— पन्नालाल सुराणा —
धर्म, वर्णाश्रम धर्म तथा अछूत प्रथा निर्मूलन
‘मैं हिंदू हूं, ऐसा कहने में मैं गर्व महसूस करता हूं।’ ऐसा गांधीजी ने कहा था। वर्णाश्रम धर्म यह एक अच्छा तरीका है, ऐसा उन्होंने 1921 में लिखे एक लेख में कहा था।
फिर भी वे कहते रहे कि मैं अछूत प्रथा के खिलाफ हूं। इतना ही नहीं– हिन्दू धर्म के जो प्रामाणिक ग्रंथ माने जाते हैं, चार वेद, गीता तथा मनुस्मृति, उनमें कहीं भी अछूत प्रथा का समर्थन नहीं मिलता है।
भारत में सदियों से चले आए जातिभेद नष्ट होने चाहिए, सब बराबर के हैं– यह तो गांधीजी की कथनी तथा करनी का महत्त्वपूर्ण सूत्र रहा है।
सतही तौर पर लगता है कि गांधीजी की भूमिका में अंतर्विरोध है। यह सब ठीक से जाँच लेना चाहिए।
और एक बात ध्यान में रखनी चाहिए। गांधीजी का व्यक्तित्व गतिमान था। एक समय एक बात ठीक लगी तो उसको स्वीकार किया। अनुभव, विचारों का आदान-प्रदान, चिंतन आदि के असर से पुरानी भूमिका में सुधार करना जरूरी है, ऐसे लगा तो गांधीजी बिना हिचकिचाए वैसा करते थे। “आपके विचारों में सुसंगति नहीं है। एक बार एक बात कहते, दूसरी बार ठीक उलटा कहते, समझने वाला क्या समझे?” ऐसा कई लोगों ने उनसे पूछा। तब ‘हरिजन साप्ताहिक’ के 29 अप्रैल 1933 के अंक में लिखे लेख में गांधीजी ने कहा –
“समझदार पाठक को मैं कहना चाहता हूं कि अपने विचार या भूमिका में सुसंगति दिखायी देनी ही चाहिए, ऐसी मेरी धारणा नहीं है। सत्य की खोज में मैंने की कल्पनाएँ छोड़ दी हैं तथा बहुत सी नयी बातें अपनायी हैं। उम्र से मैं जरूर बूढ़ा हो गया हूं। लेकिन मैं नहीं मानता कि मेरा अंदरूनी विकास रुक गया है, या हाड़ मांस का विघटन होने पर रुक जाएगा। सत्य जो मेरा ईश्वर है, की पुकार को क्षण-प्रतिक्षण प्रतिसाद देने के लिए सदा तत्पर रहना यह मेरी ख्वाहिश है, अगर किसी को मेरी भूमिका में विसंगति या अंतर्विरोध लगे और अगर मेरी बुद्धि में उसका विश्वास है तो मेरे आखिरी मत को ही वह मेरा असली मत समझे यह ठीक होगा।”
गांधीजी का धार्मिक आचार
वे स्वयं को हिंदू कहलाते थे, यह सही है। लेकिन मंदिर में जाकर मूर्ति पूजा करना, दर्शन करना, आरती करना- आदि सब बचपन से ही छोड़ दिया था। ‘हवेली जाओ’ ऐसा माँ बीच-बीच में टोकती। लेकिन मोहन नहीं मानता था। सन 1901 में वे गया-काशी गये। वहाँ के पंडा लोगों का व्यवहार देखकर वे ऊब गये। यज्ञ, होम-हवन उन्होंने कभी किया नहीं।
आश्रमी जीवनशैली अपनाने पर सामूहिक प्रार्थना का सिलसिला गांधीजी ने शुरू किया। उपनिषद के दो-चार श्लोक पढ़ना, किसी संत का भजन गाना- ऐसी प्रार्थना चलती। ‘रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम, ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान’ –यह भजन गांधीजी को विशेष पसंद था। अपना मन शांत, स्थिर हो, नीति पाठ दुहराया जाय- यह प्रार्थना की खासियत है। दूसरी मार्के की बात यह है कि उसमें पुरोहित को कोई स्थान नहीं। हर व्यक्ति, स्त्री हो या पुरुष, अपने मन के भाव अपनी भाषा में प्रकट कर सकता है। ऊँच-नीच के लिए कोई गुंजाइश नहीं। सब बराबर हैं यह भावना दिलो-दिमाग में पनपायी जाती है। जाति-भेद अछूत प्रथा आदि सब छूट जाय, बरसात होने पर बहते पानी के साथ कूड़ा-कचरा बह जाता है उसी तरह ही प्रार्थना से मन का शुद्धिकरण हो जाता है। सर्वधर्म समभाव पर भी गांधीजी का विशेष ध्यान रहता था।
