हत्या का चक्रव्यूह और अकेले गाँधी

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पेंटिंग : टॉम वट्टाकुझी। चित्रकार के प्रति साभार।


— अरविन्द मोहन —

गाँधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई। तब भी इसको बहादुरी माननेवाले कुछ लोग थे, आज शायद अधिक हो गए हैं क्योंकि आज वालों को गान्धी, उनके काम और विचारों का पहले की तुलना में कम पता है। और जिस तरह उनकी हत्या हुई उसमें गोली चलानेवाले नाथूराम गोडसे ने कोशिश की कि वह इसे अकेले भर का मामला बनाए लेकिन ज्यादा समय नहीं लगा जब पुलिस ने षड्यंत्र का पता लगाया और कई सारे षड्यंत्रकारियों को पकड़ लिया।

ऐसे लोग कम नहीं हैं जो मानते हैं कि गान्धी के ऊपर इससे पहले हुए हमलों के समय ही पुलिस इसी तरह मुस्तैदी दिखाती तो हत्या को टाला जा सकता था क्योंकि बाद की जाँच में यही बात सामने आती रही कि गान्धी की हरिजन यात्रा के समय से उन पर हमले करनेवाली जमात लगभग एक ही थी और इन सबका सूत्र उस कथित वीर सावरकर से जुड़ता लगता है जिनकी आज काफी पूछ हो गयी है और जिनकी तस्वीर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संसद भवन के अन्दर लगवायी। यह मानी हुई बात है कि सावरकर ब्रिटिश सरकार से कई बार माफी माँगकर जीवन बचाये हुए थे और सरकारी पेंशन भी पाने लगे थे। 

जो लोग गान्धी की हत्या के लिए भारत विभाजन, शरणार्थियों की तकलीफों और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलाने की गान्धी की कोशिश (उनका दिल्ली का अनशन इसके लिए नहीं था लेकिन उसे भी इसी रंग में पेश किया गया) जैसे बहानों से जोड़कर देखते और बताते हैं उन्हें यह जवाब भी देना होगा कि फिर गान्धी पर पुणे और पंचगनी में हमला क्यों हुआ, हरिजन यात्रा में कई जगहों पर उन पर हमले क्यों हुए और विभाजन की आड़ लेनेवाले गिरोह के लोग ही हरिजन यात्रा और पुणे पैक्ट से नाराज क्यों थे (आज इस पैक्ट से नाराज होनेवाले दलित हैँ, तब सनातनी थे)।

और तो और, गान्धी पर दक्षिण अफ्रीका में भी दो बार जानलेवा हमला हुआ था तो तब की नाराजगी क्या थी! तब तो गान्धी ने न जाति व्यवस्था पर चोट की थी न कथित महान ‘हिन्दू राष्ट्र’ पर। वे तब भी अन्याय दूर करने और बराबरी की लड़ाई लड़ने निकले थे और जीवन के आखिरी दिन तक वही करते रहे। और गान्धी का तो एक ही रुख रहा- वे ऐसे हमलों से कभी नहीं डरे और हर बार हमलावरों को माफ किया और उनको सद्बुद्धि आने की प्रार्थना की।

मौत का आभास था उन्हें

गान्धी सवा सौ साल जीवित रहना चाहते थे लेकिन समाज के व्यवहार, शासन के व्यवहार और सबसे बढ़कर अपने साथियों के व्यवहार से दुखी होकर वे जल्दी मरने की इच्छा जाहिर करने लगे। पर जब सब चीजें हाथ से निकलती लगीं तो उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपने कुछ भरोसेमन्द साथियों के साथ सीधे अग्निकुंड मेँ उतरने का फैसला किया। इस दौर पर सुधीर चन्द्र ने अद्भुत किताब लिखी है, ‘गान्धी : एक असम्भव सम्भावना’। वे बताते हैं कि जो चीज दो मुल्कों की सरकारें, फौज और खजाना हासिल न कर पा रहे थे वह इस अधनंगे फकीर ने हासिल की और नेहरू तथा जिन्ना दोनों उम्मीद के साथ उनकी तरफ देख रहे थे।

