुई है या आगे भी उसका विकास हुआ है? भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के बहुत-से रचनाकारों के बारे में नए तथ्य और मूल्यांकन सामने आए हैं। क्या यह काम तथाकथित सृजनात्मक आलोचना ने किया है? या इसमें कुछ भूमिका ‘अकादमिक’ और ‘धंधई’ आलोचना की भी है?
अशोक वाजपेयी आलोचना में बनामों के खेल को नहीं पसंद करते। प्रेमचंद बनाम जैनेन्द्र, प्रसाद बनाम प्रेमचंद, अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध आदि बनामों का हिंदी आलोचना में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के सौजन्य से जो सिलसिला शुरू हुआ उसमें अशोक जी की कोई रुचि नहीं है।
अशोक वाजपेयी अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभ से अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध को नयी कविता की वृहत्त्रयी के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे। अशोक जी का जोर उनकी भिन्नता के साथ उनकी विशिष्टता की खोज पर रहा। उनका मानना है कि एक ही काव्य आंदोलन में शामिल होने के बावजूद इन तीनों का काव्य स्वर अलग-अलग था और यही इनकी काव्यगत विशिष्टता थी। इन तीनों के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हुए अशोक जी ने लिखा है: “…अज्ञेय के यहाँ व्यक्ति की स्वाधीनता की खोज है, मुक्तिबोध के यहाँ सामाजिक मुक्ति के लिए विकलता है और शमशेर ‘आत्मा का कल्पतरु’ बनाना चाहते हैं। तीनों अलग-अलग साहित्य का नया शास्त्र खोजने-गढ़ने और परिभाषित करने की चेष्टा करते हैं। अज्ञेय नये व्यक्तित्व और व्यक्ति की गरिमा का आग्रह करते हैं पर यह व्यक्ति समाज-निरपेक्ष नहीं है। मुक्तिबोध नयी सामाजिकता की खोज पर बल देते हैं पर यह व्यक्ति-निरपेक्ष नहीं है। शमशेर समाज और व्यक्ति के द्वंद्व के प्रति सजग रहकर नया सौंदर्य प्रस्तावित करते हैं।” (कविता के तीन दरवाजे, पृष्ठ-11).
नयी कविता के उन तीन श्रेष्ठ कवियों का अशोक जी का यह मूल्यांकन रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि से भिन्न और सकारात्मक है। इन तीनों की कुछ अन्य विशेषताओं की चर्चा करते हुए अशोक जी ने लिखा है: “…अज्ञेय आत्मबोध और आत्मान्वेषण के कवि हैं तो मुक्तिबोध आत्मालोचन और आत्माभियोग के। शमशेर आत्मविलोपन के कवि हैं… तीनों ही विषय, भाषा, शिल्प, लय आदि में प्रयोगधर्मी हैं। अज्ञेय ने सबसे अधिक छंद प्रयोग किये, सवैया से लेकर मुक्त छंद तक। पर उनकी कविता ज्ञात गोत्र की कविता है : उसमें सुगठन, अदम्य विवक्षा और सही शब्द की खोज का शास्त्र विन्यस्त होता है। मुक्तिबोध की कविता गोत्रहीन कविता है- उसका पहले कोई मॉडेल नहीं है। ऊबड़-खाबड़पन, असमाप्यता और अटपटेपन का शास्त्र उनके यहाँ रूप लेता है। शमशेर हिंदी का गोत्र बढ़ाकर उसमें उर्दू का उत्तराधिकार भी शामिल करते हैं” (वही-12)। इस तरह तीनों के वैशिष्ट्य को बतलाते हुए अशोक जी अज्ञेय को ‘रूप’ का, मुक्तिबोध को ‘विरूप’ का और शमशेर को ‘बेहद नाजुक रूप’ का कवि बतलाते हैं। तीनों में ‘प्रश्नवाचकता’ है। अशोक जी की नजर में ‘तीनों हिंदी आधुनिकता के आलोचक-निर्माता हैं’। संक्षेप में यह कि तीनों कवियों की उपस्थिति अलग-अलग ढंग से सभ्यता समीक्षा का निर्माण करती है। ये तीनों ऐसी आधुनिकता गढ़ते हैं जो ‘मुक्तिकामी’ है जिसमें मानव अस्तित्व, समाज और आत्मा की मुक्ति की चिंता है (वही-14-15)।
इन तीनों में समानता और विषमता विद्यमान हैं। उन्होंने अपने रचनाकर्म के जरिए जो किया वह ‘गहरे और समझदार अर्थ में क्रांतकारी’ है। ये तीनों हमारे लिए जरूरी हैं। अशोक जी के शब्द हैं : “…हमारा काम उनमें से किसी एक से पूरा नहीं पड़ता : हमें अज्ञेय की कविता जैसा सुगठित वितान भी चाहिए, शमशेर की कविता जैसी सौंदर्य की रंगभूमि भी अभीष्ट है और मुक्तिबोध की कविता जैसा खुरदुरा यथार्थ और बीहड़ स्थापत्य भी। हमारा अकेले अज्ञेय, अकेले मुक्तिबोध, अकेले शमशेर से काम नहीं चल सकता। अपने समय की सचाई और समाज को समझने, शब्द और भाषा की अपार संभावनाओं को खोज सकने के लिए हमें तीनों चाहिए। उनमें कोई भी दूसरे या तीसरे का स्थानापन्न नहीं हैं, न हो सकता है।”(वही-16).
