— पन्नालाल सुराणा —
टॉलस्टॉय फार्म की स्थापना
बापू ने जोहानिसबर्ग के नजदीक टॉल्सटॉय फार्म बसाया। हिंदू, मुस्लिम तथा ईसाई परिवार वहाँ एकसाथ रहते। खेती करना, फर्नीचर बनाना, चमड़े के जूते सीना आदि काम में गांधी सहित सभी निवासी हाथ बँटाते। बाद में जनरल स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथ से बनायी चप्पल भेंट दी- यह बात भी मशहूर है।
चमड़े का काम करना भी पुरानी हिन्दू परंपरा में अछूतों का काम माना जाता था। शारीरिक श्रम का तिरस्कार तथा गंदगी से जुड़े कामों को घिनौना मानना- यह जाति प्रथा तथा अछूत प्रथा के मूल आधार दिखाई देते हैं। गांधीजी की अवधारणा बचपन से ही इसके विरुद्ध थी। गंदगी साफ करने से लेकर अन्य सेवा तथा वस्तु निर्माण के काम करना, हर स्त्री-पुरुष का कर्तव्य है, उसकी नैतिकता सँजोने में वह मददगार हैं, ऐसे विचार गांधीजी ने अपने लेखों में तथा भाषणों में प्रकट किये हैं।
अहमदाबाद आश्रम का किस्सा
1914 में दक्षिण अफ्रीका से अलविदा होकर गांधीजी भारत लौट आए। परंपरागत तरीके की घर-गृहस्थी चलाना, पैसा कमाने के लिए धंधा करना- यह सब त्याग कर आश्रमी जीवनशैली उन्होंने अपनायी थी। अहमदाबाद में उन्होंने साबरमती के किनारे आश्रम शुरू किया। कई मित्रों तथा हितैषियों ने धन दिया था। आश्रम के बारे में बातें हो रही थीं, तब एक सज्जन ने पूछा- “क्या अछूत जाति के व्यक्ति को आप आश्रम में रहने की इजाजत देंगे?”
“अगर वह आश्रम के नियमों का पालन करनेवाला हो तो जरूर इजाजत दी जाएगी। अछूतपन यह कोई ऐसी बात नहीं, जिसके कारण आश्रम में प्रवेश नकारा जाय।” बापू ने कहा था।
“वैसा करोगे तो धनी लोग आपको चंदा नहीं देंगे।” दूसरे भाई बोले।
“नहीं, तो न सही। हम किसी इंसान को अछूत नहीं मानते, सभी एक ईश्वर की ही संतान हैं।” बापू ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया।
सात-आठ महीने बीत गए। एक दिन उनके पुराने मित्र अमृतलाल ठक्कर की चिट्ठी आयी। जिसमें लिखा था कि “दलित जाति के एक अध्यापक आपके साथ आश्रम में रहना चाहते हैं। बड़े साफ-सुथरे, धर्मपरायण हैं क्या उन्हें आपके पास भेज दूँ?”
गांधीजी ने हाँ भर दी। दूधा भाई अपनी पत्नी दानी बेन तथा लड़की लक्ष्मी के साथ आश्रम आ पहुँचे। उन्हें एक मकान दिया गया।
एक-दो आश्रमवासी नाराज हुए। कानाफूसी करने लगे। बापू ने कह दिया कि वे भले ही आश्रम छोड़कर चले जायं, अछूत प्रथा जैसा भेदभाव मन में रखनेवाले ने आश्रम की सही भूमिका ठीक से समझी नहीं, ऐसा मैं मानूँगा।
बीस-बाईस दिन बीतने पर आश्रम के भंडारी आकर बोलने लगे, “अनाज केवल दो-चार दिन तक ही पुराएगा, पैसे भी नहीं हैं।”
गांधीजी बोले, “यहाँ निर्वाह नहीं हुआ तो हम किसी मजदूर बस्ती में जाकर बसेंगे। मजदूरी कर रोजी-रोटी कमा लेंगे।”
संयोग से एक हितैषी ने चंदा भेज दिया। आश्रम का काम चलता रहा। उसके बाद किसी भी चंदा देनेवाले ने वैसा सवाल नहीं उठाया। आगे सेवाग्राम आश्रम में भी गांधीजी ने अपने घर में एक दलित लड़की को अपनाकर उसका पालन-पोषण किया।
आश्रमी जीवन के लिए जो एकादशव्रत गांधीजी ने निर्धारित किये थे, उसमें स्वदेशी के साथ ‘स्पर्श भावना’ का समावेश किया था। हर आश्रमवासी को उन व्रतों का पालन करना आवश्यक था।
अछूत प्रथा त्याग देनी चाहिए, ऐसे विचार भारत के भक्ति मार्ग के कई संतों ने समाज को सिखाने की कोशिश की। सूरदास, महाप्रभु चैतन्य, रविदास, संत एकनाथ, नरसी मेहता, रामानंद आदि कई नाम गिनाये जा सकते हैं। गांधीजी उसी श्रृंखला की एक कड़ी थे।