पेंटिंग : नंदलाल बसु

प्यारेलाल जी की पूर्णाहुति, मनु गान्धी की डायरी और निर्मल कुमार बोस जैसे नजदीकी लोगों (जो नोआखाली मेँ उनके लिए दुभाषिया का काम भी कर रहे थे) का लेखन उपलब्ध है कि गान्धी तब क्या कर रहे थे और कैसे कर रहे थे, कैसी असम्भव लगनेवाली सफलता हासिल कर रहे थे। और जैसी चर्चा पहले हुई है उनके लिए प्रार्थना और भजन ही सबसे बड़े सहायक थे। इन्हीं के सहारे वे 46 गाँवों में घुसे, दंगापीड़ितों को हौसला दे सके, दंगाइयों में बची मानवता को झकझोर सके। परदानशीं औरतें उनको पीर मानकर उनके सामने आयीं और उनके काम को आगे बढ़ाया। सबसे बदनाम सुहरावर्दी भरोसे लायक सहायक बने। इस ब्योरे को यहाँ दोहराने की जरूरत नहीँ है, प्यारेलाल जी ने इस पर करीब दो हजार पन्ने खर्च किये हैं। 

गान्धी की इस कलाकारी का चरम क्या था यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। पर इतना बताना जरूरी है कि गान्धी ने एकाधिक संकेतों और भावों से ही नहीं सीधे बोलकर भी यह जता दिया था कि देश और दुनिया बदलने का उनका लम्बा संघर्ष अब ‘द एंड’ पर आ चुका है। वे अपना सामान्य धर्म निभाते जा रहे थे, सारे काम चला रहे थे, खास बातों का ध्यान रख रहे थे लेकिन अब उनकी चिंता कुछ और बात की थी। जहर भरे मनों को शांत करने के साथ वे सत्ता में गये लोगों की अलग किस्म की भूख की लड़ाई भी निपटाने में लगे थे।

जिन हमलों को दुनिया ने देखा, गान्धी उनके मायने न समझते हों यह नहीं था। और वे तो हमला करनेवालों को भी अपना ही मान रहे थे, ज्यादा से ज्यादा भटका हुआ। पर इनकी संख्या, ताकत, समाज को नुकसान करने की उनकी क्षमता, सब चीजों को वे देख और समझ रहे थे। और ऐसा सिर्फ हिन्दुओँ में ही नहीं था। गान्धी यह भी देख चुके थे कि गफ़्फ़ार ख़ान के भतीजे को सपरिवार, रफी अहमद किदवई के अधिकारी भाई जैसे नेशनलिस्ट मिजाज के मुसलमान भी दंगाइयोँ का निशाना बन रहे थे।

ज्यादा न जीने की बात वे कुछ समय से कर रहे थे लेकिन 30 जनवरी 1948 को जब उन्होंने अपनी पोती मनु से एक बात कही तो वह एकदम डर गयी। तब मनु उनके निजी काम के साथ सहायक का काम भी देख रही थी क्योंकि प्यारेलाल जी समेत सारे दूसरे लोग दंगा शांति और राहत के काम में लगाये गये थे। पटेल-नेहरू मनमुटाव निपटाने के लिए उन्होंने उस दिन सरदार को बुलाया था। उनकी बातचीत कुछ लम्बी चली जिसके चलते प्रार्थना मेँ कुछ देरी हुई थी। पर इस चक्कर में गुजरात से आए काठियावाडी नेता रसिक भाई और ढेबर भाई को दिया समय रह गया। मनु ने उनके लिए नया समय माँगा तो गान्धी ने कहा, ‘उनसे कहो कि यदि जिन्दा रहा तो प्रार्थना के बाद टहलते समय बातें कर लेंगे।’ बीस तारीख को मदनलाल पाहवा द्वारा कराये बम विस्फोट के बाद उनके व्यवहार से ऐसा बेगानापन दिखने लगा था। इस घटना पर सांत्वना देने आयी लेडी माउंटबेटन को उन्होँने कहा कि यह कोई बहादुरी न थी।