गांधीजी का ‘ईश्वर’ किसी पारंपरिक धर्म वाला व सम्प्रदाय नहीं है, उन सबके परे है। ‘वह सृष्टि का निर्माता है’ ऐसा भी गांधीजी ने कहीं नहीं कहा है। ‘सत्य’ या ‘न्याय’ यही ईश्वर है ऐसा 1932 से वे लगातार कहते रहे, एक व्यापक उदात्त, मंगलकारी कल्पना ऐसा कह सकते हैं। किसी भी धर्म या संप्रदाय का कर्मकांड उन्हें स्वीकार्य नहीं था। सोचते-सोचते तथा बोलते-बोलते उन्हें कह डाला – जन सेवा ही ईश्वर सेवा है, विशेषतः जो अधिक पीड़ित है उसकी सेवा करना, यही ईश्वर सेवा का सर्वश्रेष्ठ तरीका है। इस विचार प्रणाली में न भेदभाव, न ऊँच-नीच आदि को स्थान है, न पुरोहित वर्ग की जरूरत है। वैदिक परंपरा में ब्राह्मण को धार्मिक कार्य में जो महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, वह गांधीजी को मंजूर नहीं था। विद्यार्जन करनेवाला, शुद्ध आचरण रखनेवाला कोई भी आदमी ब्राह्मण कहलाने योग्य हो सकता है। तथा अन्य किसी को उससे कनिष्ठ मानने की जरूरत नहीं।
वेद तथा गीता में चार वर्णों का जिक्र है लेकिन उन ग्रंथों में कहीं भी अछूत प्रथा का उल्लेख या समर्थन नहीं किया है, ऐसा प्रतिपादन गांधीजी ने बड़ी गंभीरता से किया है। स्वयं को हिंदू-धर्माभिमानी कहलानेवाले गांधी अछूत प्रथा नष्ट करने की बात लगातार करते हैं, यह देखकर वैदिक सांप्रदायिक परंपरा के अभिमानी शास्त्री पंडित चिढ़ जाते थे। उन्होंने गांधीजी को बार-बार कहा कि आप ऐसी बातें कहकर समाज में पाखंड बढ़ा रहे हैं। गांधीजी ने उल्टा सवाल किया- अछूत प्रथा का समर्थन करनेवाला सूत्र किसी वैदिक शास्त्रों में लिखा है क्या? अगर लिखा हो तो दिखाइए। इस चुनौती को स्वीकार कर कोई भी शास्त्री पंडित आगे नहीं आया। वाई.के. तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री, वैदिक साहित्य के जाने-माने पंडित थे। गांधीजी ने उनसे बात की। किसी भी वैदिक शास्त्र ग्रंथ में अछूत प्रथा का जिक्र नहीं है। ऐसा अभिप्राय शास्त्री ने प्रकट किया। मनुस्मृति में शूद्र वर्ण को अन्य तीन वर्णों से हीन माना है, मानवीय अधिकारों से उसे वंचित रखा है, यह सही है। लेकिन शूद्र को अछूत नहीं माना है। ब्राह्मण पुरुष की एक पत्नी ब्राह्मण हो तथा दूसरी पत्नी शूद्र हो तो ब्राह्मण स्त्री से पैदा हुए पुत्र को संपत्ति में ज्यादा हिस्सा मिले, तथा शूद्र पत्नी से पैदा हुए पुत्र को बहुत कम हिस्सा मिले, मनुस्मृति में स्पष्ट प्रावधान है। अगर चातुर्वर्ण्य की कल्पना में अछूत प्रथा का अंग होता तो ब्राह्मण पुरुष को शूद्र स्त्री से विवाह करने की छूट कैसे दी गयी? निम्न वर्ण की स्त्री से कोई पुरुष शरीर संबंध चोरी छुपे रखे, यह बात अलग है। लेकिन ब्राह्मण या क्षत्रिय पुरुष की पत्नियां वैश्य या शूद्र हो सकती थीं, तथा उनसे जनमे पुत्र को वसीयत का अधिकार प्राप्त था, यह बात गंभीरता से समझ लेनी चाहिए। अगर सचमुच वैदिक परंपरा ने अछूत प्रथा का प्रचलन किया होता तो कानून बनानेवाले मनुस्मृतिकारों की यह हिम्मत नहीं होती कि वे अछूत पत्नी से प्राप्त पुत्र को पैतृक संपत्ति की वसीयत दें।
