निराशा के कर्तव्य : तीसरी किस्त

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Ram manohar lohia
(23 मार्च 1910 - 12 अक्टूबर 1967)

— राममनोहर लोहिया —

ब अंतरराष्ट्रीय निराशा वाली बात। जिस तरह से आज का संसार चल रहा है, उसमें मुझे निराशा की दो खास बातें रखनी हैं। एक, हथियार और लड़ाई की, और दो, मशीन की। आज गोरा संसार ही दुनिया का मालिक है। हम भी उन्हीं की नकल कर रहे हैं, नकल करते वक्त  चाहे समझें नहीं, ठीक तरह से न कर पाएं। उसकी सबसे बड़ी विशिष्टता मशीन है। उसके पास जबरदस्त क्रांतिकारी इंजीनियरी, और मशीन विद्या, और मशीन का बदलाव है। वह बहुत पिटी-पिटाई मिसाल ही दे रहा हूँ जो हमेशा स्कूल की किताबों में लिखी जाती है कि हिंदुस्तान का तो हाल जो आज है, वह दो हजार बरस पहले भी ऐसा ही था। उसमें कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ जबकि यूरोप वालों की मशीन रोज नहीं तो हर साल इतना जरूर बदल जाती है कि उससे 2, 3, 7 या 10 सैकड़े की पैदावार में वृद्धि हो जाती है तो उसका कारण यह नहीं है कि मनुष्य में बहुत ज्यादा बुद्धि आ गयी है। बुद्धि इस माने में आयी कि मशीन ज्यादा सुधर गयी।

आज यूरोप और अमरीका में, खासतौर से अमरीका और रूस में, मशीन, मुझे लगता है, कुछ ऐसी एक स्वयंसिद्ध, स्वयंचालित चीज हो गयी है कि जरूरी नहीं है कि वहाँ बहुत बड़े वैज्ञानिक हों, बहुत बड़े बुद्धिमान हों। वह प्रथा ही ऐसी है, संगठन ही ऐसा है कि उसमें हर साल 40-50 हजार लड़के-लड़कियाँ विज्ञान पढ़ेंगे, इंजीनियर बनेंगे, खोज करेंगे। फिर किसी पूँजीपति के यहाँ उनको नौकरी मिलेगी। जितने भी बड़े-बड़े पूँजीपति हैं, वैज्ञानिकों को नौकर रखते हैं, हमेशा ढूँढ़ने के लिए कि कोई नया रास्ता निकालो, कोई नयी मशीन निकालो, कोई नया सिलसिला निकालो कि जिससे हम अपनी पैदावार बढ़ा दें, खर्चा कम हो, पैदावार ज्यादा हो जाए। राज्य भी ऐसे लोगों को नौकर रखता है। ऐसे 40-50 हजार लोग हर साल तैयार होते हैं। रूस और अमरीका में 10-15 लाख आदमी खाली इस काम में लगे हुए हैं कि कैसे नित नये तरीके और औजार बनाये जाएँ। यह अद्भुत बात है आज के संसार की। ये कोई चीज पैदा नहीं करते, नित नये औजारों पर खाली प्रयोग करते रहते हैं।

नतीजा यह है कि पैदावार बढ़ती चली जाती है। कुछ लोगों के दिमाग में एक अनुमान-सा है कि अगर यह सिलसिला टूटा नहीं तो संसार में या कम से कम इस गोरे संसार में चीजों की पैदावार इस बड़े पैमाने पर हो जाएगी कि फिर खरीदने और बेचने की जरूरत नहीं रहेगी। खरीदने-बेचने की तो तभी जरूरत होती है जब चीजें कम होती हैं और जरूरत ज्यादा होती है। मान लो इतनी चीजें बनने लग जाएँ, इतना कपड़ा बनने लग जाए, इतने मकान बनने  लग जाएँ, इतना दूध बनने लग जाए कि पूरी जनता को मिल जाए तो खरीदने-बेचने की कहाँ जरूरत होगी? अब ये लोग स्वप्न देखने लगे हैं कि मशीन और वैज्ञानिक सिलसिले इतने बढ़ जाएंगे कि प्रायः सभी चीजों की पैदावार इतनी उन्मुक्त हो जाएगी। रूस वालों ने कहा है कि 20 बरस बाद हम सबके लिए रोटी मुफ्त कर देंगे और शायद मकान के लिए भी कही है, बिजली वगैरह मुफ्त कर देंगे, ट्राम में या बस में आना-जाना आदि सब मुफ्त हो जाएगा। तो यह कोई बड़ी अद्भुत चीज नहीं है। अमरीका चाहे तो आज भी दूध मुफ्त कर सकता है, रोटी मुफ्त कर सकता है। पर वह खुद करना नहीं चाहते, क्योंकि उसकी सारी पद्धति पूँजीवादी ढाँचे पर खड़ी है।

