— अरविन्द मोहन —
तीस जनवरी 1948 की रात (जिस दिन गांधी की हत्या हुई), किसे नींद आनेवाली थी! लेकिन अंतिम संस्कार और वह भी सबकी उम्मीद के अनुरूप, देश-दुनिया को पूरी तरह बताते-दिखाते हुए करने की चुनौती भी थी। तो वायसराय जैसे लोग ही रात में वहाँ से गये। बाकी सभी जिम्मेवार लोग अलग अलग तरह से अपने जिम्मे का काम निभाने में लगे थे। देवदास काफी संयत थे और सरदार पटेल ही ज्यादातर फैसले ले रहे थे। पंडित नेहरू थे लेकिन ज्यादा टूटे हुए लग रहे थे। गांधी के सिर्फ एक पुत्र, देवदास जी, दिल्ली में थे और करीब के बहुत लोग बाहर थे। मीराबहन, सुशीला नैयर, राजेन्द्र बाबू जैसे कई लोग अलग अलग काम से बाहर थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन तो कई दिन बाद के संस्कार के पक्ष में थे लेकिन पंडित जी, सरदार और देवदास जैसे लोग हिन्दू विधि के अनुसार अगले सूर्यास्त के पहले संस्कार पूरा कर देने के पक्ष में थे और यही फैसला हुआ।
राष्ट्रध्वज आधा झुका दिया गया था और बिड़ला भवन फौजियों से भी भर गया था क्योंकि जितनी भीड़ उमड़ी थी उसे संभालना आसान न था। शव को सैनिक गाड़ी में ले जाना और फौजी सैल्यूट पर भी बात हुई और यहाँ ज्यादा से ज्यादा लोगों के दर्शन के लिए फौजी व्यवस्था को बेहतर माना गया। शव को ले जाने का रूट भी तय हुआ और जगह यमुना के किनारे राजघाट रखने का फैसला हुआ। आग कौन देगा इसे लेकर भी हल्का विवाद हुआ। ज्यादातर लोग पंडित नेहरू का नाम ले रहे थे लेकिन उन्होंने रामदास के आने का इंतजार करने को कहा। रेडियो के लोगों ने बिड़ला भवन से लेकर राजघाट तक अपने आँखों देखा हाल सुनाने का इंतजाम शुरू कर दिया। रात में भी रेडियो ही खबर का मुख्य स्रोत था और पंडित जी का वह चर्चित सन्देश उसी के माध्यम से चला कि ‘लाइट हैज गान..’। नेहरू सबसे ज्यादा रो रहे थे और सुबह तक आँखें इतनी सूज गयी थीं कि चेहरा पहचान में नहीं आता था। उनकी तुलना में देवदास जी लोगों को ढाढस बँधाते दिखते थे। लेडी माउंटबेटन भी रो रही थीं लेकिन सांत्वना देनेवालों में वे भी थीं।
सरदार सारी व्यवस्था देख रहे थे और लोगों की भीड़ उमड़ती ही आ रही थी। फौजी गाड़ी पर भी वही पटरा रखा गया जिस पर गांधी सोते थे। उसे खूब सजा-धजा दिया गया था। और ऊँचाई पर रखे जाने से शव लोगों को दिख रहा था। ठीक ग्यारह बजे शव को गाड़ी पर रखा गया। तभी नागपुर से रामदास जी आ गये। सुशीला नायर भी आ गयी थीं। राजेन्द्र बाबू श्रीलंका गये थे, वहाँ से भागे आए। तीनों सेनाओं की टुकड़ियाँ भी आ चुकी थीं। आगे चार फौजी गाड़ियों के बाद शव वाली गाड़ी और उसके पीछे गवर्नर जनरल, कैबिनेट मंत्रियों और राजदूतों की गाड़ियाँ थीं। एक लाउड्स्पीकर वाली गाड़ी वहाँ मौजूद लोगों को सूचना देने के लिए चल रही थी।
