— रामप्रकाश कुशवाहा —
बुद्धिमान होने और ज्ञानी होने में फर्क है । बुद्धिमान होना प्रकृति-प्रदत्त प्रतिभा पर निर्भर करता है जबकि ज्ञान का आधार देश-काल सापेक्ष मानव-जाति की सामूहिक समझदारी होती है। ज्ञान सूचनाओं, तथ्यों एवं निष्कर्षों का संग्रह है जबकि बुद्धि चेतना का प्रक्रियात्मक प्रत्यय है। इसको मस्तिष्क का चैतन्य-सामर्थ्य भी कह सकते हैं।
किसी ज्ञानी का बुद्धिमान भी होना आवश्यक नहीं है। ज्ञान की जड़ता के कारण कई बार ज्ञानी मूर्खतापूर्ण पाये जाते हैं।
ऐसे ज्ञानी ज्ञान के भण्डारी भले ही हों अपेक्षित समझदारी के अभाव में अपने ज्ञान का ही उपयोग नहीं कर पाते। सभ्यता के विकास के सापेक्ष होने के कारण भविष्य में समय-विशेष के सारे ज्ञानी मूर्खतापूर्ण और काल्पनिक भी प्रमाणित हो सकते हैं। एक उदाहरण राहुल सांकृत्यायन की ‘बाईसवीं सदी’ का ही ले सकते हैं। मानविकी के क्षेत्र की बहुत-सी मौलिक संकल्पनाओं के बावजूद राहुल सांकृत्यायन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही कृत्रिम बुद्धि यानी कम्प्यूटर के आविष्कार की बिल्कुल कल्पना ही नहीं कर पाते। राहुल ही क्यों, स्वयं मार्क्स की सारी वैचारिकी भी कम्प्यूटर युग की स्वचालित मशीनों के कारण इस दृष्टि से अप्रासंगिक हो जाती है कि मजदूर युग समाप्त हो जाता है और सिर्फ पालतू पशु ही नहीं बल्कि स्वयं मनुष्य जाति ही शारीरिक श्रम की दृष्टि से फालतू और बेरोजगार हो जाती है। आज हजारों मजदूरों का काम कम्प्यूटर नियन्त्रित स्वचालित मशीनें कर सकती हैं।
मेरी इस टिप्पणी में ज्ञान को विद्या और ज्ञानी को विद्वान के अर्थ में लें। वस्तुतः ज्ञान मनुष्य की संस्थागत और सामूहिक उपलब्धि है जबकि बुद्धिमानी वैयक्तिक उपलब्धि है।
यद्यपि ज्ञान और ज्ञानी का एक भिन्न धार्मिक-आध्यात्मिक संदर्भ वाला परम्परागत जातीय अर्थ भी है। दुनिया को नश्वर या माया समझना, न कि वास्तविक जगत की एक अवस्था; इसी तरह किसी झक्की को पहुँचा हुआ फकीर समझना आदि भी ज्ञानी होने के लक्षण हैं। उदाहरण के लिए एक रूढ़िजीवी समाज में सबसे अधिक रूढ़िवादी और परम्पराजीवी व्यक्ति को ही आदर्श ज्ञानी समझा जा सकता है। महाभारत के युधिष्ठिर को ही लें, उसको समझना दुर्योधन के लिए इतना आसान था कि वह कभी भी मूर्ख बनाया जा सकता था। व्यक्तिगत रूप से बुद्धिमान होते हुए भी तत्कालीन आचारपरक धर्म के ज्ञान का पालन करने के कारण अपने भाइयों समेत वह एक मूर्ख मनुष्य की नियति और त्रासदी को प्राप्त हुआ। ज्ञान की समय-सापेक्षता के कारण ही धार्मिक आचरण के आदर्श प्रतिमान और सर्वकालिक महत्त्व के समझे जानेवाले तुलसीदास और उनके राम भी मानवता की दृष्टि से सीता और शम्बूक के साथ गलत कह और कर जाते हैं।