— पन्नालाल सुराणा —
भारतीय जनता की बढ़ती हुई राजनीतिक एकता में दरार डालने का बीड़ा अंगरेज शासकों ने उठाया था। जनतंत्र प्रणाली में एक चुनाव क्षेत्र में रहनेवाले मतदाता एक ही नुमाइंदा चुनकर भेजें, ऐसी व्यवस्था रहती है। एक ही क्षेत्र में रहनेवाले मुस्लिम मतदाता एक नुमाइंदा, जो मुस्लिम हो, चुनकर भेजें तथा गैरमुस्लिम मतदाता दूसरा नुमाइंदा चुनें, यह तरीका अन्य देशों में नहीं था। चुनाव का इस पूरी राजनीति का धार्मिक भेदभाव से कोई ताल्लुक नहीं रहना चाहिए। सही प्रक्रिया यह है कि पूरे समाज के या किसान मजदूर, व्यापारी, उद्योगपति आदि वर्गों के हितों की रक्षा करने के लिए राजनीतिक पार्टी बनायी जाए, चुनाव में अलग-अलग दल के उम्मीदवार खड़े हों, उनकी नीतियाँ तथा कार्य देखकर मतदाता मतदान करें। धर्म या जाति के कारण किसी को नकारना या चुनना, यह जनतंत्र के लिए बड़ा ही हानिकारक होता है।
अँगरेजों की तो नीति ही थी कि भारतीय प्रजातंत्र को हानि पहुँचाना ताकि अपनी सत्ता बनी रहे। धार्मिक समूह को विधायिका में प्रतिनिधित्व देने का अनूठा कदम अँगरेजों ने भारत में उठाया वैसा न तो इंग्लैंड में है न ही अमरीका या कनाडा में है। पृथक चुनाव क्षेत्र तथा धार्मिक समूह को प्रतिनिधित्व यह अजीबोगरीब व्यवस्था अँगरेजों ने भारत में शुरू की। मुसलमानों की तरफ झुकाव दिखाकर, उन्हें खुश रखना तथा वृहत्तर भारतीय राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने के लिए प्रेरित करना, यह उनका इरादा था।
इंडियन कौंसिल्स एक्ट 1909 में मुस्लिम पृथक चुनाव क्षेत्र का प्रावधान किया गया, लेकिन मतदान का अधिकार डिग्री होल्डर या बड़ी लगान देनेवाले जमींदार काश्तकार या आयकर देने वालों को ही दिया गया था। राजकाज के पूरे अधिकार कार्यपालिका को दिये गये थे। जनप्रतिनिधियों को बहुत सीमित अधिकार दिये गये थे।
इस कानून से राजनीतिक हलकों में बहुत निराशा हुई। होमरूल की माँग जोर पकड़ रही थी, केंद्रीय या कम से कम प्रांतीय स्तर पर कौंसिल में बहुमत प्राप्त करनेवाले दलों को सरकार बनाने का अधिकार, गवर्नर उनके काम में दखल न दे, केंद्रीय स्तर पर भी इसी तरह की व्यवस्था की जाए, जैसी माँगें लोगों की तरफ से रखी जा रही थीं। राजकाज सही मायने में साधारण जनता के हित में चलाया जाय इसलिए जरूरी था कि उन्हें मताधिकार मिले। धनी तबकों तक उसे सीमित रखना पसंद नहीं था।
होमरूल के अधिकार अँगरेजों ने कनाडा, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों को दिया था। वहाँ की सत्ता गोरे लोगों के हाथ में ही जानेवाली थी। भारत को होमरूल दिया जाता तो सत्ता सूत्र काले आदमी के हाथों में चला जाता, अँगरेजों को वह नहीं भा रहा था।
अँगरेजों ने भारतीय जनता को राजनीतिक अधिकार तो बहुत कम दिये, ऊपर से मुस्लिम पृथक चुनाव क्षेत्र का रोड़ा भी डाल दिया। अँगरेजों ने मुसलमानों को बहुत कुछ दिया, यह कहकर कई हिंदू नेता आग-बबूला हो गये। 1908 में हिंदू महासभा की स्थापना हुई। जनता के अन्य सवालों पर कांग्रेस को छोड़कर अन्य दल विशेष सक्रिय नहीं थे। मुस्लिम पृथक चुनाव क्षेत्र दिये जाने पर कांग्रेसी नेता भी नाराज थे। इससे अलगाववादी ताकतें बढ़ेंगी तथा देश की एकता को खतरा पैदा होगा, ऐसा उनका मानना था। उस समय मोहम्मद अली जिन्ना भी कांग्रेस में थे। 1915 के लखनऊ कांग्रेस से जो हुआ सो हुआ, अँगरेजी सत्ता के खिलाफ राजनीतिक शक्ति जुटाने के लिए मुसलमान तथा हिंदू साथ-साथ चलें- की नीति अपनायी गयी। मुस्लिम पृथक चुनाव क्षेत्र पर सहमति दर्शानेवाला प्रस्ताव तो तिलक की अगुवाई में ही पारित किया गया। अन्य राजनीतिक अधिकारों का माँग जोर-शोर से की गयी।
