समाजवादी आंदोलन की तीसरी धारा – आनंद कुमार

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(दूसरी किस्त)

 3. निराशा के कर्तव्य : एक तीसरी धारास्वधर्मे निधनम् श्रेयःके आदर्श से प्रेरित है। कोरोना के पहले विभिन्न दलों और मंचों में सक्रिय समाजवादियों ने महाराष्ट्र (मुंबई), बिहार (पटना), उत्तरप्रदेश (लखनऊ), मध्यप्रदेश (ग्वालियर और इंदौर), कर्नाटक (बेंगलुरु) और दिल्ली में संवादों का क्रम बनाकर समाजवादी समागम की स्थापना की। इस समागम ने एक समाजवादी घोषणा-पत्र बनाया। एक पठनीय स्मारिका प्रकाशित हुई। एक समाजवादी विचार-यात्रा निकाली। पश्चिम बंगाल और असम के विधानसभा चुनाव में योगदान रहा।

मीडिया और इन्टरनेट की दुनिया मेंलोहिया टुडेऔरबहुजन संवाद’, ‘जनता का आईनाऔरथर्ड आईकी प्रभावशाली उपस्थिति है। 23 मार्च,’21 सेसमता मार्गनाम के हिंदी पोर्टल से दैनिक इंटरनेट पत्र ने एक संवाद मंच बना दिया है। 4 नवम्बर, ’21 सेलोकनायक जे.पी. वेबसाइटशुरू हुई।जनता’ (अँग्रेजी साप्ताहिक) का गोवा मुक्ति संघर्ष विशेषांक निकला। स्वामी विवेकानंद, लोहिया, मधु लिमये, गोवा मुक्ति आन्दोलन पर हिंदी और अंग्रेजी में किताबें प्रकाशित हुईं। मधु लिमये जन्म शताब्दी का 1 मई21 से शुभारम्भ किया गया। समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा की रचनावली छपी। फणीश्वरनाथरेणुकी जन्म शताब्दी मनाई गयी।

इस तीसरी धारा के कुछ चर्चित व्यक्ति कई तरीकों से किसान आन्दोलन के पक्ष में खड़े हुए। समाजवादी समागम के कुछ संस्थापकों ने हिन्द मजदूर सभा के माध्यम से मजदूर संगठनों का राष्ट्रीय मंच बनाने में योगदान किया। रेल मजदूर यूनियन के जरिये भारतीय रेलवे के निजीकरण का जबरदस्त विरोध जारी है।

स्त्रियों के सरोकार के लिए समाजवादी परम्परा से जुड़े स्त्री-पुरुषों की उल्लेखनीय सक्रियता है। शिक्षा के मोर्चे पर विद्यार्थियों और शिक्षकों में समाजवादी शिक्षक मंच और विद्यार्थी-युवजन कार्यकर्ता सक्रिय हैं।जल-जंगल-जमीनकी लड़ाइयों में समाजवादी दाल में नमक की तरह से बने हुए हैं। सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया ने डिजिटल मोर्चे से लेकर स्थानीय मुहल्लों तक में अपने को प्रासंगिक बनाना जारी रखा है। राष्ट्र सेवा दल ने संविधान की रक्षा के हर आन्दोलन में योगदान किया है। सांप्रदायिक सद्भाव की रक्षा में भी समाजवादी सबके साथ हैं। लद्दाख, अरुणाचल और नेपाल में चीनी आक्रामकता सेभारत की सुरक्षा – तिब्बत की आज़ादीका काम और ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।

सबसे बुजुर्ग सक्रिय समाजवादी डा. जी.जी. पारिख के 97वें जन्मदिवस पर देश भर से मुंबई में इकट्ठा लोगों ने निर्णय किया है कि सुप्रशिक्षित समाजवादी स्वयंसेवक उपलब्ध कराने के लिए एक अखिल भारतीय समाजवादी विद्यालय (स्कूल ऑफ़ सोशलिज्म) बनाया जाए। यह संतोष की बात है कि इस तीसरी धारा के समाजवादी विचार-प्रवाह और जन  अभियानों के लिए बहुत उपयोगी हैं। फिर भी यह कुल मिलाकरनिराशा के कर्तव्यका निर्वाह कर रहे हैं क्योंकि कार्यकर्ता, कोष, कार्यालय  और कार्यक्रम की दृष्टि से कई कमियाँ दूर होने का नाम नहीं ले रही हैं।

