निराशा के कर्तव्य : सातवीं किस्त व अंतिम किस्त

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Ram manohar lohia
(23 मार्च 1910 - 12 अक्टूबर 1967)

— राममनोहर लोहिया —

प कह सकते हो कि शुरू से आखिर तक मैंने सब निराशा वाली बात कह डाली, इसमें कर्तव्य कहाँ है। कर्तव्य तो उसके साथ ही जुड़ा हुआ है। जब मैं निराशा की परिभाषा कर रहा था, उसके अंदर कर्तव्य था। और सब कर्तव्य, जैसे मजदूर संगठन या दाम बाँधो आंदोलन की बात न करके, मैं खाली विद्यार्थी या युवक आंदोलन की बात करूँगा क्योंकि यह शिविर समाजवादी युवक सभा का है। हँसी-मजाक के तौर पर नहीं, या हमेशा के रोने-झींकने की तरह नहीं बल्कि सचमुच गंभीरता से सोचो कि क्या बात है कि पिछले 10, 12, 15 बरस में हम कोई चीज कर ही नहीं पाए। सबसे बड़ा कारण यह है कि कांग्रेसी सरकार इस बात में सफल हो गयी कि उसने इस भोग युग में लड़कों का ध्यान सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तरफ इस खूबी से बढ़ा दिया कि बुद्धि वाले या दिमागी कार्यक्रम, विचार के और सिद्धांतों के कार्यक्रम ओझल हो गए, पिछड़ गए।

सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाच-गाना, संगीत वगैरह बड़ी अच्छी चीजें हैं बशर्ते कि ये दो नंबर पर हों। पहले नंबर पर दिमागी बहस, सिद्धांत विचारों की उथल-पुथल और उधेड़बुन यह सब होना चाहिए। लेकिन विद्यार्थियों का दिमाग इस चीज से हटाया गया है और मुझे कुछ लगता है कि शायद कहीं कोई बहुत जबरदस्त योजना बनानेवाला आदमी रहा होगा या 2-3 आदमी रहे होंगे, जिन्होंने आजाद हिंदुस्तान के भोगयुग में विद्यार्थियों का ध्यान दिमागी बातों से हटाकर ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम की बात पर लगा दिया। इसको सांस्कृतिक कहना चाहिए या नहीं, यह बात अलग है। कई दफे तो मैं सांस्कृतिक शब्द सुन करके यह जानना चाहता हूँ मतलब क्या है इस तरह के कारण आप और भी ढूंढ़ सकते हो।

विद्यार्थी आंदोलन, विद्यार्थी संगठन, समाजवादी युवक सभा का आंदोलन या संगठन किस नाम से आप करते हो, इस बहस में आप फँस जाया करते हो। यह बहुत मामूली बहस है। मैं नहीं समझता कि समाजवादी शब्द कोई इतना अप्रिय शब्द है फिर भी ज्यादातर विद्यार्थियों को वह खीच नहीं सकेगा। इन नामों के ऊपर कुछ आना-जाना नहीं है। असली चीज है कि किन कार्यक्रमों को लेकर आप जवान आदमियों को और विद्यार्थियों को न्यौता देते हो। किस नाम से देते हो यह छोटी बात है। हो सकता है कि समाजवादी युवक सभा या हो सकता है कि जब आपका आंदोलन चलने लगे तो खुद-ब-खुद कोई नाम सामने आ जाए और वह मजबूत बन जाए।

इन सभी बातों पर जरा मेहनत से सोचकर कुछ निराशा का कर्तव्य निकालना। हमारे लिए तो वह निराशा का कर्तव्य होगा, लेकिन जो तसवीर है उस हिसाब से तो नौजवान लोगों को बहुत आशावान होकर अपना कर्तव्य करना चाहिए, ताकि कुछ चीज बन-बना जाए। उसके लिए अवस्था भी पैदा हो रही है।