1914 में यूरोप में पहला विश्वयुद्ध छिड़ गया था। अँगरेज सरकार जर्मनी के खिलाफ लड़ रही थी। ऐसे समय में हमें उनको पूरा सहयोग देना चाहिए ऐसा कांग्रेस ने भी माना था। युद्ध समाप्ति के समय मांटेग्यु–चेम्सफोर्ड समिति का गठन किया गया। उनके समक्ष राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी माँगें रखीं। लोक प्रतिनिधि को व्यापक अधिकार दिये जाएँ। प्रांतीय सरकारों को ज्यादा अधिकार तथा साधन देने की माँग पर जोर दिया जा रहा था। दलितों को सरकारी नौकरियों में खासकर फौज तथा पुलिस में भर्ती न करने की नीति बदली जाए, ऐसी भी माँग की जा रही थी।
1918 में पहला विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार कानून 1919 में पारित किया। उसमें प्रांतीय असेंबली में कुछ वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया। मिसाल के तौर पर, मुंबई असेंबली में मराठा जाति को पाँच, मजदूर वर्ग को दो तथा दलित यानी डिप्रेस्ड क्लासेस को एक सीट दी गयी। मजदूर तथा डी.सी. सदस्य की नियुक्ति सरकार करनेवाली थी। जनता को बहुत कम अधिकार देने की नीति दुबारा समाज के सामने आयी।
उसी साल सरकार ने अखबारों पर कई पाबंदियाँ लगानेवाला रौलेक्ट एक्ट पास किया। उसके खिलाफ महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। पंजाब में फौजी अफसरों ने दमन का कहर बरपाया। सैकड़ों स्त्री-पुरुषों की निर्मम हत्या करनेवाला जलियांवाला बाग कांड हुआ। सरकार के खिलाफ असंतोष की लहर देश भर में फैल गयी। कई गाँवों-शहरों में छोटे-बड़े आंदोलन चलने लगे। उसी समय तुर्की में अँगरेजों ने खिलाफत रद्द करने का कदम उठाया। जर्मनी के खिलाफ लंदन में तुर्की का साथ देते समय जो बातें अँगरेजों ने कबूल की थी, उनको पाँव तले रगड़ते हुए तुर्की के सत्ताधीश को निर्ममता से हटाया। दुनिया भर के मुसलमानों में नाराजगी की लहर उठी। भारत में खिलाफत आंदोलन खड़ा हो गया। गांधीजी ने अली बंधुओं के साथ मिलकर उस आंदोलन को बढ़ावा दिया।
सन् 1920 से 1930 का दशक राजनीतिक सरगर्मी का रहा। देश की जनता ब्रिटिश राज के खिलाफ शांतिमय ढंग से लड़ने को एकजुट हो रही थी। 1919 के भारत सरकार कानून में दिये गये अधिकारों से राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता असंतुष्ट थे। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में 1925 में प्रकाशित एक लेख में कहा कि समाज की सेवा करनेवाले हर बालिग स्त्री-पुरुष को मताधिकार मिलना चाहिए। केंद्र तथा प्रांतीय स्तर पर जिम्मेदार हुकूमत चलाने का प्रावधान होना चाहिए। मुस्लिम पृथक चुनाव क्षेत्र के खिलाफ नाराजगी तो थी ही। जनता की मॉँगों पर गौर करने के लिए सरकार ने साइमन कमीशन का गठन किया। उसमें सभी अँगरेज सदस्य ही नियुक्त किये गये थे। इस कारण कांग्रेस ने उस कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला किया तथा भारत के संविधान की रूपरेखा तय करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में ऑल पार्टी कमेटी का गठन किया।
अपनी पढ़ाई पूरी कर डॉ. बी.आर. आंबेडकर 1923 में इंग्लैंड से भारत लौटे थे। कुछ महीने बड़ोदरा रियासत में काम करने के बाद वे मुंबई में बसे। सरकारी लॉ कॉलेज में प्रोफेसरी करने के साथ अदालत में वकालत करने लगे। साथ ही दलितों पर होनेवाले अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाना शुरू किया। सरकार ने उनको लेजिस्लेटिव असेंबली में नियुक्त किया। मताधिकार तथा चुनाव क्षेत्र संबंधी विचार करने के लिए नियुक्त साडथबरो कमेटी के समक्ष उन्होंने अपना बयान दिया। साइमन कमीशन की नियुक्ति का स्वागत करते हुए बाबासाहब ने कहा कि “अच्छा हुआ कि उसमें कोई भारतीय सदस्य नहीं है। हम पिछड़े तबके के लोगों को उनसे कतई न्याय नहीं मिलनेवाला है। ब्रिटिश सत्ताधीशों की जिम्मेदारी है कि वे हमें मानवीय अधिकार दें तथा ऊँची जाति के लोगों से किये जानेवाले अन्याय से मुक्ति दिला दें।”