4. संसदवाद : समाजवादी जमात में चौथी धारा संसदवाद की केन्द्रीयता से जुड़ी है। यह चुनाव की राजनीति को समाजवादी राजनीति का मुख्य मोर्चा मानती है। इसका आकर्षण बाकी तीनों धाराओं से बहुत अधिक है। चूँकि ग्राम-पंचायत और जिला परिषद् से लेकर विधानसभा और लोकसभा में से किसी न किसी स्तर पर जन-प्रतिनिधियों का चुनाव एक निरंतर प्रक्रिया है। इसलिए समाजवादियों के बीच चुनाव में हिस्सा लेनेवाले ये संगठन भी बराबर चर्चा में रहते हैं।

लेकिन 1977 से इस धारा का कोई अखिल भारतीय स्वरूप नहीं है। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का भारतीय लोकदल में 1974 में और सोशलिस्ट पार्टी का 1977 में जनता पार्टी में विलयन होने के बाद से वरिष्ठ समाजवादियों के नेतृत्व में जाति-विशेष केन्द्रित प्रादेशिक दलों का उदय और अस्त होता रहा है। तमाम वैचारिक कमियों और सैद्धांतिक दोषों के बावजूद (क) व्यक्ति का करिश्मा, (ख) ठोस सामाजिक आधार, और (ग) पर्याप्त धन-शक्ति के समन्वय के कारण ये प्रादेशिक दल समाजवादियों के लिए चुनाव की राजनीति के उपयोगी वाहन हैं। इनके जरिये ही चुनाव की नदी पार की जा रही है।

सारांश

सिद्धांतत: समाजवादियों को समाजवादी समाज की स्थापना होने तक परिवर्तन की राजनीति और राजनीति के परिवर्तन के लिए योगदान करना चाहिए। अपने काम की और रहने की जगहों पर न्याय और प्रगति के लिए संगठन और संघर्ष, और परिवार-गाँव/मोहल्ले से लेकर देश-दुनिया में समाजवाद (स्वतंत्रता, समता और सम्पन्नता) की रचना की दुहरी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। लेकिन यह कैसे करें? दो राहें दीखती हैं – 1. सेवा कार्यों और सत्याग्रह के समन्वय से लोकशक्ति निर्माण, और 2. सत्तासाधना के जरिये शासन में प्रवेश करके लोक-कल्याण करना। दोनों को एकसाथ साधने के लिए भी दो विकल्प बताये जाते हैं – किसी समाजवादी दल में काम करना, अथवा निर्दलीय संगठन और आन्दोलन से जुड़ना। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद के सात दशकों के अनुभव से यह माना जाने लगा है कि अब भारत में लोकसंग्रह के लिए दो मुख्य उपाय हैं – 1. संविधान-सम्मत चुनावी मार्ग, और 2. लोक-एकता आधारित रचनात्मक सत्याग्रही मार्ग।

लेकिन 1991-92 से चुनाव का व्याकरण और विज्ञान बदल गया है। इसका चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जनशक्ति से जादा धनशक्ति की जरूरत होती जा रही है। यह पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे की अनकही कहानी बन चुकी है। 2014 के बाद से तो देश से बड़ा दल और दल से बड़े  नेता बन गए हैं। इससे वोट-व्यवस्था से मोहभंग हो जाना स्वाभाविक है। लेकिन बेहतर विकल्प के अभाव में एक निरर्थकता की निरंतरता जारी है। उधर निर्दलीय और गैर-सरकारी रचनात्मक संगठनों के रास्ते में इतने काँटे-कंकड़ फैला दिए गए हैं कि रचनात्मक कार्य और सत्याग्रह के मार्ग की कठिनाइयाँ पहाड़ तोड़ने जैसी हो गयी हैं। बिना सरकार-समर्थक हुए स्वयंसेवी संगठनों का अस्तित्व असंभव बन चुका है। सरोकारी नागरिक राजधर्म के समानांतर युगधर्म के निर्वाह के लिए अक्षम बना दिया गया है।

