— सूर्यनाथ सिंह —
फिल्म तो देखी नहीं। अकेले आज तक कोई फिल्म देखी नहीं, इसलिए। पर कश्मीर को देखा है। जिसे पुराना इस्लामाबाद कहा जाता है, यानी आज का अनंतनाग, उसके गली कूचे से वाकिफ हूॅं। आज वह इलाका आतंकवाद का केंद्र माना जाता है। जितनी भी आतंकवादी घटनाएं वहॉं होती हैं, ज्यादातर अनंतनाग के आसपास के इलाके में होती हैं। त्राल और रामबन सबसे संवेदनशील हैं। वहॉं कुछ महीने बिताया है। वहॉं के लोगों को जानता हूॅं। उनसे खूब बोला-बतियाया है। मट्टन मंदिर खूब आया-गया हूॅं। उसके आसपास के तमाम नाग यानी पहाड़-फोड़ झरनों के इलाके जानता हूॅं। कूकरनाग, बेरीनाग से लेकर सारे नाग।
कश्मीर छोड़ गए कुछ पंडितों के वे घर भी देखे हैं, जो खंडहर हो गए हैं, पर किसी ने कब्जाया नहीं। दूरदर्शन के उस अधिकारी के परिवार से भी मिलना-जुलना है, जिनकी सबसे पहले श्रीनगर में हत्या की गयी थी। उनका परिवार दिल्ली के वसंत कुंज में रहता है। उनके अलावा भी कई कौल मित्र हैं। उनके दुख भी सुने हैं और मुसलमानों के भी।
+++
एक हैं मिस्टर बख्शी। कश्मीर के आखिरी प्रधानमंत्री के सगे। खून के रिश्ते वाले। उनके पोते।
प्रधानमंत्री शब्द से चौंकिए नहीं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री का जो आज पद है, वह 1965 से पहले प्रधानमंत्री कहलाता था। संविधान संशोधन के बाद वह पदनाम बदल गया।
खैर, उसकी राजनीति से अपुन का मतलब नहीं। राजनीति तो अपने स्वार्थों के लिए संविधान में पैबंद लगाती ही रहती है। हम तो पैबंददार संविधान के पेशकार, पालनकार।…
बात हो रही थी बख्शी साहब की। खीर भवानी के मंदिर का जो सालाना जलसा होता है, उसका सारा इंतजाम एक तरह से वही सॅंभालते हैं। वे शुद्ध मुसलमान हैं। शुद्ध कश्मीरी। (शिमला वाले नहीं)। जो लोग पहलगाम गए हैं, वे जानते होंगे। एक दरिया पार करके दाहिने हाथ को अमरनाथ के रास्ते आगे बढ़ना होता है। उसी दरिया पुल के ठीक बायें बख्शी साहब का रिजॉर्ट है। आधा फर्लांग चलकर। बिल्कुल कश्मीरी संस्कृति को सहेजने के मकसद से बनाया हुआ। लकड़ी, कपड़े और टिन से दरिया किनारे बना। कमरों की दीवारों का रंग धुऑंया हुआ। वे कहते हैं कि आम कश्मीरी घरों के भीतर का रंग ऐसा ही धुऑंया रहता है, क्योंकि वे गरमी के लिए घर में लकड़ी जलाते हैं।
बख्शी साहब दानिशमंद आदमी हैं। उनसे बात करिए, तो आपको अपनी औकात पता चलेगी। विदेश पढ़े हैं। उनकी बेगम भी। दोनों बड़े उदार। उन्होंने सलाह दी थी कि सड़क के रास्ते आइए। इस तरह जम्मू और कश्मीर दोनों के मिजाज से वाकिफ होंगे। जवाहर टनल के इस पार जम्मू, उस पार कश्मीर। दोनों के मिजाज में बहुत अंतर।
खैर, बख्शी साहब के घर पहुंचकर नाश्ता करते हुए मैंने पहला ही सवाल दागा था- कश्मीरी पंडितों को क्यों भगा दिया आप लोगों ने यहॉं से।
बख्शी साहब थोड़ा संजीदा हुए- इसके लिए थोड़ा-सा कश्मीर के समाज और संस्कृति को समझना पड़ेगा। कश्मीर के मुसलमान आज भी पंडितों की बहुत इज्जत करते हैं। उन्हें विद्वान, दानिश्वर मानते हैं। पहले का कश्मीरी समाज ऐसा था कि यहां के पंडित ही पढ़ते-लिखते और ऊॅंचे ओहदे हासिल करते थे। सरकारी नौकरियों में वही हुआ करते थे। मुसलमान अपने पारंपरिक, पुश्तैनी काम-धंधों में ही लगे रहते थे। दस्तकारी, खेती वगैरह में। वे एक तरह से पंडितों के ताबेदार हुआ करते थे। मगर जब कश्मीरी मुसलमानों के नौजवान भी पढ़-लिख कर ऊॅंची डिग्रियॉं हासिल करने लगे, तो उन्हें महसूस हुआ कि न तो उनके लिए सियासत में वैसी जगह मिल पा रही है और न सरकारी महकमों में, जैसी कश्मीरी पंडितों को मिलती है। वे पंडितों की तरह ओहदे का ख्वाब पालने लगे थे। इस तरह उनके मन में एक कुंठा भरती गयी और इस बात को दहशतगर्दों ने भी नोट किया। उनके इस आक्रोश को भुनाने का प्रयास किया। उसी के चलते ऊॅंचे ओहदों पर बैठे कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया। फिर उनका पलायन शुरू हुआ।
मगर ध्यान दीजिए कि पंडितों के बहुत सारे मकान उसी तरह महफूज हैं। उन पर कब्जा नहीं हुआ। वे खॅंडहर हो रहे हैं, उनकी दीवारों में दरख्त उग आए हैं। उनके खेतों में जरूर उनके पड़ोसी मुसलमान अपनी फसल बोते हैं, पर उनकी नीयत में खोट नहीं। वे चाहते हैं कि पंडित वापस आएं और वे उनकी जमीन वापस कर दें। मगर वे लौटना ही नहीं चाहते। दूसरी बात कि कश्मीर में हिंदुओं की आस्था पर कहीं चोट नहीं की गयी। खीर भवानी का मंदिर सुरक्षित है, शंकराचार्य का मठ सुरक्षित है, तमाम शिव मंदिर सुरक्षित हैं। अमरनाथ यात्रा को सारे मुसलमान मिलकर ही संपन्न कराते हैं।…
आज भी कश्मीर का आम मुसलमान टूरिज्म पर निर्भर है। उसी से उसकी रोजी चलती है। मगर सियासी लोग और दहशतगर्द मिलकर कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बीच के रिश्ते खत्म करना चाहते हैं। हालांकि सारे पंडित घाटी से नहीं भाग गए, अब भी बहुत सारे हैं और सुरक्षित हैं, मिलजुल कर रहते हैं। उनकी इज्जत आज भी है।… इंशाअल्ला, यह सूरत कभी तो बदलेगी।…