सार्वजनिक जीवन में
दक्षिण अफ्रीका से अलविदा कहकर 1914 में भारत लौटने पर गांधीजी ने जिनको गुरु माना था, वे महान नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। उन्होंने उन्हें सलाह दी कि राजनीतिक काम शुरू करने के पहले एक साल पूरे भारत का भ्रमण करो। उसकी समस्याएँ समझ लो। गांधीजी ने वैसा ही किया। दक्षिण भारत के कस्बा मायावरम् में लोगों ने उन्हें भाषण देने का आग्रह किया। अपने भाषण में उन्होंने कहा- “पंचम माने गये कई लोग मुझे मिले। उन पर ऊँची जाति के लोग जो अत्याचार करते हैं, वे सब बातें सुनकर मेरा दिल धधक उठा। इतने बड़े जनसमूह को अछूत मानने की सीख हिंदू धर्म देता होगा, ऐसा मैं नहीं मानता। अगर कोई मुझे शास्त्र निकालकर बता दे कि उस धर्म ने सचमुच अछूत प्रथा का आदेश दिया है तो मैं उस धर्म के खिलाफ बगावत करूंगा।”
धीरे-धीरे गांधीजी कांग्रेस संगठन के तथा भारत की राजनीतिक गतिविधियों में हाथ बँटाने लगे। सन 1917 में कांग्रेस सम्मेलन में अछूत प्रथा निर्मूलन का प्रस्ताव कर्मठ नेता विट्ठलराम शिंदे ने लाया। वह पारित होने में गांधीजी ने मदद की। सन 1921 में कांग्रेस सम्मेलन में रचनात्मक कार्यक्रम का प्रस्ताव गांधीजी ने रखा। उसमें ‘अछूत प्रथा निर्मूलन’ का अंतर्भाव किया गया था। ब्रिटिश साम्राज्यशाही के खिलाफ केवल भाषण देने से काम नहीं चलेगा। हमारे सवाल हल करने के लिए हमें स्वयं अगुवाई करनी चाहिए। देश के लाखोंलाख परिवारों को दो जून का खाना नहीं मिलता। उनके लिए रोजगार का जुगाड़ करना चाहिए। 1919 से गांधीजी ने चरखा चलाना शुरू किया। खादी उद्योग देश भर में चलने लगा। उसमें पच्चीस प्रतिशत से ज्यादा दलित परिवार ही लगे थे। चमड़े की चीजें बनाना, रस्सी बनाना आदि पेशे, जो अछूतों के माने गये थे, उन्हें अच्छे ढंग से चलाने का राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम गांधीजी ने चलाया। दलित बालक-बालिका को शिक्षा मिलनी चाहिए, इस दिशा में छात्रावास चलाने जैसे कई कार्यक्रम चलाए- उनकी प्रेरणा से हजारों युवकों ने स्कूल छात्रावास चलाना, खादी ग्रामोद्योग का काम करना आदि के लिए अपना जीवनदान दिया। मंदिर प्रवेश का अभियान चलाया गया।
आजादी आंदोलन के कार्यक्रमों में सभी जाति व सभी धर्म के स्त्री-पुरुषों को सहभागी होने के लिए प्रेरित किया गया, मानवाधिकार सुरक्षित रखे जाएँ ऐसे प्रस्ताव कांग्रेस सम्मेलन में बार-बार पारित करवाये। बालिग मताधिकार जाति, धर्म, वंश, लिंग किसी भी आधार पर पक्षपात न करके भारत के हर स्त्री-पुरुष को दिया जाए ऐसी भूमिका का सन् 1925 से लेकर अपनी लेखनी तथा वाणी से पुरजोर प्रचार किया। भारत के संविधान में हर व्यक्ति को समान अधिकार, अछूत प्रथा का निर्मूलन, कमजोर वर्गों के लिए विशेष अवसर आदि का समावेश हो सके, इसके लिए पूरे भारत राष्ट्र की मनोभूमिका बनाने में गांधीजी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सन 1946 तथा अपने मृत्यु के दिन 30 जनवरी 1948 को लिखे लेख में भी उन्होंने अछूत प्रथा निर्मूलन का कार्यक्रम कार्यकर्ता कर्मठता से चलाते रहें, ऐसा आह्वान किया, तिस पर चंद दलित नेताओं को गांधीजी की भूमिका के बारे में जो संदेह है, उस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।