— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
(सातवीं किस्त)
कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष बोस ने फारवर्ड ब्लॉक का गठन कर लिया। सुभाष बाबू ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, परंतु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने इससे इनकार कर दिया। सीएसपी तथा कुछ अन्य वामपंथी पार्टियों की मनाही के बाद सुभाष बोस ने लेफ्ट कन्सोलिडेशन कमेटी का गठन किया।
‘वामपंथियों की एकता के नाम पर बनी लेफ्ट कन्सोलिडेशन कमेटी’ में सोशलिस्ट शामिल हों या नहीं, इस सवाल पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में तीव्र मतभेद हो गए। आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण कमेटी में शामिल हो गए परंतु मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, डॉ. लोहिया लेफ्ट यूनिटी के नाम पर कांग्रेस से अलग हटकर किसी ग्रुप में कार्य करने को सहमत नहीं हुए। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की केंद्रीय कार्यकारिणी से अपना इस्तीफा देते हुए स्पष्टीकरण दिया कि…. वामपंथी एकीकरण के प्रति पार्टी का चिपकाव, उन गंभीर मुद्दों को आगे बढ़ाता है जो कि कार्यकारिणी में पकते रहे हैं, ऐसा चिपकाव पार्टी की अब तक की स्वीकृत नीति से उल्लेखनीय रूप से विचलन का चिह्न है।
कांग्रेस में संगठित वामपक्ष का विचार किसी भी तरह से नया नहीं है। बीते बरसों में मानवेन्द्र राय और कम्यूनिस्टों ने ऐसे सुझाव दिए हैं कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी खुद को इस शक्ल में ढाले कि वह वाम-एकता का अंग बन सके। ऐसे सुझावों को पार्टी बेहिचक ठुकराती रही है क्योंकि एक तो अपनी भूमिका की उसकी समझ इनसे भिन्न है। दूसरे यह कि उसे लगता रहा है कि कांग्रेस के भीतर वामपंथी राष्ट्रवादी तत्त्वों के एक संगठन के रूप में ठोस शक्ल लेने से राष्ट्रीय आंदोलन को दो तरह से आघात पहुँचेगा। क्योंकि इससे कांग्रेस कट्टर और परस्पर विभक्त खेमों में बँट जाएगी और इस कारण भी कि इससे क्रांतिकारी तत्त्वों के उभार की प्रक्रिया तीव्र होने के बजाय अवरुद्ध होगी। इसलिए पार्टी का अनवरत प्रयास यह रहा है कि संपूर्ण कांग्रेस को ही प्रभावित एवं आंदोलित किया जाए, इन प्रयोगों में उसे काफी हद तक सफलता मिली है।
पार्टी के भीतर और बाहर के कम्यूनिस्टों का मत इसके विपरीत रहा है उनकी समझ है कि वामपक्ष का गठन अत्यंत आवश्यक है और कांग्रेस की एकता तथा संघर्ष क्षमता में वृद्धि के ये अनुकूल होगा। पिछले कई महीनों से पार्टी उस नज़रिये से हटती हुई दूसरे नज़रिये की ओर सरकती रही है।
सन् 1938 में कम्यूनिस्टों और सुभाष बाबू की ओर से वामपक्ष के कई प्रस्ताव आये। पार्टी ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। सुभाष बाबू के अध्यक्ष फिर से चुने जाने के बाद दक्षिण बनाम वाम का मुद्दा भारतीय राजनीति के अग्रिम क्षेत्रों में तेज़ी से उभरा। तब भी पार्टी की कार्यकारिणी ने फरवरी 1939 में अपनी इलाहाबाद बैठक में वामपक्ष के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अस्वीकार कर दिया।
त्रिपुरी में हमने देखा कि यदि कांग्रेस वाम और दक्षिण हिस्सों मेँ बँट जाती है तो उसके ख़तरे स्पष्ट हैं। दक्षिणपंथी के रवैयों से तथा वामपंथियों में से कुछ की अधीरता और गैर-जिम्मेदारी से यह ख़तरा ज्यादा बढ़ गया। इसलिए पार्टी के लिए यह और ज़रूरी हो गया कि वह दो स्पष्ट खण्डों में कांग्रेस का सघनीकरण रोके और कांग्रेस में ऐसा माहौल बनाने का भरपूर प्रयास करे जिससे गुटबाजी से परे रहकर मुद्दों पर विचार हो सके तथा कांग्रेस के हित, गुटों के हिंतों का पर्याय न मान लिया जाए।
बम्बई में पार्टी ने आखिरकार वामपंथी एकीकरण के सुर में अपना सुर मिला दिया। कार्यकारिणी ने कहा कि पार्टी के तौर पर जरूरत पड़ने पर कुछ शर्तों के साथ हम फारवर्ड ब्लाक से भी जुड़ने को राज़ी हैं। इस तरह अंतत: हमने निश्चयात्मक रूप में एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस के एक हिस्से से अपना तादात्म्य प्रदर्शित किया। यह एक ऐसा निश्चय है जो हमारी राय में अपने राष्ट्रीय आंदोलन के समक्ष ख़तरनाक परिदृश्य उभारता है। कम से कम सामयिक तौर पर पार्टी के भीतर वामपंथी सघनीकरण की प्रवृत्ति ने विजय पा ली है। स्वाभाविक है कि इन ताजे़ फैसलों में निहित नीतियों के पालन की जिम्मेदारी का भार हम उठा नहीं सकते क्योंकि हमारे मत में यह फैसले कांग्रेस विभाजन की ओर ले जाते हैं। इस भावना के साथ हम लोगों ने इस्तीफा दिया है।