जात-पाँत को तोड़ने के लिए कौन-सा तरीका और आंदोलन हो? मैं खाली गिनाए देता हूँ, क्योंकि यह विषय अलग होगा। इस वक्त जात-पाँत पर हमारा चौतरफा हमला है। धार्मिक, जो बहुत असरे से चला आया है, हजारों बरस से, क्योंकि जहाँ एक तरफ जाति को बांधने वाली, मजबूत करने वाली धार्मिक सूत्रों की धाराएं वगैरह हैं, वहाँ जाति को तोड़ने वाली भी हैं। वह बहस चलती रहेगी, जिसे स्वामी दयानन्द ने चलाया। और, इसमें कोई शक नहीं कि स्वामी दयानन्द जैसों ने जाति तोड़ने के लिए बहुत जबरदस्त काम किया। एक तो यह धार्मिक हमला हुआ। मुझे एक खतरे से आगाह कर देना है कि आम तौर से जाति तोड़क जितने लोग हैं, वह अपनी बहस को धार्मिक और पौराणिक ही रख दिया करते हैं जबकि इस बहस में 100 मिनट में से मुश्किल से 10 मिनट ही लगाना चाहिए।

दूसरा हमला है आर्थिक। साढ़े छह बीघे की खेती से, अलाभकर जोत से लगान खत्म करना। ज्यादातर छोटी जाति के हैं, जो सचमुच बहुत ही छोटी जाति वाले लोग हैं वे लोग इसमें आते हैं, उनको आर्थिक मामलों में कुछ ऊंचा उठाओ और उनकी अपनी आँखों में खुद की इज्जत बढ़े, आत्मसम्मान जगे। साढ़े छह एकड़ वाली बात, या खेतिहर मजदूर की मजदूरी बढ़ाने वाली बात, या ऊँची से ऊँची आमदनी या नीची से नीची आमदनी के बीच में एक मर्यादा बाँधनेवाली बात।

उसी तरह से तीसरा हमला है सामाजिक। इसका रोटी क साथ खाने वाला अंग तो हिंदुस्तान में कई सौ बरसों से चला आया है।

एक दफे हैदराबाद में हम लोगों ने यह काम किया। वही 30-35 आदमी जो हमेशा एक साथ खाते हैं वे ही इकट्ठा हो जाएँ तो कोई असर पड़ेगा नहीं, लेकिन 4 हजार, 10 हजार, 15 हजार आदमी विभिन्न जातियों के इकट्ठा होते हैं और अपने-अपने घर से चावल-दाल ले जाते हैं, एक हंडिया में वह पका दिया जाता है, वहीं सब लोग बैठकर खाते हैं, तो तहलका मच जाएगा।

सहभोज के साथ-साथ एक दूसरी चीज भी है बेटी वाली, शादी-विवाह वाली बात। मेरे दिमाग में कई दफे इसका चक्कर लगता है पर यह हमारे बस की बात है नहीं। लेकिन, आप लोगों में, जवानों में, कोई ऐसा ताकतवर हो जो इस पर सोचे अब जैसे हम लोगों ने जो सबक सीखा था, वह यह था कि क्रांति को तैयार करो, उसके लिए लड़ो, क्रांति करते रहो और करते रहो और करते-करते जब क्रांतिकारी शक्तियाँ मजबूत हो जाएं तो गद्दी मिल जाएगी और फिर परिवर्तन कर पाओगे। मुझे यह भी संभव लगता है कि कुछ चालाक लोग हों, ताकत भी बढ़ाएं, चालाकी से मौका ढूँढ़ें, सत्ता प्राप्त कर लें, गद्दी पर बैठ जाएँ, शायद उसके बाद क्रांति करें। मैं अपने लिए पहले ही से कहे देता हूँ कि हम तो खाली सोच भर सकते हैं कि यह चीज हो सकती है लेकिन खुद करने के लिए न तो तैयार हैं और न उसको बहुत ज्यादा दूर तक सोचेंगे। कुछ ऐसा हो सकता है कि गद्दी मिल जाने पर एक ऐसा कानून बना सकते हो कि जितने भी सरकारी नौकर होंगे, उनकी नियुक्ति में इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि पहले नौकरी उसी को देना है जिसने अंतर्जातीय विवाह किया है। अंतर्जातीय मतलब द्विज में आपस में नहीं बल्कि द्विज-अद्विज।

