— सुनीता नारायण —
मैंने पिछड़े पखवाड़े लिखा था कि पर्यावरण संबंधी मंजूरी का हौव्वा, पर्यावरण और विकास के बीच द्वंद के झूठे आख्यान को खाद-पानी देता है। जबकि हकीकत यह है कि पर्यावरण संबंधी मंजूरी का मतलब यह होता है कि वह नासमझी भरे और संवेदनहीन विकास पर नजर रखे। आइए, इसे विस्तार से देखते हैं।
कुछ साल पहले मैं एक उच्चस्तरीय समिति की सदस्य थी, जिसका गठन गंगा नदी के ऊपरी हिस्से पर जलविद्युत परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी की जांच के लिए किया गया था। आप तर्क दे सकते हैं कि वन और पर्यावरणीय मंजूरी के चलते परियोजनाएं रुकी हुई थीं और इसलिए ये मंजूरी, विकास के रास्ते में एक रुकावट थी।
हालांकि जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि थोड़ी देरी के बाद सभी परियोजनाओें को मंजूरी मिल गई है। एक बार तैयार होने के बाद, ये अनगिनत, एक के बाद एक परियोजनाएं न केवल महान गंगा नदी का अपने तरीके से निर्माण करेंगी, बल्कि कई मौसमों में इसे सुखा भी देंगी। इससे पहले से ही नाजुक हिमालय, जो जलवायु परिवर्तन के कारण जोखिम में है, भूस्खलन और तबाही को लेकर और ज्यादा संवेदनशील हो जाएगा।
समस्या हाइड्रोपॉवर के साथ नहीं है, बल्कि यह तो ऊर्जा का स्वच्छ स्रोत, नवकरणीय और हिमालयों के लिए संसाधनों का बड़ा स्रोत है, समस्या उन परियोजनाओं के साथ है, जिनकी योजना बिना किसी समझ के बनाई जा रही है और जिन्हें मंजूरी मिल रही है। इसमें इस बात का ध्यान भी नहीं रखा जा रहा कि कितनी परियोजनाओं को और किन स्थितियों में पर्यावरणीय मंजूरी दी जानी चाहिए।
इसलिए यह मामला पर्यावरण और विकास के बीच द्वंद का है या फिर जानबूझकर किए जा रहे खराब विकास का?
मैं इसे पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन खोजने और नुकसान को कम करने के लिए पर्यावरण जांच की एक मजबूत, विश्वसनीय प्रणाली की आवश्यकता को दोहराने के लिए भी लिख सकती हूं। पर्यावरण की शुद्धता के लिए बनाए जाने वाले एक प्रभावी तंत्र से ये दोनों काम किए जा सकेंगे, यानी उनका डिजाइन भी तैयार किया जा सकेगा और उनका क्रियान्वयन भी हो सकेगा।
तो वह क्या चीज है, जो इस तंत्र को और प्रभावी बनाएगी?
पहली बात तो यह कि हमें यह मान लेना चाहिए कि पर्यावरण की मंजूरी का मौजूदा तंत्र अनावश्यक तौर पर पेचीदा है और इसे सुव्यवस्थित बनाया जाना चाहिए। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) को व्यापक बनाने के लिए पर्यावरण, वन, वन्य जीवन और तटीय- सभी तरह की मंजूरी को समेकित करने की जरूरत है।
आम बजट 2022-23 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया कि पर्यावरण की मंजूरी के लिए एक सिंगल विंडो सिस्टम बनाया जाएगा। लेकिन चूंकि इस ऐलान का मकसद बिजनेस को सुगम बनाना है, इसलिए यह फिर से मौजूदा तंत्र को आगे जाकर भेद देगा। इसलिए, पर्यावरण संबंधी मंजूरी के तंत्र को एक ऐसे पैकेज का हिस्सा बनने की जरूरत है जो एक साथ सार्वजनिक भागीदारी और निगरानी की प्रणालियों को मजबूत करे।
दूसरा, जनता की बात का मूल्यांकन किए जाने की जो प्रक्रिया है, उसमें गहराई लाई जानी चाहिए। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि किसी परियोजना को लेकर उससे जुड़े समुदायों की बात सुनने और उनकी आपत्तियों का समाधान किए जाने की प्रक्रिया में उतना ही भ्रष्टाचार है, जितना हमारे किसी दूसरे तंत्र में।