पाँच मील का रास्ता बूढ़े और बीमार लोगों के लिए चलना सम्भव न था। सरदार पटेल, मौलाना आजाद, कृपलानी और रामदास गांधी जैसे लोग कभी पैदल चलते थे तो कभी उसी फौजी गाड़ी पर बैठ लेते थे जिस पर बापू का शरीर रखा था। बड़े लोगों और विदेशी मेहमानों के पीछे सैनिक अधिकारी, बिड़ला परिवार, महाराजा जामसाहब, अन्य देसी नरेश, कांग्रेस के पदाधिकारी, सांसद और इसी श्रेणी के वीआईपी थे। चीनी राजदूत ने अपने देश के झंडे पर ‘गान्धीजी अमर रहें’ लिखवा लिया था। सेना और पुलिस के करीब छह हजार लोग थे। पाँच मील की यात्रा में पाँच घंटे का समय लगा। लोगों की पीछे आनेवाली पंक्ति तो टूटी ही नहीं और सड़क के दोनों तरफ तिल रखने की जगह न थी। लोग मकानों के ऊपर ही नहीं, पेड़ों और खम्भों पर चढ़कर गांधीजी के दर्शन का इंतजार करते रहे।
रास्ते में वह जिला जेल आया जहाँ बापू को कभी कैदी के तौर पर रखा गया था। वहाँ के गेट पर खड़े जेलर, वार्डरों और गार्डों ने फौजी ढंग से सलामी दी। वायु सेना के तीन हेलिकाप्टरों ने रास्ते में दो बार पुष्पवर्षा की। ठीक चार बजे गांधीजी के शव को वाहन से उतारकर उस चबूतरे पर रखा गया जिसे सुबह से बनाया गया था। ढाई फुट ऊँचा, बारह फुट चौड़ा और बारह फुट लम्बा यह मिट्टी का चबूतरा था जिसे यमुना के जल से सिंचित किया गया था। 15 मन (एक मन लगभग 37 किलो का) चन्दन की लकड़ी, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल, एक मन हवन सामग्री, साढ़े सात सेर कपूर वहाँ पहुँचाया जा चुका था। सौ गज का घेरा फौज ने लगाया था तब भी करीब तीन लाख लोगों को सँभालना आसान न था। जब शव की चिता सजायी गयी तो सबको श्रद्धा के सुमन चढ़ाने का अवसर देना भी सम्भव न था। तब हर किसी को लगा कि ऐसा इंतजाम न होता तो गान्धी से क्या गान्धी को चाहने और अंतिम बार देख लेनेवालों के साथ अन्याय हो जाता।
गांधी का सिर्फ चेहरा खुला था। बाकी सारी चिता फूलों से ढँकी थी। इस अवसर पर पंडित नेहरू भी धोती पहनकर आए थे। तब भी लोग उनसे ही अंतिम संस्कार के लिए कह रहे थे लेकिन उन्होंने रामदास गांधी को ही कर्म करने को कहा। शास्त्री रामधन शर्मा ने अंतिम संस्कार कराये। पास बैठकर महिलाओं ने सर्वधर्म प्रार्थना की। लार्ड और लेडी माउंटबेटन, उनकी दोनों बेटियाँ, दामाद, सरोजिनी नायडू समेत कई गवर्नर पंडित जी समेत सभी को ढाढ़स बँधा रहे थे। मीराबहन ने न आने की सूचना भिजवा दी थी। लपटें बढ़ीं तो भीड़ कम होने लगी। सरदार पटेल ने मनु और आभा जैसी रोती लड़कियों को एक ट्रक पर बैठाया और खुद से बिड़ला भवन छोड़ गये।
मनु ने लिखा है कि कुछ समय बाद देवदास गान्धी और उनकी पत्नी लक्ष्मी बिड़ला हाउस आए। और बात बदलवाने के लिए बापू के सामान की सूची बनाने और उन्हें सँभालने का जिम्मा दिया। पर अंत में उन सबका मन देखकर वे उन्हें अपनी गाड़ी में भरकर फिर चितास्थल पर ले गये। तब तक वहाँ कँटीले तारों की बाड़ लग चुकी थी और दक्षिण अफ्रीका के गांधी के सहयोगी सोराबजी भाई लगातर पहरा दे रहे थे। सैनिक भी पहरे पर थे ही। रात दो बजे फिर एक चक्कर लगाकर उन्होंने बापू की स्मृति को प्रणाम किया और वापस लौट आए।
समुन्दर वाला त्रिवेणी पहुँचा
