8 मार्च। ब्रिटिश सरकार के शिकंजे से जो आदिवासी समाज मुक्त रहा उसे आजादी के बाद व्यवस्थ्या ने जकड़ लिया,और आजीविका का आधार तथा सम्मान से जीने का अधिकार छिन जाने से उत्पन्न असंतोष ने आदिवासी इलाकों को अशांत बना दिया। जबकि संविधान के पांचवी अनुसूची में राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में शासन और प्रशासन पर नियंत्रण की बात कही गई है। मतलब इन क्षेत्रों में सामान्य कानून लागू नहीं होंगे और स्वशासन के लिए ग्राम सभा को मान्यता दी गई। राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया कि राज्य की जनजातीय सलाहकार परिषद की सलाह पर आदिवासियों के कल्याण की दृष्टि से वे किसी भी कानून को रद्द कर सकते हैं। इस प्रावधान का किसी भी राज्यपाल ने उपयोग नहीं किया।
आदिवासी क्षेत्रों में पंचायतीराज संस्थाओं को ग्रामीण आबादी की सहमति से चलाने के लिए पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 यानि पेसा कानून 24 दिसम्बर 1996 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित होकर लागू हुआ। कानून की धारा 4(घ) में ग्राम सभा की सामाजिक परम्परा और अस्मिता को बनाये रखने की स्वयं सिद्ध क्षमता को स्वीकार की गई है। ग्राम सभा को इन प्रावधानों की धारा 4(ङ) के तहत हर तरह के विकास कार्यो की मंजूरी और लाभार्थियों का चयन, 4(च) के तहत खर्चे का प्रमाण पत्र और 4(झ) के तहत भू अर्जन के पहले परामर्श की महत्वपूर्ण अधिकार दिया गया है। परन्तु कुछ दूसरे मामलों में धारा 4(ड) के तहत विधान मंडल को कानून बनाना है। इनमें लघुवनोपज की मालिकी और मद्धनिषेध भी शामिल है।
पंचायतीराज व्यवस्था राज्य का विषय है। इसलिए इस केन्द्रीय कानून को लागू करने के राज्य सरकार को इसका नियम बनाना और कुछ कानूनो में पेसा कानून के अनुरूप इसमें संशोधन करने हेतु कार्यवाही करना था। मध्यप्रदेश सरकार ने अपने कुछ कानून जैसे साहूकार अधिनियम, भू राजस्व संहिता, आबकारी अधिनियम आदि का पेसा के साथ अनुकूलन किया है किन्तु वन भूमि, न्याय संबंधी कानूनों का पेसा के साथ अनुकूलन नहीं हुआ है। संविधान के भाग (10) के आलोक में मध्यप्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में वन प्रबंधन में ग्राम सभा का अधिकार सुनिचित करने के लिए भारतीय वन अधिनियम 1927 में बदलाव आवश्यक है। वन अधिनियम 1927 में पर्यावरण, जैव विविधता, वनौषधि और आदिवासी समाज की आवश्यकताओं जैसे तत्वों का कोई स्थान नहीं है। परन्तु पेसा कानून को लागू करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने 25 वर्षो बाद ड्राफ्ट नियम लाया है जो विसंगतियों से भरा हुआ है।
कुछ दिन पहले समाचार पत्र में खबर आई थी कि ड्राफ्ट नियम में ग्राम सभा को कमजोर कर कलेक्टर को अधिकार दिया गया है। इस समाचार के संदर्भ में पेसा कानून ड्राफ्ट नियम के अध्ययन से पता चला कि मध्यप्रदेश पंचायतीराज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम 1993 के प्रावधानों को समाहित कर दिया गया है जो “पेसा कानून” की मंशा के विपरीत है। इसे कुछ ड्राफ्ट नियम की कंडिकाओं से समझा जा सकता है। अनुसूचित क्षेत्रों की ग्राम सभा का मध्यप्रदेश पंचायतीराज एवं स्वराज अधिनियम 1993 में वर्णित शक्ति और कृत्य का उल्लेख किया गया है जबकि पेसा कानून की धारा 4(ङ) में ग्राम सभा के अधिकार और कृत्य का विस्तार से उल्लेख किया गया है। परन्तु उसे समाहित ही नहीं किया गया है। सामुदायिक संसाधन क्षेत्र को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि भू-भागीय क्षेत्र में जल, भूमि, वन, खनिज और अन्य संसाधन होंगे, जबकि गांव लोगों का स्वाभाविक रहवास है। जिसकी भौगोलिक सीमाएं परम्परा से चली आ रही हैं। अपनी व्यवस्थ्या स्वयं करने के प्रयोजन के लिए गांव का क्षेत्र विस्तार, उसकी औपचारिक सीमाएं (भू- भागीय क्षेत्र) न होकर उसकी पारम्परिक समाजिक सीमाओं तक है।