ऐसा दिखायी देता है कि इतिहास में एक वंश या कुनबे के लोगों ने दूसरे कुनबे को जीत लिया तथा कठोर शरीर श्रम के, गंदगी साफ करने के काम करने में लगा दिया होगा। उनके मन में हीनभावना सदा बनी रहे, इसलिए “तुम लोग अछूत हो, तुम्हारी परछाईं भी अछूत है ऐसा कहना तथा बर्ताव करना जैसा कुनबे ने शुरू किया होगा। अछूतों की बस्ती हमेशा मुख्य बस्ती से हटकर दूर बसायी जाती थी। चातुर्वर्ण्य में पक्षपात तथा ऊँच-नीच भाव है यह सही है- वैदिक कर्म करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के पुरुषों को होता था, शिक्षा प्राप्त करने का, संपत्ति धारण करने के अधिकार से भी उन्हें नकारा गया था। दंडात्मक कारवाई में भी ऊँच-नीच थी। अगर ब्राह्मण किसी निम्न वर्ण के व्यक्ति का कत्ल करे तो उसे ज्यादा से ज्यादा देश-निकाले की सजा हो सकती थी, जबकि शूद्र अगर उच्चवर्ग के घर से वस्तु चुरा ले जाय तो उसके हाथ कटवाये जाते थे। मनुस्मृति में इसका पूरा ब्योरा दिया है।
भेदभाव, श्रेष्ठनिष्ठता धर्मपरंपरा के नाम से चलायी जाती थी, जिन्हें अछूत माना गया उन्हें कहीं-कहीं ‘पंचम’ भी कहा गया है। इससे लगता है कि मूल चातुर्वर्ण्य कल्पना में अछूत प्रथा नहीं थी। लेकिन जबसे उसका प्रचलन जेता जातियों ने शुरू किया, तब उसका समर्थन करने के लिए भी धर्म का सहारा लिया गया। कोई अछूत स्त्री उनके आँचल को छू ले तो बूढ़ी माँ चिल्लाती –‘मेरा धर्म डूब गया।’
अछूत प्रथा को धर्मग्रंथों से नहीं, बल्कि रूढ़ि से बल मिला है। ‘शास्त्रात् रूढ़ि बसियसी’ यह एक सूत्र है। अगर कोई परिपाटी चली आयी है तो वह प्रामाणिक मानी जाय, न उस पर उँगली उठायी जाय, न उसमें तब्दीली की जाय।
गांधीजी ने इतना सब विवेचन नहीं किया। लेकिन इतना जरूर कहते रहे कि वैदिक धर्मशास्त्रों में अछूत प्रथा कहीं लिखी नहीं है। यह बात कहकर मुझे स्वयं को हिंदू कहलवाना तथा अछूत प्रथा का विरोध करना, इसमें विसंगति या अंतर्विरोध नहीं है – ऐसा गांधीजी बताना चाहते थे। साथ-साथ मानवीय सहृदयता से जीवनयापन करने की भावना रखनेवाले सवर्ण हिंदू लोग अछूत प्रथा त्याग दें, उससे उनके धर्म पालन में कोई बाधा नहीं आनेवाली है, वे ऐसा इंगित करते थे। सवर्ण जाति के स्त्री-पुरुषों की विवेक बुद्धि तथा मानवीयता जगाना यह तो गांधीजी का ऐतिहासिक कार्य माना जाता है। अछूत प्रथा हिंदू धर्म को लगा प्लेग का रोग है, ऐसा गांधीजी ने कहा है।
वाद-विवाद से गांधीजी को हराना संभव नहीं ऐसा जब कट्टरपंथी पंडितों को लगा तब उन्होंने हमले करना शुरू किया। क्या काशी, क्या पुणे कई जगह गांधीजी पर परंपरावादियों ने जानलेवा हमले वर्ष 1929 से वर्ष 1934 के दरमियान किये।