वामपंथी गठजोड़ के विरोधी नेताओं की मान्यता थी कि ‘राष्ट्रीय एकजुटता’ ‘वामपथियों की एकजुटता’, ‘समाजवादी एकता’ यह सिर्फ दाव-पेंच वाली घोषणाएँ हैं।
बोस तथा लेफ्ट कमेटी ने 9 जुलाई को एक ‘अखिल भारतीय विरोध दिवस’का आयोजन किया जिसमें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भी हिस्सा लिया। परंतु 17 जुलाई 1939 को जयप्रकाश नारायण ने कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी को एक खत लिखा कि सोशलिस्टों, कम्युनिस्टों तथा बोस को संयुक्त रूप से एक बयान जारी करना चाहिए कि विरोध दिवस आवश्यक तथा न्यायोचित था परंतु कांग्रेस कमेटियों तथा उसके पदाधिकारियों को इससे बाहर रखना ज़रूरी था। साथ ही साथ जयप्रकाश जी ने यह भी कहा “हमारे वामपंथी होने का यह मतलब नहीं कि हम कांग्रेस अनुशासन के सारे दायित्व से मुक्त हैं।”
आल इण्डिया डे में सोशलिस्टों ने भाग तो लिया परंतु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का नजरिया कम्युनिस्टों तथा फारवर्ड ब्लाक से अलग था। इस बात को स्पष्ट करते हुए जयप्रकाश जी ने पेशावर की एक जनसभा में कहा कि हम सोशलिस्ट कांग्रेस में न तो कोई गुटबंदी करना चाहते हैं और न कांग्रेस की पुरानी लीडरशिप को हटाकर उसके स्थान पर मुखालिफ लीडरशिप खड़ी करने का हमारा इरादा है। हमारी चिंता केवल कांग्रेस की नीतियों व कार्यक्रम तक है। हम केवल कांग्रेस के फैसलों को प्रभावित करना चाहते हैं। पुरानी लीडरशिप से हमारे कितने भी मतभेद हों लेकिन हमारा कतई इरादा उनसे लड़ने का नहीं है। हम हर तरह के साम्राज्यवाद के खिलाफ़ अपने साझा जद्दोजहद से कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहते हैं।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने 9 जुलाई को विरोध दिवस मनाने को घोर अनुशासनहीनता करार दिया। इस कारण अगस्त 1939 में सुभाष बोस को तीन सालों के लिए बंगाल कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षता तथा कांग्रेस की किसी चुनी गयी कमेटी की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।
जयप्रकाश नारायण ने इस पर कहा इससे कांग्रेस संगठन की खाई कम होने के स्थान पर और बढ़ेगी।
सुभाष बाबू वाले प्रकरण में सबसे ज्यादा नुकसान सोशलिस्टों को उठाना पड़ा। बंगाल सहित कई राज्यों के कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने नाराज़ होकर पार्टी छोड़ दी। कम्युनिस्टों ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए अपने को मज़बूत कर लिया।
जहाँ कम्युनिस्ट और वामपंथी कांग्रेस का इस्तेमाल वामपंथी विचारधारा तथा अपने संगठन को मज़बूत करने के लिए करना चाहते थे वहीं सोशलिस्ट अपनी विचारधारा का बढ़ाव जिसमें पहला स्थान देश की आज़ादी था तथा वह केवल कांग्रेस और गांधी की रहनुमाई में ही मानते थे। वे कोई भी कार्य ऐसा नहीं करना चाहते थे जिससे कांग्रेस कमजोर हों।
सोशलिस्टों ने सुभाष बाबू का साथ आपसी अलगाव तथा कट्टर गांधीवादियों की नाराजगी झेलते हुए भी दिया परंतु ज्यों ही सुभाष बाबू ने कांग्रेस से अलग हटकर अलग चलने का फैसला किया, सोशलिस्ट उसमें उनका साथ न देने में मजबूर थे।
कम्युनिस्टों तथा अन्य वामपंथी सोशलिस्टों पर विश्वासघात तथा गांधी का गुलाम होने का आरोप लगाने लगे। हालाँकि आचार्य जी तथा जयप्रकाश जी लेफ्ट कमेटी में सुभाष बाबू के कारण गये ज़रूर थे परंतु वे किसी भी कीमत पर गांधी व कांग्रेस पर आक्षेप सुनने को तैयार नहीं थे।
जयप्रकाश जी ने आरोप लगानेवालों से सवाल किया कि “जब हम इस बात से वाकिफ हैं कि वर्तमान लीडरशिप (गांधी-कांग्रेस) के अलावा किसी और लीडरशिप में संघर्ष करने का माद्दा नहीं है तो फिर इस लीडरशिप पर आक्रमण करना उसकी साख घटाना या उसे कमजोर करना क्या पागलपन नहीं है?”
जो वामपंथी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी पर आरोप लगा रहे थे उनको जवाब देते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा “हमें राष्ट्रीय आंदोलन को ध्यान में रखते हुए केवल उन्हीं बातों पर ध्यान देना है जिसमें राष्ट्रीय आंदोलन का पूर्ण हित हो न कि हमेशा ही अपना ढोल पीटते रहना।”