प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि ग्राम सभा उसके प्रबंधन में भूमिका निभाएंगी। जबकि वन अधिकार कानून 2006 की धारा 3(1) झ के अनुसार सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित या प्रबंधन करने का अधिकार ग्राम सभा को है। भू अर्जन तथा पुनर्वास की कंडिका में भू अर्जन अधिनियम 1894 का उल्लेख किया गया है जबकि भू अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 लागू किया जा चुका है। पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया।
पेसा कानून 1996 की धारा 4 ड(i) गांव समाज यानि ग्राम सभा चाहे तो अपने गांव में पुरा मद्य निषेध लागू कर दे। अगर मद्य निषेध न लागू करे तो वह मादक पदार्थो की बिक्री पर रोक लगा सकती है। ग्राम सभा चाहे तो मद्यपान के मामले में गांव के लोगों द्वारा संयम बरतने के लिए नियम बना सकती है। इस व्यवस्थ्या के उल्लंघन के लिए ग्राम सभा को दंड देने का अधिकार भी होगा। दंड की व्यवस्थ्या भी आदिवासी परम्परा का अभिन्न अंग है। तदनुसार मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम 1915 की धारा 61 में अनुसूचित क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति के लिए 1997 में संशोधन किया गया। अधिनियम की धारा 61(घ) में आदिवासियों के लिए कतिपय उपबंधों से छूट प्रदान की गई है।
(1) अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों द्वारा देशी मदिरा का विनिर्माण केवल घरेलू उपभोग तथा सामाजिक और धार्मिक समारोहों पर उपभोग के प्रयोजनों के लिए किया जाएगा।
(2) इस प्रकार की विनिर्मित की गई देशी मदिरा का बिक्री नहीं किया जाएगा।
(3) इस प्रकार विनिर्मित की गई देशी मदिरा के रखने की अधिकतम सीमा प्रति व्यक्ति 4.5 लीटर और प्रति गृहस्थी 15 लीटर तथा विशेष परिस्थितियों में सामाजिक तथा धार्मिक समारोह के अवसर पर प्रति गृहस्थी 45 लीटर होगी। गृहस्थी से अभिप्राय है ऐसे व्यक्तियों का कोई समूह जो एक ही घरेलू इकाई के सदस्यों के रूप में संयुक्त रूप से निवास तथा भोजन करता है।
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा पेसा कानून का नियम मसौदा तैयार किया गया है। उसमें प्रावधान किया गया है कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में अवैध मदिरा का निर्माण, धारण एवं विक्रय संबंधी सूचना मिलने पर विभागीय अधिकारियों,कर्मचारियों और शराब ठेकेदारों द्वारा चैकिंग इत्यादि की कार्यवाही जिला कलेक्टर की पूर्व अनुमति के बिना नहीं की जाएगी।
पेसा कानून बनाने के लिए गठित दिलीप सिंह भूरिया कमिटी में अहम भूमिका निभाने वाले डॉक्टर ब्रह्म देव शर्मा ने वर्ष 2010 में राष्ट्रपति को पत्र लिखा था कि “जब पेसा कानून बना और इसके प्रावधान आए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जनजातीय समुदाय के साथ किये गए ऐतिहासिक अन्याय मिटाने के लिए बनाया गया है। जिसमें हमारे हमारे गांव में हमारा राज कायम होने का एहसास देता था। परन्तु आदिवासी समाज का यह उत्साह खत्म हो गया है। ऐसा इसलिए हुआ है कि सत्तारूढ वर्ग और प्रशासनिक अधिकारी पेसा के मूल भावना को मानने को तैयार नहीं है। “शासक शक्तियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की कार्पोरेट लूट को अंजाम देने के लिए आदिवासियों को जंगल एवं जमीन से बेदखल किया जा रहा है। ये वही ताकतें जो किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों के गौरवशाली योगदान को अपमान करती हैं।
(Sabrang India से साभार)