— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
आज़ादी के संघर्ष में महात्मा गाँधी तथा सुभाषचंद्र बोस द्वारा किये गये संघर्ष और त्याग से हर हिंदुस्तानी वाकिफ़ है। दोनों एक दूसरे के लिए आदर, उसकी सामर्थ्य तथा अपरिहार्यता को भी मानते थे। परंतु इसके बावजूद इनके सिद्धांतों, रणनीतियों तथा कार्य शैली में विरोधाभास भी बहुत था। इसलिए ये दोनों बहुत दिनों तक एक साथ चल नहीं पाए।
आज़ादी के संघर्ष में, सोशलिस्ट गाँधी सुभाष के बीच न केवल आपस में बँटे हुए थे बल्कि अनिर्णय तथा भ्रम के शिकार भी थे, जिसके कारण इनकी कड़ी आलोचना भी हुई।
यह भी एक रोचक तथ्य है कि गाँधी और सुभाष बाबू दोनों ही सोशलिस्टों को बेहद पसंद करते थे।
गाँधीजी ने भी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना का कुछ शंकाओं के साथ स्वागत किया था, उसी प्रकार सुभाष बाबू ने सोशलिस्टों की कमज़ोरियों की ओर इशारा करते हुए, भविष्य में कांग्रेस का नेतृत्व करने की शुभेच्छा प्रकट की थी।
सन् 1935 में सुभाष बाबू वियना में थे। मीनू मसानी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त मंत्री थे। वे सुभाष बाबू को पार्टी का साहित्य भेजते रहते थे, उन्होंने दो पत्र सुभाष बोस को लिखे।
दिसंबर 1935 में सुभाष बाबू ने मीनू मसानी को लिखा ‘‘आप जानते हैं कि मूलतः पार्टी (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) की नीति से सहमत हूँ, लेकिन उम्मीद करता हूँ कि मित्रतापूर्वक की जानेवाली आलोचना को आप बुरा नहीं मानेंगे। (दरअसल सोशलिस्ट पार्टी गाँधीजी के पीछे चलती थी परंतु सुभाष बाबू इसको सोशलिस्टों की कमी मानते थे इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा) ‘‘गाँधीजी के आंदोलन की घातक त्रुटि यह है कि इसमें एक वस्तुनिष्ठ योजना का अभाव है…. मुझे लगता है कि सोशलिस्ट पार्टी भावुकता में बह गयी है। यदि आप पार्टी की नीति को प्रगतिशील, लेकिन व्यावहारिक बना सकते हैं तो यह आपके द्वारा की जाने वाली बड़ी भारी सेवा होगी। ऐसा करते हुए आपको कांग्रेस की बागडोर सँभालने के लिए तैयारी करनी पड़ सकती है। थोड़े समय मेरे भारत प्रवास के दौरान मुझे बताया गया कि “महात्मा गाँधी ने प्रारंभिक दिनों में कांग्रेस की बागडोर समाजवादियों को सौंपने का प्रस्ताव रखा था लेकिन उन लोगों (कांग्रेसियों) ने उसे दबा दिया। यदि यह तथ्य है तो निस्संदेह ही खेदजनक है। समाजवादी पार्टी को कांग्रेस की बागडोर सँभालनी ही होगी। यह जितनी जल्दी हो उतना ही बेहतर होगा।’’
सुभाष बाबू चित्तरंजन दास के संरक्षण में 1921 में राजनीति में आए थे, उन्होंने कई बार जेल और देशनिकाले की सज़ा भोगी। 1922 में जब गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन किया तो वह उससे सहमत नहीं थे। 1928 में भी उनका कांग्रेस से मतभेद था। 1933 में गाँधीजी ने जब सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उनको लगा कि यह तो निश्चय ही आत्मसमर्पण है।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में सुभाष बाबू एक मायने में नेहरू जी से ज़्यादा मशहूर थे। इण्डियन सिविल सर्विस जो उस समय की सबसे बड़ी प्रतिष्ठा का प्रतीक थी, उसको पास करके सुभाष बाबू ने आज़ादी के संघर्ष में भाग लेने के लिए इस्तीफा दे दिया था। उस समय के युवकों के लिए वे आदर्श के प्रतीक बन गए थे।
सुभाष बाबू ने ही गाँधी जी को 4 जुलाई, 1944 को अपने रेडियो प्रसारण में प्रथम बार ‘राष्ट्रपिता’ की पदवी दी थी, परंतु वे गाँधीजी के भक्त नहीं थे। उन्होंने कभी भी अहिंसा के सिद्धांत को नहीं माना। उनका विश्वास था कि बिना शक्ति प्रदर्शन के अंग्रेज़ कभी भारत नहीं छोड़ेंगे।
गाँधीजी ने कई बार सुभाष को अपना पुत्र कहा, परंतु उनको लगा कि ‘वो बेगाना हो गया है’। हिंसा बनाम अहिंसा, ‘साध्य और साधन’ के मामले में सुभाष बाबू की राय गाँधीजी से विपरीत थी।