गांधी की हत्या पर दुनिया भर से शोक सन्देश आए, अफसोस जताया गया और दुखी लोगों का ताँता लगा रहा। शासन प्रमुखों और मुख्य राजनेताओँ के अलावा वैज्ञानिक आइंस्टीन जैसों का शोक सन्देश भी आया जो आज तक उद्धृत होता है क्योंकि वह गांधी की महानता को नये तरह से बताता है। गांधी के व्यक्तिगत मित्र भी दुनिया भर में थे। उनके सन्देश आए। दुनिया के लगभग सभी प्रमुख अखबारों में यह खबर छपी और संपादकीय लिखे गये। इन सबको सँभालना और इनका जवाब देना भी था लेकिन गांधी से जुड़े लोगों की अगली चिंता अस्थि विसर्जन की थी। मुख्य कार्यक्रम तो प्रयाग में होना तय ही था लेकिन अंतिम संस्कार वाले अनुभव ने यह बताया कि बापू को लेकर देश भर में बहुत बेचैनी है। अगर अस्थियों और भस्मी के विसर्जन में ज्यादा से ज्यादा देशवासियों को भागीदार बनाया जाए तो यह उनके मन को संतोष देगा। इसलिए तय हुआ कि भस्मी के पात्र को जगह जगह पहुँचाकर दर्शन का इंतजाम कराया जाए और फिर उन्हें अलग अलग तीर्थोँ पर और नदियों में प्रवाहित भी किया जाए।
दो फरवरी को सुबह फिर से काफी बड़ी भीड़ (लाखों वाली) राजघाट पर जुटी। प्रार्थना हुई और फिर नजदीकी लोगों ने अंतिम संस्कार वाले चबूतरे पर जाकर अस्थि और भस्मी को जमाकर ताँबे के एक कलश में भरा। तब तक यह फैसला हो गया था कि प्रयागराज संगम के अलावा नासिक की गोदावरी, बेजवाड़ा की कृष्णा, त्रिपुरी के पास नर्मदा, गया के पास गोमती, जालन्धर के पास सतलुज, दक्षिणेश्वर के पास हुगली, इन्दौर और राजस्थान में शिप्रा, ओड़िशा में महानदी, असम के ब्रह्मपुत्र, अहमदाबाद के साबरमती, वर्धा की पवनार नदी में भस्मी विसर्जन किया जाएगा। इनके अलावा जगन्नाथपुरी, सेतुबन्ध रामेश्वरम, कन्याकुमारी और पोरबन्दर के समुद्र में भी भस्मी विसर्जन होगा। कई लोग छोटे छोटे पात्रों में और भी जगहों के लिए भस्मी ले गये। मुख्य पात्र को बिड़ला भवन में उसी आसन पर गान्धी की तस्वीर के साथ रखा गया जिस पर बापू बैठा करते थे। वहाँ भी रोज दर्शनार्थियों की लाइन लगनी शुरू हुई और भस्मी कलश के आगे फूल और सिक्कों का ढेर जमा हो गया। गीता पाठ, अखंड सूत कताई और प्रार्थना चलती रही।
बारह फरवरी, अर्थात तेरहवीं के दिन देश भर के तय ठिकानों पर अस्थि विसर्जन करना तय हुआ था। बिड़ला भवन में रखा कलश इलाहाबाद ले जाने का खास इंतजाम किया गया। उसे पालकी पर लेकर स्टेशन पहुँचाया गया जहाँ विशेष रेलगाड़ी में पाँच डिब्बे रिजर्व रखे गये थे। कलश वाली जगह खुली थी और बिजली की बत्तियों से रौशन थी जिससे दूर से भी लोगों को नजर आ जाए। उसके पास बैठकर भी प्रार्थना और गीता पाठ चलता रहा। पहले भी जब कभी बापू इलाहाबाद जाते थे तो नेहरू जी मेजबान की हैसियत से सचमुच एक पाँव पर खड़े रहकर उनके सत्कार में कोई कमी नहीं रहने देते थे। इस बार तो आखिरी बार का ही मामला था। वे पहले पहुँचे और प्रदेश सरकार के लोग उनकी देखरेख में सारा इंतजाम कर रहे थे।