मनु इस तरह की बात कई दिन से उनके मुँह से सुन रही थी और एकाध बुरा सपना देख चुकी थी। लेकिन एक रात पहले ही जब गान्धी खाना खाकर सीधे सोने चले गये तो उसे हैरानी हुई कि वे सिर में तेल मालिश कराना कैसे भूल गये। जब वह मालिश करने लगी तो गान्धी ने उससे कहा था, ‘आज एक बात तुझे कहना चाहता हूँ, जो कई बार कह भी चुका हूँ। यदि मैं किसी रोग से या छोटी सी फुंसी से भी मरूँ, तो तू जोर-शोर से दुनिया से कहना कि यह दम्भी महात्मा रहा। तभी मेरी आत्मा को, भले ही वह कहीं हो, शांति मिलेगी। भले ही मेरे लिए लोग तुझे गालियाँ दें, फिर भी यदि मैं रोग से मरूँ, तो मुझे दम्भी पाखंडी महात्मा ही ठहराना। और यदि गत सप्ताह की तरह धड़ाका हो, कोई मुझे गोली मार दे और मैँ उसे खुली छाती झेलता हुआ भी मुँह से ‘सी’ तक ना करता हुआ राम का नाम रटता रहूँ, तभी कहना कि वह सच्चा महात्मा था……… इससे भारतीय जनता का कल्याण ही होगा।’(बापू की अंतिम झाँकी, पृष्ठ 239)

जी हाँ, इसे माना जाना चाहिए परम कलाकारी। चौबीस घंटे से कम समय में उस महात्मा के संग ऐसा ही हुआ और उसने राम का नाम ही लिया। सिपाही पुलिस की सुरक्षा कब से ठुकरा रहा था। और तत्काल उसकी हत्या ने किस तरह फर्क डाला यह कहानी भी बताने की जरूरत नहीं है।

वह मनहूस दिन

30
जनवरी 1948, उपवास से कमजोर हुए महात्मा गान्धी अपने तय समय पर जगे। उनको मालूम था कि सुशीला नैयर बहावलपुर गयी हैं। इसलिए उन्होंने मनु से गीता पाठ करने और फिर एक बांग्ला प्रार्थना गाने को कहा। उन दिनोँ तक वे बांग्ला सीख रहे थे क्योंकि वे दिल्ली के अपने मौजूदा काम को नोआखाली का विस्तार ही मानते थे। प्रार्थना खत्म होने पर उन्होंने मनु से उन लोगों को अपना यह सन्देश दे देने को कहा जो प्रार्थना के समय उपस्थित रहकर भी उसमें नहीं आए थे या गायब रहते हैं। उन्होंने कहा, ‘मैँ देख रहा हूँ कि मेरा प्रभाव मेरे निकट रहनेवालों पर से उठता जा रहा है। प्रार्थना तो आत्मा को साफ करने का झाडू है…… पसन्द नहीं पड़ता तो फिर उसे चाहिए कि मेरा ही त्याग कर दे। इसमें दोनों का ही भला है…..समझा देना कि ये बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं।’

स्केच : जॉन हेनरी। चित्रकार के प्रति साभार।

आज कुछ कदम अकेले चलकर वे खुश हुए और कहा ‘एकला चलो रे’। फिर संतरे का रस लेकर लिखा-पढ़ी पर बैठ गये। कांग्रेस के नये संविधान का मसविदा तैयार था, उसी का संशोधन कर रहे थे। काम करते-करते नींद आ गयी। उठकर देखा तो कल लिखे पत्र नकल न होने से पड़े थे। इसके लिए मनु सीधे जिम्मेवार न थी लेकिन उसे भी फटकार पड़ी कि तुम्हें यह देखना था। आठ बजे उठकर प्यारेलाल जी को काम बताये, नहाने गये। मनु के गिरते स्वास्थ्य के लिए उसे चेताया और कहा कि नोआखाली जाने के पहले वाला स्वास्थ्य वापस होना चाहिए।

कई और काम निपटाये पर जब शांतुकुमार जी आए तो बात महादेव भाई देसाई की डायरी के सम्पादन में नवजीवन से पैसे के झगड़े के चलते काम अटकने का पता चला तो बोले, ‘जहाँ देखता हूँ, जैसे यादव कट मरे, वही स्थिति हमारी है। हम लोग आपस में झगड़ा करके समाज की कितनी हानि कर रहे हैं, इसका खयाल किसी को नहीं आता…… इसमें सब मेरी ही खामी है…… जीते जी अपनी आँखों से देखकर जितना सुधार सकूँ, उतना सुधार लूँगा, जिससे भावी पीढ़ी की गाली न खानी पड़े।’

