— राममनोहर लोहिया —
मानवीय निराशा के बारे में एक मोटी-सी बात बता दूँ कि जैसे-जैसे संगठन मजबूत बनता है, शक्तिशाली बनता है, वैसे-वैसे वह लबड़-घोंघो भी बनने लग जाता है। समाज का प्रायः यह नियम मालूम होता है कि पहले तो शक्ति बढ़ाओ, देश बनाओ और जब शक्ति बढ़े तो आदर्शवादिता कम हो जाती है। हरेक संगठन में यह पेच मालूम पड़ता है। कोई पुरानी भाषा का विद्वान इसी बात को कहेगा कि यह काल की गति है और समय सब सड़ा दिया करता है और बुढ़ापे में दुर्गंध है, निर्बलता है। यह खाली व्यक्ति नहीं, बल्कि देश और संगठन के मामले में भी कुछ ऐसा पेच लगा हुआ है।
इसी नियम या सिद्धांत को मैं सत्याग्रह के ऊपर लागू करता हूँ। समाजवादी दल कोई बहुत सत्याग्रही दल है, ऐसी बात नहीं, हालांकि दुश्मन या विरोधी लोग कहते हैं। हम लोगों ने बहुत कम सत्याग्रह किया है। और जो किया वह बहुत अच्छा भी नहीं किया, लेकिन थोड़ा-बहुत किया। मुझे ऐसा लगता है कि इस सत्याग्रह को और मजबूत बनाने के लिए तबियत यही होती है कि समाजवादी दल बहुत मजबूत बने तो बढ़िया होगा। उसके साथ-साथ, दिमाग में यह भी बात उठती है कि जब तक यह छोटा है, कमजोर है, तब तक तो यह किसी तरह से अपने सदस्यों को समझा लेता है कि चलो, अन्याय से लड़ो, और जब यह मजबूत होने लग जाएगा, शक्तिशाली होने लग जाएगा, तो दल के लोगों का ध्यान अन्याय से ल़ड़ने के बजाय उस जगह के ऊपर जाएगा जहाँ से न्याय निकला करता है।
किसी पर कोई कटाक्ष वगैरह नहीं करना चाहता हूँ और न ही यह चाहता हूँ कि आप कटाक्ष करो। यह दृष्टि का फेर है। एक तो अन्याय से लड़ाई और दूसरा न्याय का निर्माण, जो गद्दी पर बैठनेवाले हों, वे सच्चे हों, अच्छे लोग हों तो उनकी यह तबियत हो जाती है। थोड़ी देर के लिए मान लो कि समाजवादी दल बूढ़ा हो जाए, उस ढंग से नहीं कि इसमें दुर्गंध आ जाए या वह निर्बल बन जाए, यह अपनी आदर्शवादिता को कायम भी रखे, लेकिन जैसे ही इसकी काया बढ़ने लगेगी, वैसे ही इसका ध्यान सत्याग्रह से हटकर न्याय के निर्माण की तरफ जाएगा। गद्दी पर बैठो, वहाँ से कानून बनाओ, वहाँ जाकर मजदूर किसान को राहत दो। संसार में कुछ ऐसा पेच है कि लाजिमी तौर से दृष्टि का हेर-फेर हो जाता है।
ऐसी सब चीजें भुगती जा चुकी हैं, एक तो इतिहास में, और दूसरे, हम लोग अपने जमाने में ही भुगत चुके हैं, कांग्रेस का जमाना देख लिया। इसीलिए आदमी के मन में यह सब बातें तो आ ही जाती हैं कि शायद अपनी भी पार्टी का यह जमाना देखने को मिलेगा कि अभी तो सत्याग्रह की थोड़ी-बहुत इच्छा है, बाद में शायद यह इच्छा भी न रहे। खासतौर से जहाँ विधायकों की तादाद बढ़ जाएगी, वहाँ तो दूसरी चीजें, और दूसरी गद्दियाँ सामने आ जाएंगी। तो यह मैंने आपका ध्यान कुछ मानवीय कमजोरियों की तरफ खींचा। कमजोरी नहीं, उसको पेच कहो और ऐसे पेच कि जिनको खोलना असंभव-सा मालूम होता है। हाँ, संगठन और देश के बारे में इतना मैं जरूर कह दूँ कि जहाँ एक तरफ काल में, समय में, सड़ान, दुर्गंध, निर्बलता मालूम पड़ती है, वहाँ दूसरी तरफ आदमी यह भी सोच सकता है कि सड़ेगा तो कोई बात नहीं, दूसरा उसकी जगह पर आ जाएगा। इसलिए उससे इतना निराश होने की जरूरत नहीं। लेकिन, फिर वह एक तरह का चक्र ही हो गया और वह चक्र निरंतर चलता रह गया तो थोड़ी-बहुत तो निराशा का कारण उसमें भी अपने-आप आ ही जाता है।