1937 में सुभाष बाबू इलाज़ के लिए यूरोप में थे, उनकी गैरहाजिरी में फरवरी 1938 में हरिपुरा के कांग्रेस अधिवेशन में उनको कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। यह उनके त्याग, लोकप्रियता के प्रति सम्मान का प्रतीक था तथा ब्रिटिश सरकार को यह संदेश भी दिया कि वह इस महान देशभक्त को परेशान नहीं कर सकती। हालाँकि गाँधीजी को सुभाष बाबू पर पूर्ण विश्वास नहीं था। परंतु गाँधी जी के सामने समस्या थी कि अध्यक्ष पद के लिए और कोई दूसरा उपयुक्त व्यक्ति नहीं था। हरिपुरा कांग्रेस के समय गाँधीजी जवाहरलाल जी से भी थोड़े समय के लिए खिन्न थे। दूसरे, गाँधी जी को लगता था जब सुभाष पर अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी डाल दी जाएगी तो उनमें परिवर्तन होगा तथा उनके हिंसा वाले सिद्धांत में भी परिवर्तन हो जाएगा।
1938 में सुभाष के निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें ‘सोशलिस्ट मित्र’ कहा तथा आशा व्यक्त की कि उनके नेतृत्व में समाजवादी नीतियों को बल मिलेगा। हरिपुरा में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद, सुभाष बाबू ने घोषणा की कि वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सिद्धांतों तथा नीतियों से सहमत हैं। उनकी राय थी कि औद्योगिक कंपनियों पर राज्य का नियंत्रण तथा मालिकाना हक हो। उन्होंने जवाहरलाल जी के अंतर्गत नेशनल प्लानिंग कमेटी का भी निर्माण किया, सुभाष सोशलिस्टों की आर्थिक नीतियों के समर्थक थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सभी साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों का एक संयुक्त मंच हो। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का कांग्रेस में रहकर कार्य करने का स्वागत किया।
उनका विचार था कि समाजवाद हमारे लिए तात्कालिक समस्या नहीं है, परंतु समाजवादी प्रचार की आवश्यकता इसलिए ज़रूरी है कि जब देश आज़ाद हो जाए तो वह समाजवाद के लिए तैयार हो। उस समय तक सुभाष बाबू न तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अथवा किसी अन्य पार्टी के सदस्य थे।
1938 में हरिपुरा में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने सोशलिस्ट आचार्य नरेन्द्रदेव, अच्युत राव पटवर्धन को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनने का न्योता दिया, परंतु सोशलिस्टों ने इसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के कार्य तथा कांग्रेस कार्यसमिति की सीमाओं के विरोधाभास के कारण। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के तात्कालिक नेता, जितना जवाहरलाल नेहरू से प्रभावित थे उतना सुभाषचंद्र बोस के व्यक्तित्व से नहीं।
सुभाष बाबू के अध्यक्ष पद ग्रहण करने से पहले कांग्रेस में एक बहुत ही विवादित विषय उत्पन्न हो चुका था और वो था 1937 के चुनाव के बाद राज्यों में मंत्रिमण्डल में पद स्वीकार करना चाहिए या नहीं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ‘गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट 1935’ का घोर विरोध कर रही थी क्योंकि इस एक्ट के तहत राज्यों में अंग्रेज़ सरकार के अंतर्गत कार्य करना था, गर्वनर को पूरा अधिकार था कि वह कांग्रेसी मंत्रिमण्डल के किसी भी निर्णय को निरस्त कर दें।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की कार्यसमिति की बैठक 15 मार्च को दिल्ली में हुई, उसमें निर्णय लिया गया कि कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव के विरोध में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के दिल्ली में होनेवाले 17-20 मार्च, 1937 के अधिवेशन में एक संशोधन पेश किया जाए जो इस प्रकार था :
‘‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की राय है कि कांग्रेसजनों द्वारा मंत्री-पद स्वीकारना असंगत है और यह राष्ट्रीय-स्वतंत्रता संघर्ष को कमज़ोर करेगा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के इस विचार की निंदा करती है कि गर्वमेंट आफ इण्डिया एक्ट के ढाँचे के अंतर्गत कांग्रेसी मंत्रिमण्डल जनता के शोषित-पीडित तबको की हालत में कोई अच्छा-खासा सुधार या उनके लिए कोई वास्तविक राजनैतिक या आर्थिक रियायत प्राप्त कर सकते हैं। दूसरी ओर, वास्तविक शक्ति के हस्तांतरण के बिना ज़िम्मेदारी स्वीकारना कांग्रेस मंत्रियों को साम्राज्यवादी शासन में निहित शोषण और दमन का पक्षधर बना देगा और जनता की नज़र में कांग्रेस की साख को गिरा देगा। अतः अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी कांग्रेसजनों द्वारा मंत्री-पद स्वीकार करने के खिलाफ़ निर्णय लेती है।’’
कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री जयप्रकाश नारायण ने मंत्री-पद स्वीकार करने के विरोध में कां.सो.पा. द्वारा तैयार किये गये संशोधन को पेश करते हुए कहा :
‘‘मेरी धारणा है कि मंत्री-पद स्वीकार करना एक बड़ी भूल होगी। यह साफ़ है कि कांग्रेस में दो तरह की मानसिकता है, एक सुधारवादी, दूसरी क्रांतिकारी, एक तरफ़ तो वे संविधान (एक्ट) को बरबाद करने का दिखावा करते हैं, दूसरी तरफ़ यह घोषणा कर रहे हैं कि वे मंत्री-पद स्वीकार करेंगे। ये यह नहीं समझते कि दोनों चीज़ें एकसाथ नहीं चल सकती हैं। एक्ट द्वारा लादी गयी शर्तें उनके आत्मसम्मान के खिलाफ़ हैं। संविधान (एक्ट) को नष्ट कर तथा बाहर संघर्ष करके ही शक्ति प्राप्त की जा सकती है।”
जयप्रकाश नारायण द्वारा पेश किये गये संशोधन का समर्थन करते हुए, अधिवेशन में सोशलिस्ट नेता एम.आर. मसानी ने कहा कि मुझे आशा थी कि कांग्रेस ने सहयोग (अंग्रेज़ सरकार से) प्राप्त करने और उसके प्रतिफल में डण्डा खाने की मानसिकता छोड़ दी है… गाँधीजी का अभी हाल का बयान कि डोमिनियन स्टेटस पर्याप्त होगा इसका पहला संकेत है। और अब यह प्रस्ताव भी उसी कड़ी में एक संकेत है। मैं अभी भी चाहता हूँ कि कांग्रेस ऐसा कार्य करे जो जनता की शक्ति मज़बूत करने में सहायक हो। यह काम क्रांतिकारी चरित्र का होना चाहिए। कई लोगों के दिमाग़ में यह भ्रांति हो गयी है कि नये संविधान के तहत सरकार एक तरह की अपनी सरकार होगी।
सम्मेलन में सोशलिस्ट नेता कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने कांग्रेस प्रस्ताव के विरोध और जयप्रकाश नारायण के संशोधन के समर्थन में कहा कि ‘‘कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उसका उद्देश्य कानून से भिड़ना और उसे ख़त्म करना है। अगर ऐसा था तो आज पद स्वीकारना चाहिए या नहीं। इस पर बहस क्यों कर रहे हैं? मैं इसका विरोध इसलिए करती हूँ कि इसका मतलब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ पहचान बनाना होगा। समाजवादी इसी कारण इसका विरोध कर रहे हैं। मैं नहीं समझती कि जयप्रकाश नारायण का संशोधन किस तरह प्रस्ताव के विरुद्ध है?’’
जयप्रकाश जी के संशोधन के पक्ष में 135 तथा विरोध में 178 मत पड़े तथा कांग्रेस के प्रस्ताव में 120 मत पक्ष में तथा 70 विरोध में पड़े।
सुभाष बोस गर्वमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट के कटु आलोचक थे। उन्होंने हरिपुरा में कांग्रेस अधिवेशन में एलान किया था ‘‘मैं अपनी अध्यक्षता के काल में तमाम शांतिमय और उचित शक्तियों के द्वारा जिनमें आवश्यकतानुसार अहिंसात्मक असहयोग भी है, अवांछनीय फडरेशन योजना का विरोध करूँगा। जो जनतंत्र और राष्ट्रीयता के विरुद्ध है। इस योजना का विरोध करने के लिए मैं देश के निश्चय को शक्ति दूँगा।’’
सोशलिस्टों ने शुरू में चुनावों में शामिल होने का विरोध किया। परंतु बाद में उन्होंने अपने रुख में संशोधन कर लिया और चुनाव लड़ने के विचार का समर्थन किया लेकिन मंत्रिपद स्वीकार करने का विरोध किया। सुभाष बाबू ने सोशलिस्टों के इस दोहरेपन के लिए गाँधीजी का अनुयायी होने का कारण मानते हुए ‘इण्डियन स्टूगल’ में लिखा : “सन् 1935 में ब्रिटिश संसद ने भारत का नया संविधान पारित किया। कांग्रेस का संसदीय धड़ा (गांधीवादी पक्ष) प्रांतों में इन चुनावों और यहाँ तक कि मंत्रिपद स्वीकार करने की तैयारी करने लगा। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने शुरू में इन चुनाव में शामिल होने का विरोध किया। बाद में सोशलिस्ट पार्टी ने अपने रुख में संशोधन कर लिया और चुनाव लड़ने के विचार का समर्थन किया। लेकिन मंत्रिपद स्वीकार करने के विचार का इसने कड़ा विरोध किया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पास स्पष्ट क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य नहीं था। इसका कारण संभवतः यह था कि इसके कार्यकर्ताओं में ऐसे पूर्व गांधीवादी थे जिनका (कांग्रेस से) मोहभंग हो चुका था लेकिन वे गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे। और पार्टी में ऐसे लोग भी थे जो नेहरू की भावुक राजनीति के प्रभाव में थे।”
(जारी)