फिर भी भारत में किसान आन्दोलन ने और औद्योगिक देशों में चलेधरना’ (‘ओकुपाइ मूवमेंट’) ने नयी संभावनाओं की तलाश के लिए मजबूर कर दिया है। भोगवाद, मुनाफाखोरी और प्रकृति-संहार के त्रिदोष से पीड़ित सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता दिखाया है। इस नए रास्ते पर चलकर लोकतान्त्रिक राजनीति और समावेशी राष्ट्रनिर्माण की परस्पर पूरकता को पुन:स्थापित करना ही समाजवादियों के लिए नए दौर की चुनौती है। विदेशी राज के दौर में एशिया से लेकर अफ्रीका तक  राष्ट्रीयता और समाजवाद की दुहरी प्रतिबद्धता की शर्त थी। इसके बाद नव-स्वाधीन देशों में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर में स्वतंत्रता, लोकतंत्र और शांतिपूर्ण तरीकों के प्रति आस्था की माँग थी। जिन्होंने ध्यान दिया वे स्वराज का विस्तार कर सके अन्यथा विदेशी गुलामी से छूटने में सफल होने के बावजूद देशी तानाशाहों और आन्तरिक उपनिवेशवाद के चंगुल में फँस गए।

लेकिन अब इस चुनौती के समाधान के लिए पाँच गाँठों को खोलना जरूरी हो गया है : (क) अस्तित्व और अस्मिता, (ख) पर्यावरण (प्रकृति) और विज्ञान/टेकनोलाजी (संस्कृति), (ग) राष्ट्रीयता (देशप्रेम) और मानवता (विश्वबंधुत्व), (घ) न्याय (समता) और बंधुत्व (एकता), और (च) सत्य (नैतिकता) और अहिंसा (एकात्मता) के बीच समन्वय की पंचमुखी प्रतिबध्दता चाहिए। इसको साधने में साम्राज्यवाद (ब्रिटेन/फ़्रांस), पूँजीवाद (अमरीका), राष्ट्रवाद (जर्मनी/इटली/जापान), सम्प्रदायवाद (पाकिस्तान), साम्यवाद  (रूसी/चीनी) और सरकारवाद (भारत) असफल रहे हैं। इस सामूहिक असफलता से धरतीमाता ज्वरग्रस्त (ग्लोबल वार्मिंग’) हो चुकी है और कम से कम दो अरब स्त्री-पुरुष असहनीय निर्धनता के दलदल में फँसे रहने को अभिशप्त हैं।

21वीं सदी के दो दशक गुजरने के साथ ही दुनिया और देशों में गरीबी और गैरबराबरी एक सिक्के के दो पहलू की तरह सामने आ चुके हैं। इससे जुड़ी हताशा ने राष्ट्रभेद, रंगभेद, धर्मभेद और जातिभेद पर आधारित संकीर्णता और जलन को एकसाथ फैलाया है। इस दौर में समावेशी स्वराज (अंत्योदय), सहभागी लोकतंत्र (विकेन्द्रीकरण/ चौखम्भा राज) और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। यह राष्ट्रनिर्माण के गांधी मार्ग, वसुधैव कुटुम्बकम के आम्बेडकर सूत्र, लोहिया की सप्तक्रांति और जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति के नए निरूपण का समय है। इसे ही संयुक्त राष्ट्रसंघ नेटिकाऊ विकास का रास्ता’ (सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल्स) कहा है। यही लोकतान्त्रिक समाजवाद का नया अवतार है। इस समाजवादी नव-निर्माण को समकालीन राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लानेवाले चिंतकों, कार्यकर्ताओं, कार्य-पद्धति, लोक संगठनों, प्रशिक्षण संस्थानों और कार्यक्रमों की जरूरत है।

कवि राजेन्द्र राजन के शब्दों में :

हम इतना भर जानते हैं

एक भट्ठी जैसा हो गया है समय

मगर इस आँच में हम क्या पकायें

ठीक यही वक्त है जब अपनी चौपड़ से उठकर

इतिहास-पुरुष आएँ

और अपनी खिचड़ी पका लें….

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