साइमन कमीशन के समक्ष उन्होंने अपना निवेदन रखा। जाति, धर्म, वंश, लिंग आदि किसी भी कारण से भेदभाव न करते हुए सभी बालिग स्त्री-पुरुषों को मताधिकार मिले, पिछड़ों के लिए आरक्षित सीटें, केंद्रीय तथा प्रांतीय असेंबलियों में रखी जाएँ। सरकारी नौकरी, खासकर पुलिस तथा फौज में उन्हें भर्ती किया जाय आदि माँगें उन्होंने रखीं। यह विशेष रूप से नोट करने की जरूरत है कि पिछड़ों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र की माँग उन्होंने अपने लिखित निवेदन में नहीं रखी थी। कमीशन ने उन्हें अपने समक्ष बुलाया। एक सदस्य ने पूछा, “अगर बालिग मताधिकार नहीं दिया जाता है तो आप क्या करेंगे?”
बाबासाहब ने कहा- ‘हम दरख्वास्त करते रहेंगे।’
सदस्य ने फिर पूछा- ‘क्या आप पृथक चुनाव क्षेत्र नहीं माँगेंगे?’
बाबासाहब ने कहा- ‘हाँ, वह माँग भी रखेंगे।’
सन् 1929 में मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। उसे शीर्षक दिया गया था ‘एंटी सेपरेटिस्ट मॅनिफेस्टो’ यानी अलगाववाद के खिलाफ घोषणापत्र। केंद्रीय तथा प्रांतीय स्तर पर जिम्मेदार हुकूमत का ढाँचा खड़ा किया जाए, जाति, धर्म, वंश, लिंग आदि किसी भी कारण से भेदभाव न करते हुए सभी बालिग स्त्री-पुरुषों को मताधिकार दिया जाय, व्यक्ति के मानवाधिकार की रक्षा करने की जिम्मेदारी शासन पर डाली जाय आदि सिफारिशें उस रिपोर्ट में की गयी थी। उस रिपोर्ट का स्वागत करनेवाला लेख बाबासाहब ने अपने ‘बहिष्कृत भारत’ अखबार में 18 जनवरी 1929 को लिखा था। उसी लेख में बाबासाहब ने लिखा था “फिलहाल जो व्यवस्था चल रही है उसमें सबसे आपत्तिजनक कोई बात है तो मुस्लिमों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र। नेहरू कमेटी ने दो महत्त्वपूर्ण तब्दीलियाँ सुझायी हैं, पहली बात पृथक नहीं, आरक्षित चुनाव क्षेत्र, तथा दूसरी, मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में ही सीटें देना।”
“डॉ. आंबेडकर का मानना था कि पृथक चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था स्वस्थ प्रजातंत्र तथा भावनात्मक एकता को नुकसान पहुँचाने वाली है। साइमन कमीशन को 17 मई 1929 को दिये अपने दूसरे ज्ञापन में उन्होंने लिखा था- जिन देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं उनमें भारत अकेला नहीं है। बुलगारिया, ग्रीस, रूमानिया, यूगोस्लाविया, रूस आदि देशों में भी वैसी स्थिति है। लेकिन वहाँ कहीं भी उनके लिए पृथक चुनाव क्षेत्र नहीं है।”
साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट 1929 के अंत में सरकार को सौंपी। उसमें 1909 तथा 1919 की व्यवस्था यानी मुस्लिमों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र चालू रखने की तो सिफारिश की, लेकिन पिछड़े वर्गों के लिए वैसी सिफारिश नहीं की गयी थी। बालिग मताधिकार की माँग मंजूर नहीं की गयी। इस पर डॉ. आंबेडकर ने टिप्पणी की थी, लेकिन पिछड़ों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र नहीं दिया गया, इस बात पर उन्होंने नाराजगी नहीं दिखायी।
साइमन कमीशन की रिपोर्ट में बालिग मताधिकार केंद्र तथा प्रांतों में जिम्मेदार मंत्रिपरिषद कार्यपालिका का काम सँभाले, नागरिक के मानव अधिकारों की रक्षा आदि बातें भी नहीं थीं।