यह आलोचना-विवेक अपने पूर्ववर्ती आलोचकों विजयदेवनारायण साही, नामवर सिंह आदि से भिन्न है और बनामवादी आलोचना से अप्रभावित है। यही कारण है कि अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध के अतिरिक्त रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, साही, सर्वेश्वर, श्रीकांत आदि कवियों को पसंद करनेवाले अशोक वाजपेयी ने घोषित प्रगतिशील नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि को सम्मानित करने में कभी कोताही नहीं की।
अशोक वाजपेयी को कलावादी, रूपवादी आदि कहकर इस तरह प्रचारित करने की कुछ लोगों ने कोशिश की मानो वे समाज-निरपेक्ष व्यक्ति हैं। यह सही है कि अशोक जी साहित्य की स्वायत्तता के पक्षधर और साहित्य को विचारों का उपनिवेश बनाए जाने के खिलाफ़ हैं। स्वायत्तता से उनका आशय क्या है, यह उन्हीं के शब्दों में देखना चाहिए : “कविता की स्वायत्तता का आग्रह उसे राजनीति या जन- जीवन से विमुख करना नहीं है बल्कि इस बात पर बल देना है कि कविता की सचाई दूसरे किसी माध्यम में अनुवाद की जा सकनेवाली सचाई नहीं है, कि कविता का सचाई से और इसीलिए जीवन से उतना ही सीधा और अर्द्ध समृद्धिकारी संबंध है जितना कि राजनीति का, कि कविता के लिए समकक्षता की माँग शक्ति और सत्ता के राजनीति के पक्ष में झुके संतुलन को चुनौती देना है, कि कविता राजनीति की तरह पर्याप्त कर्म है और कि कविता भाषा में ऐसा कुछ करती है और उसके माध्यम से जीवन में जो कि राजनीति या अन्य अनुशासन नहीं कर सकते।” (कविता का गल्प-30).
अशोक वाजपेयी की चिंता के केंद्र में हिंदी कविता तो है ही, हिंदी समाज भी है। वे इस बात से चिंतित हैं कि हिंदी अंचल में ‘राज’ बढ़ रहा है और ‘समाज’ घट रहा है। धीरे-धीरे राज के हस्तक्षेप से मुक्त समाज के जो क्षेत्र थे उन्हें ‘राज’ छीनता जा रहा है। अशोक जी की यह भी चिंता है कि महाराष्ट्र, गुजरात, केरल आदि की तरह हिंदी अंचल में कोई सामाजिक सक्रियता नहीं है। वे इस बात से चिंतित हैं कि हिंदी के समाज का दायरा घट रहा है और हिंदी का राज बढ़ रहा है।
उनका कहना है कि समाज की कविता में दिलचस्पी होती है लेकिन राज की नहीं। लेकिन वे इस बात पर गर्व करते हैं कि हिंदी समाज में किसी तरह का धार्मिक-सांप्रदायिक लेखन संभव नहीं है। उनके शब्दों में: “इसे हिंदी की जातीय परंपरा का मूल तत्त्व ही कह सकते हैं कि उसमें दृष्टियों की बहुलता का और इसलिए समभाव का सहज और निरंतर स्वीकार है।”(कविता का गल्प-25).
अशोक वाजपेयी ने हिंदी आलोचना में कई पद प्रचलित किये हैं, मसलन ‘साहित्य का स्वराज’, ‘ईश्वर विहीन अध्यात्म’ आदि। उनका राजनीतिक विश्वास गाँधी और लोहिया के आसपास निर्मित हुआ है। धार्मिक सहिष्णुता, जाति-निरपेक्ष और भेदभाव रहित समाज व्यवस्था में उनका भरोसा है। उनका भरोसा भारत की बहुलता में है।
वे मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-चिंतन के आत्यंतिक रूप से कायल नहीं हैं। वे किसी भी तरह की वैचारिक तानाशाही के खिलाफ़ हैं। विश्व सहित भारत में उदार दृष्टि पर हो रहे हमलों से वे चिंतित हैं। वे मानते हैं कि साहित्य को किसी पार्टी में शामिल हुए बिना राजनीति की ‘निगरानी’ का काम करना चाहिए। साहित्य और राजनीति के संबध पर ‘पहल’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में उनका कहना है : “… साहित्य इसलिए हर तरह की राजनीति से दूरी बरते यही उचित है- उसका काम कुछ उदार मूल्यों की ओर से राजनीति पर निगरानी रखने और जब अनीति हो तो बिना भय के बरजने का है, जैसा कि तुलसीदास ने राम से अयोध्यावासियों को सीधे संबोधित करते हुए कहलवाया है।
“तथाकथित राजनीति समय की राजनीति है, साहित्य अनंत की राजनीति है”, अशोक वाजपेयी के इस कथन की अंतिम पंक्ति में लोहिया के एक कथन की रचनात्मक गूँज सुनाई पड़ती है कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति। कहा जा सकता है कि वे साहित्य को दीर्घकालीन राजनीति माननेवाले कवि-आलोचक हैं।
,अशोक जी रचनाकर्म और व्यक्तित्व पर गोपेश्वर जी व्यक्तव्य अति सुन्दर और सुचिंतित है।
अशोक जी के रचनाकर्म और सामाजिक, सांस्कृतिक व्यक्तित्व पर आलोचक गोपेश्वर जी का व्यक्तव्य अति सुन्दर और सार्थक है ।
गहरे साहित्यिक विवेक, जनतांत्रिक उदार दृष्टि और शोधात्मक रुझान लिखा गया एक ज़रूरी और पठनीय लेख।