चौथी चीज है राजकीय हमला, बालिग मताधिकार वाला। जैसे-जैसे यह बालिग मताधिकार चलता रहेगा, चुनाव चलते रहेंगे, वैसे-वैसे जाति का ढीलापन बढ़ता रहेगा। यह बात दूसरी है कि आज बालिग मताधिकार पर भी बहुत जबरदस्त हमला हो रहा है और वह हमला है प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वाला कि सीधे चुनाव न हो पाएँ और यह कि गांव पंचायतों वगैरह को ऐसी बना डालो कि फिर से जरा सब लोग आ जाएँ; सब लोग का तो मतलब जानते ही हो कि क्या होता है। खैर, बालिग मत के साथ-साथ जो सबसे बड़ी चीज हमको पकड़कर रखनी है वह है विशेष अवसर बनाम समान अवसर। उसे यहां मैं तफसील से नहीं बतलाऊँगा। हिंदुस्तान के जितने भी विचारक हैं, जितनी भी पार्टियाँ हैं, सब समान अवसर के सिद्धांत को मानती हैं क्योंकि फ्रांसीसी और रूसी राज्य क्रांतियों का मकसद समान अवसर था। कम्युनिस्ट मेनफिस्टो में भी समान अवसर लिखा हुआ है।

यूरोपियों के लिए समान अवसर क्रांतिकारी था, क्योंकि उनमें जात-पाँत नहीं थी। हमारे लिए समान अवसर का मतलब क्रांतिकारी नहीं होता, क्योंकि हमारे अंदर जात-पाँत है। इसलिए जात-पाँत वाले समाज में समान अवसर का मतलब होगा कि जो ऊँची जाति वाले हैं, जिनके कई हजार बरस से विद्या आदि के संस्कार हैं उनको अवसर खूब मिलता चला जाएगा, और बाकी लोग पिछड़ते चले जाएंगे। इसलिए इस वक्त हिंदुस्तान में समाजवादी दल ही एकमात्र दल है जिसने विशेष अवसर के सिद्धांत को अपनाया है। यह बात दूसरी है कि कुछ पुरानी घटनाओं के कारण क्योंकि अंग्रेजों ने हरिजनों को विशेष चुनाव-क्षेत्र दे दिए थे, और फिर गांधी जी ने भी समझौते ऐसे किए थे और कई बातें हो गईं कि कांग्रेस सरकार ने कहीं कोई थोड़ी-बहुत सुविधाएँ दे रखी हैं। इसको वे कहेंगे, क्या हमने विशेष अवसर नहीं दे रखा है, लेकिन वे कुछ सुविधाएँ हैं। उन्होंने विशेष अवसर का सिद्धांत नहीं अपनाया। वे सुविधाएँ कैसी हैं? हरिजनों को कागज पर तो कांग्रेस सरकार ने 8 सैकड़ा विशेष अवसर दे रखा है, लेकिन असलियत में ऊँची जगहों में हरिजनों को 1 या 1.5 सैकड़ा विशेष अवसर वाला सिद्धांत भी नहीं अपनाया है।

जो राजनैतिक दल विशेष अवसर के सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ेगा, वह जोखिम उठाने को तैयार होगा। वह साफ कहेगा, योग्य अथवा अयोग्य की बहस में हमको नहीं पड़ना है, हमको तो इन दबे हुए लोगों के दबे हुए संस्कार को सुधारने के लिए ऊँची जगह पर बैठाना है। हो सकता है 100 को बैठाएंगे, तो उसमें से 60-70 निकम्मे निकलेंगे लेकिन जो 30 अच्छे निकलेंगे, वे समाज में एक इतनी जबरदस्त हलचल पैदा करेंगे कि जैसे आटे में खमीर मिलाते हैं, वैसे सारे समाज को पुनर्जीवित कर देंगे। तो ऐसा चौतरफा हमला एकसाथ करके शायद जात-पाँत को खत्म कर सकते हैं। और, मैं समझता हूँ, उस मानी में समाजवादी दल आजकल की हालत में अनोखा है। अनोखा होने में कोई बहुत घमंड नहीं करना चाहिए, बल्कि सच पूछो तो औरों को भी यही रास्ता अपनाना चाहिए।

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