यह तो आशा की चीज हुई, लेकिन फिर भी इसमें एक जबरदस्त निराशा यह है कि जितनी ज्यादा चीजें बढ़ रही हैं, उतना ही ज्यादा मन, मन को तो बाद में लेना, उनका स्वरूप बदलता चला जा रहा है। सब चीजें एक जैसी हो रही हैं, संगीत एक जैसा, नाचना वगैरह एक जैसा, कपड़े-लत्ते एक जैसे, चेहरे भी करीब-करीब एक जैसे। इस गोरी दुनिया के जीवन में इतनी सादृश्यता आ रही है। बिल्कुल एक-जैसा-पन आ रहा है कि लोगों का मन ऊबने लग गया है और वे सोचते हैं कि इनसान खुद एक मशीन बन जाएगा, उसमें अनोखापन नहीं रहेगा। जैसे यूरोप वाले चेहरे हैं, इसमें कोई शक नहीं कि सब खूबसूरत होते जा रहे हैं। शुरू-शुरू में देखो तो बड़ा अच्छा लगता है। खूबसूरती के, श्रृंगार के, जो भी साधन हैं वे तो यूरोप ने खूब बढ़िया निकाल लिये हैं। वैसे, श्रृंगार के साधन हर जमाने में रहे हैं लेकिन बड़े लोगों के लिए रहे हैं, जैसे बड़ी-बड़ी रानियाँ, महारानियाँ, दूध में नहाया करती थीं, मलाई मलकर अपने चमड़े को साफ किया करती थीं। गोरी दुनिया में आज श्रृंगार की चीजें हरेक के लिए संभव हो गयी हैं। नतीजा यह है कि हरेक औरत का चेहरा खूबसूरत बन रहा है, बहुत एक-सा-पना आ रहा है। ऐसा लगता है कि दो, चार, दस बरस तक अगर लगातार उन चेहरों को देखते रहो तो सचमुच अजीब-सा बे-मतलब-पना, मालूम पड़ेगा। चेहरे की चीनी तो बढ़ती चली जा रही है, लेकिन नमक घटता चला जा रहा है।

सभी चीजों पर जो बाहुल्य या भरपूर जमाना आ रहा है, उसका असर पड़ रहा है। फ्रांस के किसी विश्वविद्यालय का एक विद्वान प्राध्यापक है, उसने बहुत अध्ययन किया है और इसके लिए वह दुनिया भर में मशहूर है। उस आदमी से हालांकि मैंने इस पर बहस की थी लेकिन मुझको लगता है कि उसके कहने में बहुत बड़ा सत्य है। उसका कहना है कि अब दुनिया को बचा नहीं सकते क्योंकि यह चौतरफा जो साम्राज्य छाने वाला है बे-मतलब-पने का, सब लोग एक जैसे जो होनेवाले हैं, कहीं कोई बुद्धि नहीं रहेगी। उस विद्वान का कहना है कि रेडियो बढ़ता चला जा रहा है, टेलीविजन बढ़ता चला जाएगा और करोड़ से जब 3 अरब आदमी इसको सुनेंगे, नाच देखेंगे तो लाजिमी तौर से उस सब 3 अरब की भूख को जो सबसे आसान और गंदा संगीत या नाच है, वही मिटाएगा। मशीन या विज्ञान या भरपूर दुनिया आनेवाली है, उसके बारे में मोटे तौर से यह निराशा की बात है।

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