फिर यह समझाया कि यह काम किस तरह होना चाहिए। फिर श्रीलंका से आए डा. सिल्वा और उनकी बेटी से जल्दी बात करके विदा किया। उन दोनोँ ने आटोग्राफ लिये। असल में सारी जल्दबाजी तीसरे पहर सरदार पटेल से होनेवाली बातचीत के चलते थी जिन्हें गान्धी ने सरकार में उनके और जवाहरलाल नेहरू के बीच खटपट की खबरों के बाद बुलाया था। कल फिर नेहरू से बात करनी है।

एक तैयारी इधर थी और दूसरी तैयारी उसी समय पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चल रही थी। उसी दस ग्यारह के बीच कई लोग मिले जो कनाट प्लेस के मद्रास होटल, हिन्दू महासभा भवन और पुरानी दिल्ली के होटलों में रुके थे। इनमें से ज्यादातर लोग दस दिन पहले भी जुटे थे और गान्धी की प्रार्थना सभा तक गिरोह बनाकर गये थे। तब योजना थी कि मदनलाल पाहवा बम का धमाका करेगा और अफरातफरी का लाभ लेकर गान्धी को गोली मार दी जाएगी। उस बार तो सफलता नहीं मिली न दस दिन में पुलिस चौकसी दिखी तो यह जमात फिर जुटी। इस बार ग्वालियर से नयी किस्म का सात राउंड फायर करनेवाली पिस्तौल भी जुड़ गयी थी। सबने साथ खाना खाया और ताँगे से मन्दिर मार्ग पर स्थित बिड़ला मन्दिर आए।

जिस हरिजन बस्ती में गान्धी पहले रुकते थे वह शरणार्थियों से भरा हुआ था और इसी के चलते गान्धी इस बार बिड़ला भवन रुके थे। खा-पीकर आए इन लोगों ने मन्दिर के पीछे  झाड़ियों में हथियार चलाकर देखा और शंकर भगवान की मूर्ति को प्रणाम किया और फिर बिड़ला भवन चल दिये।

उधर बापू सरदार से बातचीत में इतने तन्मय हो गये कि प्रार्थना में जाने में दस मिनट देर हो गयी। बापू मनु के दादा तो थे ही वह सरदार को भी दादा ही कहती थी। अब दो दादाओं के बीच जाने की उस बेचारी को हिम्मत न हो रही थी और जब उसने समय की याद दिलायी तो इसके लिए भी उसे झिड़की मिल गयी कि मुझे ऐसी देरी बिल्कुल पसन्द नहीं। चाँद बहन को दिल्ली में ही रखने की बात कही। खुराक बढ़ाने की चर्चा करते हुए सीढ़ियाँ उतरे। अभी चार सीढ़ियाँ चढ़े और सामने लोगों को देख लड़कियों के कन्धे से हाथ उठाकर सबको नमस्कार किया।

मनु गान्धी के दाहिनी तरफ चल रही थी। तभी एक आदमी भीड़ को चीरता हुआ घुसा। मनु को लगा कोई प्रणाम करने वाला है। मनु ने उसे पीछे करना चाहा और कहा कि ‘भाई बापू को दस मिनट की देर हो गयी है। आप और क्यों परेशान कर रहे हो?’ लेकिन उसने और जोर से मनु को धक्का मारा और उनके हाथ की माला, पीकदानी और नोटबुक गिर गयी। जब वे इसे उठाने लगीं तभी दनादन तीन गोलियाँ चलीं और ‘हे राम’ कहते गान्धी गिर पड़े। बायीं तरफ चलनेवाली आभा ने उनका सिर गोद में लिया। कितने ही लोग बापू को सँभालने आगे बढ़े। उन्हें कमरे तक ले जाने में दस मिनट लगा। कोई डाक्टर पास न था और सुशीला नैयर का फर्स्टएड बाक्स टटोला गया तो कोई खास दवा न मिली।