इसी पृष्ठभूमि में और खासतौर से राष्ट्रीय निराशा वाली पृष्ठभूमि कि आलसी, निकम्मे, झूठे, साथ में भोग वाला युग और 1500 बरस से झुक जाने की तबियत है, तो मामला बहुत ही दुखद-सा प्रतीत होने लगता है। इसके साथ जब मनुष्य की, दुनिया की दूसरी गतियों की तरफ ध्यान देते हैं, जो थोड़ा-बहुत मैंने बताया, तो तसवीर कोई बहुत मजेदार नहीं रहती। फिर भी, मैंने अक्सर कहा है और लिखा है, जिस पर हमारे लोगों ने भी ध्यान नहीं दिया होगा कि यह मानते हुए भी कि हमारे कामों में सफलता नहीं लिखी हुई है- सफलता का तात्कालिक अर्थ में, गद्दी वाले अर्थ में- और गद्दी मिल जाने के बाद भी अपने उद्देश्यों को, आदर्शों को हासिल करने में भी हमारी किस्मत में हार लिखी हुई है, फिर भी अपने कर्तव्य को करते रहना है।
कुछ थोड़ा-सा अपने मन को फुसलाने के लिए मैंने यह भी सोचा है कि अगर ज्यादा लोग इस किस्म के हो गए कि वे मान लें कि हार तो है, गद्दी मिलेगी नहीं और अगर मिल भी गयी तो आदर्शवादिता छूट जाएगी। और अगर इस संकट को वे पहचान लें और सचेत होकर कुछ ऐसी कार्यवाहियाँ शुरू करें तो फिर शायद कभी गद्दी मिल भी जाए, पहले प्रयोग में न सही, दूसरे, तीसरे, चौथे प्रयोग में, कभी न कभी मिल जाए। तब संभवतः यह हार का दर्शन कभी जीत वाला भी हो जाए। जैसा मैंने कहा, हो सकता है कि वह मन को फुसलाने वाली बात हो और यह भी हो सकता है कि यह एक बहुत बड़ा भारी तर्क हो। इसीलिए कुछ समय पहले मैंने कहा था कि समाजवादी दल की राजनीति में एक तरफ तो है सत्ता-प्राप्ति या नेतागीरी और दूसरी तरफ है पैगंबरी।
सत्ता-प्राप्ति की सप्तवर्षीय योजना को लेकर हम पर खूब बौछारें पड़ी थीं जो बिल्कुल ही बेमतलब थीं क्योंकि वह कोई भविष्यवाणी तो थी नहीं, वह तो संकल्प था, इरादा था कि सात वर्ष में गद्दी लेने की कोशिश करेंगे। लेकिन लोगों ने संकल्प और भविष्यवाणी के फर्क को नहीं समझा या समझते हुए हमारे ऊपर बौछारें कीं कि देखो, ये तो कहते थे कि 7 वर्ष में गद्दी लेंगे, क्या लिवा के छोड़ा। तभी हमने बात कही थी कि समाजवादी दल के सोचने का अगर मकसद खाली राजनीति होता, सत्ता-प्राप्ति होता, नेतागीरी होता, तो शायद गद्दी के मामले में सफलता थोड़ी-बहुत ज्यादा मिलती, लेकिन मुश्किल यह है कि उसके साथ पैगंबरी भी जुड़ी हुई है, समाज परिवर्तन भी जुड़ा हुआ है।
हो सकता है, हमसे थोड़ी-बहुत गलती इस मानी में हुई कि एक सफल राजनीतिज्ञ तो नेतागीरी और पैगंबरी वाला हिस्सा कुछ ज्यादा रहा। लेकिन उसपर भी जब सोचने लगो तो जो कुछ व्यक्ति– अभी मैं दल की बात नहीं करूँगा– इतिहास में हुए हैं, ज्यादातर दुनिया को मोड़ देनेवाले वही व्यक्ति हुए हैं जिनमें राजनीति के मुकाबले में पैगंबरी का हिस्सा ज्यादा रहा।