अखिलेश की सबसे बड़ी भूल

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Ram sharan
— रामशरण —

र्ष 2022 का यह चुनाव सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से नहीं, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सबक देता है। इस चुनाव में भाजपा की पंजाब को छोड़कर सभी चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड- में सत्ता में वापसी ने विपक्ष को धाराशायी कर दिया है। इसने देश के विपक्षी दलों की हिम्मत तोड़ दी है।

पंजाब में भाजपा की पहले भी कोई हैसियत नहीं थी, न आगे होने की संभावना है। क्योंकि हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान का एजेंडा वहां चलना बहुत कठिन है। बाकी चार राज्यों में पहले भी भाजपा की सरकारें थीं। लेकिन यूपी के चुनाव में भाजपा की वापसी आश्चर्यजनक और विपक्ष की हिम्मत को तोड़नेवाला है। बिहार और बंगाल के परिणामों के बाद ऐसे परिणाम की आशा बहुत से भाजपाइयों को भी नहीं थी। इससे 2024 के चुनाव में मोदी सरकार को दिल्ली से हटाने का लक्ष्य बहुत कठिन हो गया है। यूपी का चुनाव पूरे देश के विपक्ष की हिम्मत तोड़नेवाला है।

निश्चित रूप से भाजपा के और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने विपरीत परिस्थितियों में बिना हिम्मत खोये लगातार काम किया और विपक्ष की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जबकि विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ चुनाव के वक्त सक्रिय किया जाता है। खुद अखिलेश यादव चुनाव के ठीक पहले तक जोड़तोड़ की राजनीति में व्यस्त रहे। दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों आदि के उत्पीड़न पर बयान देने के अलावा उन्होंने कुछ नहीं किया। चूंकि कोरोना विपत्ति के दौरान मोदी सरकार ने जो लाभ आम गरीबों और दलितों को दिया था, उससे निचले तबके को बहुत राहत पहुंची और वे भाजपा के एहसानमंद हो गये।

यह चुनाव ऐतिहासिक हो सकता था यदि मनुवादी ताकतों के खिलाफ दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक को एकजुट किया जा सकता। अखिलेश ने शुरुआत तो अच्छी की पर उनकी सोच पिछड़ों से आगे नहीं बढ़ सकी। यह सही है कि डरे हुए अल्पसंख्यकों ने मजबूरी में अखिलेश का पूरा साथ दिया और ओवैसी की ओर ध्यान नहीं दिया। लेकिन दलितों ने भाजपा और मायावती को ज्यादा प्राथमिकता दी। सब जानते हैं कि मायावती भाजपा के दबाव में हैं। यह दलित भी समझते थे। लेकिन उनमें अखिलेश से जुड़ने का कोई आकर्षण नहीं था। यदि अखिलेश ने दलित उत्पीड़न के खिलाफ आन्दोलन किया होता तो यह जुड़ाव बन सकता था। लेकिन वे घर पर बैठे रहे।

दलितों में, खासकर गैर-जाटव में मायावती के प्रति मोहभंग हो चुका था। पर कोई वैकल्पिक नेता नहीं था। चंद्रशेखर रावण वैकल्पिक नेता बन सकते थे, यदि अखिलेश ने उन्हें मदद की होती। चन्द्रशेखर ने लाख कोशिश की कि अखिलेश से समझौता हो जाए, पर अखिलेश घमंड में डूबे रहे। उन्हें चन्द्रशेखर की औकात देखने के बदले दलितों की औकात देखनी चाहिए थी। बिना दलितों का सहयोग लिये 85 फीसद का आंकड़ा कैसे संभव था, यह उन्हें समझ नहीं आया।

जो दलित मायावती से निराश थे उनके लिए भाजपा और समाजवादी एक जैसे थे। चूंकि कोरोना काल मे गरीबों, दलितों को राशन आदि की सरकारी सहायता मिली थी, इसलिए उनका झुकाव भाजपा की ओर हो जाना स्वाभाविक है। जबकि दलितों के संबंध पिछड़ों से परंपरागत रूप से खराब रहे हैं। इसलिए मीडिया का अपराध संबंधी प्रचार उन पर असर कर गया था। लेकिन 2024 में होनेवाला लोकसभा चुनाव ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। यदि समाजवादी यूपी और बिहार में दलितों को जोड़ने का ठोस प्रयास करते हैं तो लोकसभा के परिणाम को बदला जा सकता है।

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