अत्यधिक खून बहने के चलते चेहरा तो करीब दस मिनट में ही सफेद पडने लगा था। विलिंगडन अस्पताल और माउंटबेटन, नेहरू, सरदार जैसे लोगों को दनादन फोन होने लगा। सरदार अभी घर पहुँचे ही थे कि उलटे पाँव लौटे। कन्हैयालाल मुंशी आए। कर्नल भार्गव थोड़ी देर में पहुँचे। और जब उन्होंने सारी जाँच करके घोषणा कर दी कि बापू नहीं रहे तो सबके रुके आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। तब तक बिड़ला हाउस लोगों से पट गया था। जिसे जहाँ खबर मिली वहीं से भागा। सिर्फ सरदार और उनकी बेटी मनु ही सांत्वना देते और ढाढ़स बँधाते दिखे।

माउंटबेटन आए तो वे भी लोगों को शांत करने में लगे रहे। उनके पास खड़े एक आदमी ने जब कहा कि हत्यारा मुसलमान था तो उन्होंने डाँटकर कहा कि हिन्दू था। पंडित नेहरू से कुछ बोला ही नहीं जा रहा था। रेडियो के लिए सिर्फ इतना कह सके, ‘बापू अब हमारे पास न रहे।’ तब तक देश-विदेश के राजदूत और बड़े लोग आने लगे। पंडित जी को मनु दिखी तो बोल पड़े, ‘मनु और जोर से गीत पढ़ो, शायद बापू जग जाएँ।’

तब तक हत्या वाली जगह पर भी काफी कुछ हो चुका था। बिड़ला हाउस के माली रघु ने नाथूराम को दबोच लिया और एअरफोर्स के सार्जेंट देवराज सिंह ने उसे दो-एक घूँसे लगाकर शांत किया और बाँह मरोड़ कर कब्जे में लिया। अब उसको भीड़ से बचाना भी एक काम था वरना लोग उसे कूट देते। देवराज का सैनिक प्रशिक्षण ऐसे अपराधी को जीवित पकड़ने का महत्त्व बता रहा था। पर वह रह-रह कर सिर्फ झूठ बोले जा रहा था। नाम, पता, उम्र के झूठ से भी बड़ा यह कहना था कि उसने अकेले यह अपराध किया है। खैर, उसका काम पूरा हो गया था और उसके साथियों और षड्यंत्रकारियों को अपने को बचाने का नया षड्यंत्र करना था।

उधर बिड़ला भवन की छत पर मंच बना और बापू का शव रखा गया। लोगों और फोटोग्राफरों की भीड़ बढती ही गयी। लोग रोये जा रहे थे और महात्मा गान्धी अमर हों के नारे लगा रहे थे। रात दो बजे शव को अंतिम संस्कार के लिए तैयार करना शुरू हुआ। जिन शांतिकुमार जी ने कस्तूरबा के अंतिम संस्कार के समय बापू से  सब कुछ कराया था अब उन्होंने खुद गोबर से जमीन लीपना, नहलाना और अर्थी बनाने का काम किया क्योंकि सभी हिन्दू कर्मकांड से अनजान थे। जब उनकी देह को नहलाने के पहले कपड़े उतारे गये तो आस्ट्रेलियन ऊन से बनी शाल छिद गयी थी और तीन जगह जल भी गयी थी। धोती और चादर खून से सराबोर थी।

नहलाकर शरीर को उसी पटरे पर रखा गया जिस पर बापू सोते थे। ब्रजकिशन चाँदीवाला ने उनके गले में सूत की माला और नाम का जाप वाली रामनामी माला पहनायी। चन्दन लगाया गया और कुमकुम का टीका हुआ। इसी सब में गान्धी के जाने का वक्त हो गया।

(जारी)

(वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने ‘गांधी कथा’ नाम से पाँच पुस्तकों में एक वृत्तांत लिखा है जो सेतु प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। यह लेख उसी वृत्तांत का एक अंश है। इससे पहले चंपारण सत्याग्रह पर दो खंड में तथा ‘गांधी और कला’ पुस्तकें भी उनकी आ चुकी हैं।)

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