आज की स्थिति यह है कि जन-सुनवाई होती तो है लेकिन उसमें लोगों की बात नहीं सुनी जाती। हमें इस चीज की महत्ता समझनी चाहिए, क्योंकि जब समुदायों की बात सुनी जाती है और उनकी आपत्तियों का निपटारा किया जाता है तो परियोजनाओं से जुड़े खतरों की आशंका कम हो जाती है। इसलिए हमें एक कदम आगे बढ़कर जन-सुनवाई की वीडियोग्राफी करानी चाहिए और इसका जीवंत प्रसारण करना चाहिए।
किसी भी परियोजना का मूल्यांकन करने वाली समिति को यह तय करना चाहिए कि जन-सुनवाई को जरूरी कार्रवाई में शामिल किया जाए और उसे मान्यता दी जाए। इसे सक्षम बनाने के लिए निगरानी और शिकायतों की स्थितियों को जन सामान्य के सामने रखा जाए और उनका निराकरण करने क बाद संबंधित समुदाय को फिर से इसके बारे में बताया जाए।
तीसरा, यह भी जरूरी है कि केंद्र और राज्य के स्तर पर पर्यावरण मूल्यांकन समितियों की समीक्षा की जाए। इन समितियों का कोई चेहरा नहीं होता और न ही यह किसी परियोजना से जुड़ी लोगों की शिकायतों और परियोजना की निगरानी के लिए जिम्मेदार होती हैं। इसके चलते ये समितियां इस पूरी प्रक्रिया की सबसे कमजोर कड़ी हैं।
यह कहना मजाक है कि इन समितियों में शामिल विशेषज्ञ स्वतंत्र होते हैं। दरअसल परियोजना की छानबीन के दौरान लिए जाने वाले फैसलों को लेकर ये समितियां सरकार की जवाबदेही को कम करती हैं।
अब समय आ गया है, जब ऐसी समितियां को भंग कर दिया जाए और परियोजनाओं की निगरानी और उनके मूल्यांकन का काम केंद्रीय और राज्य के पर्यावरण विभागों को करने दिया जाए, जिन्हें इस काम के लिए जरूरी विशेषज्ञता हासिल करने में सक्षम बनाने की जरूरत होगी।
उन सारी परियोजनाओं की सूची जनता के सामने रखी जानी चाहिए, जिन्हें सरकारी मंजूरी दी गई या फिर जिन्हें खारिज कर दिया गया और ये दोनों काम किन स्थितियों के चलते किए गए।
चौथा और सबसे महत्त्वपूर्ण एजेंडा, मंजूरी मिलने के बाद, परियोजना की निगरानी की प्रक्रिया को पहले से ज्यादा मजबूत करना है। इसके लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लेकर तटीय और वन संबंधित संस्थानों तक सभी एजेंसियों के कामकाज को अविभाज्य करना जरूरी है।
वर्तमान में, इन अलग-अलग कामों के लिए कई एजेंसियां हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन फिर भी कमजोर है। शिकायतों के निवारण के लिए हमारा फोकस परियोजनाओं की निगरानी पर होना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते तो परियोजना के प्रभावों का मूल्यांकन करने की इन सारी कोशिशें का कोई मतलब नहीं होगा।
सारे प्रयासों के बावजूद ये सारे उपाय तब तक काम नहीं आएंगे, जब तक किसी परियोजना से जुड़े आधारभूत आंकड़े उपलब्ध न हों और उन्हें सार्वजनिक न किया जाए। इसके लिए परियोजना के पर्यावरण संबंधी तमाम मानकों पर खरे उतरने वाले और पारिस्थितिक महत्व के नवीनतम आंकड़ों को जुटाने की प्रक्रिया को मजबूत बनाना होगा।
इन आंकड़ों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने की जरूरत होगी ताकि जब पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) रिपोर्ट में उनका उपयोग किया जाए, तो उनकी विश्वसनीयता और वैज्ञानिक दृढ़ता का अनुमान लगाया जा सके।
यह सब तभी मुमकिन है, जब हम यह मानेंगे कि किसी परियोजना की छानबीन का कोई महत्व है। नहीं तो पर्यावरण संबंधी मंजूरी एक बेेकार की प्रक्रिया बनी रहेगी और एक के बाद एक सरकार पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर इसका दर्जा गिराती जाएगी और यह केवल नाम भर की चीज रह जाएगी।
(डाउनटुअर्थ से साभार)