दिल्ली और इलाहाबाद के बीच ट्रेन को दस प्रमुख स्टेशनों पर गाड़ी को कुछ ज्यादा देर रोका गया जिससे लोग दर्शन कर लें। गवर्नर जनरल माउंटबेटन, एडविना, सरदार पटेल, कैबिनेट के ज्यादातर लोग सुबह विमान से इलाहाबाद पहुँचे थे। जब सुबह रेलगाड़ी पहुँची तो अस्थि कलश की अगवानी के लिए काफी लोग आए थे। काफी माने लाखों। गाड़ी नौ बजे सुबह पहुँची थी और संगम वहाँ से कोई पाँच मील दूर है। यहाँ भी एक पालकी पर कलश रखकर बाहर लाया गया और पालकी उठानेवालों में नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई और जीवराज मेहता शामिल थे। फिर उसे 17 फीट ऊँचा बने गांधी रथ पर रखा गया। यह व्यवस्था भी ज्यादा से ज्यादा लोग दर्शन कर पायें इसलिए की गयी थी। विमान से पुष्पवर्षा की गयी। फिर क्वींस रोड पर आकर इस भीड़ ने एक जुलूस का रूप ले लिया।
संयोग से तभी कुम्भ भी चल रहा था। शहर में वैसे भी काफी भीड़भाड़ थी। सबसे आगे लाउडस्पीकर वाली चार जीपें और चार सैनिक वाहन चल रहे थे। फिर 12-12 की कतार में घुड़सवार पुलिस और उसके पीछे कुमाऊँ रेजीमेंट के जवान। बारह-बारह जवानों की आठ कतारों के बाद अस्थि कलश वाली सवारी। उसको घेरकर चल रही पुलिस कतार और उनके घेरे के अन्दर रामधुन गाती लड़कियाँ। उनके पीछे सारे मंत्री, विदेशी मेहमान, अधिकारी और नेता थे। उसके पीछे लोगों की पाँत और अंत में भी फौजी टुकड़ी।
सड़क के दोनों तरफ लोग और मकानों की छतों, खम्भों और पेड़ों पर लदे पड़े लोग। चार हजार बाँसों की बल्लियों से सड़क पर भीड़ को सँभालने का इंतजाम था। बीच-बीच में वायु सेना के विमान फूल बरसा रहे थे। महात्मा गांधी की जय से आसमान गूँज रहा था। दस से पन्द्रह लाख लोग इस जुलूस में शामिल हुए। जब अस्थि कलश वाला वाहन यमुना घाट पर पहुँचा तो अस्थि कलश को उतारकर एक फौजी नौका (डक) में रखा गया। रामदास गान्धी, देवदास गान्धी, सरदार पटेल, पंडित नेहरू, गोविन्दवल्लभ पंत, मौलाना आजाद, सरोजिनी नायडू (जो तब उत्तर प्रदेश का राज्यपाल थीं) और उनकी बेटी पद्मजा (जो गान्धी की बहुत प्रिय थीं) ने कलश को हाथ लगाकर डक पर रखा। दूसरी नावों से काफी सारे लोग संगम की उस जगह पर पहुँचे जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता माना जाता है।
रामदास जी ने कई करीबी लोगों को संचित अस्थि राख का कुछ कुछ अंश पकड़ाया और फिर कलश को उसी जगह खाली कर दिया। सभी ने अपने अपने हाथ से भी अस्थियाँ प्रवाहित कर दीं। तब तक विभिन्न घाटों पर और भी विशाल भीड़ जुट गयी थी। चारों ओर से महात्मा गान्धी अमर रहें और महात्मा गान्धी की जय के नारे लग रहे थे। नावों को कुछ समय रोक कर गीता के बारहवें अध्याय का पाठ हुआ। फिर सब किनारे लौटे। किनारे एक ऊँचा मंच लगा था। शाम हो गयी थी और सूरज छुप गया था। पंडित नेहरू को बोलना था। उन्होंने कहा, ‘आखिर आज मैँ त्रिवेणी में अपने बापू को छोड़ आया’ और रोने लगे।
(ज्यादातर विवरण मनु गान्धी की डायरी पर आधारित)
(वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने गांधी और उनके सहयोगियों के बारे में ‘गांधी कथा’ नाम से पाँच पुस्तकों में एक वृत्तांत लिखा है जो सेतु प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। यह लेख उसी वृत्तांत का एक अंश है। इससे पहले चंपारण सत्याग्रह पर दो खंडों में तथा ‘गांधी और कला’ पुस्तकें भी उनकी आ चुकी हैं।)