साहित्य का दायित्व और साही

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विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982)


— गोपेश्वर सिंह —

हिंदी के विशिष्ट कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर 1924 ई. को बनारस के कबीरचौरा मोहल्ले में हुआ था। उनकी हाई स्कूल तक की शिक्षा बनारस में हुई। उसके बाद वे इलाहाबाद अपने बड़े भाई इन्द्रदेव नारायण साही के पास चले गए जो आईसीएस थे और वहीं पदस्थापित थे। कर्नलगंज इंटरमीडिएट कॉलेज से उन्होंने इंटर किया। इसके बाद अँग्रेजी और फ़ारसी विषय के साथ उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास की। फिर वहीं से अँग्रेजी साहित्य में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ एम.ए. की परीक्षा पास की।

अपने राजनीतिक गुरु आचार्य नरेन्द्रदेव की इच्छा के कारण एम.ए. करने के बाद साही काशी विद्यापीठ में अँग्रेजी के अध्यापक हो गये, कुछ वर्ष बाद आचार्य जी की अनुमति लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अँग्रेजी विभाग में आ गये, जहाँ बाद के वर्षों में वे रीडर और प्रोफेसर हुए। प्रारंभ में उनकी माता ने उन्हें हिंदी सिखलाई। बाद में उन्होंने स्वाध्याय से हिंदी सीखी। जीवन भर वे हिंदी समर्थक रहे। राममनोहर लोहिया के अँग्रेजी हटाओ आन्दोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वे आजीवन हिंदी में लिखते रहे और कभी अपने व्यक्तित्व पर अंग्रेजीयत को हावी नहीं होने दिया। अँग्रेजी के अध्यापक होने पर भी वे प्रायः खादी के धोती-कुर्ता में रहते थे।

साही के परिवार में संगीत की परंपरा थी। पिता संगीत के शौकीन थे। घर में तबला, हारमोनियम आदि वाद्य यंत्र थे। पिता की देखा-देखी वे भी इन्हें बजाते थे। कहा जाता है कि साही अच्छे तबलावादक थे। उन्हें गाने का भी शौक था और मन की मौज में अकेले में या दोस्तों के बीच गाते भी थे। गाने-बजाने के शौक के कारण साही की रुचि नाट्य-लेखन, नाट्य-मंचन और अभिनय की ओर जाग्रत हुई। कहा जाता है कि उन्होंने कई नाटक लिखे, उन्हें मंचित किया और उनमें अभिनय भी किया।

साही की मूल पहचान कवि, आलोचक और समाजवादी आन्दोलन के प्रखर बौद्धिक नेता की है। नरेन्द्रदेव के कारण वे समाजवादी विचारों के प्रभाव में आए और आजीवन इस रूप में सक्रिय रहे। इस कारण उनका लेखन-कार्य प्रभावित हुआ। प्रकाशन-कार्य की ओर तो और भी कम ध्यान गया। जीवनकाल में उनका एक ही काव्य-संग्रह ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हो सका। ‘तीसरा सप्तक’ (1959) में कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। सारा लिखा हुआ और बोला हुआ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा हुआ था। उनके निधन के पश्चात् उनकी विदुषी पत्नी कंचनलता साही ने बहुतेरी रचनाओं को सहेजा और उन्हें प्रकाशित कराया। खोजबीन के बाद साही की निम्नलिखित पुस्तकें ही उपलब्ध होती हैं :

  1. मछलीघर (काव्य-संग्रह) 1966
  2. साखी (काव्य-संग्रह) 1983
  3. जायसी (आलोचना) 1983
  4. साहित्य और साहित्यकार का दायित्व (व्याख्यान) 1983
  5. छठवाँ दशक (आलोचना) 1987
  6. साहित्य क्यों (आलोचना) 1988
  7. लोकतंत्र की कसौटियाँ (सामाज-राजनीति विषयक निबंध) 1990
  8. संवाद तुमसे (काव्य-संग्रह) 1990
  9. वर्धमान और पतनशील (आलोचना) 1991
  10. आवाज हमारी जाएगी (कविताओं और ग़जलों का संग्रह) 1995

इनके अतिरिक्त बहुत-सी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं। जो सूचना मिलती है उसके अनुसार साही ने ललित निबंध, कहानी, नाटक और प्रहसन जैसी विधाओं में भी लिखा था। इनके साथ उन्होंने अनुवाद कार्य भी प्रचुर मात्रा में किया था। ये सारी सामग्री पुस्तक रूप में अब तक प्रकाशित नहीं हो पायी है। ‘सड़क साहित्य’ के नाम से सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और कुछ अन्य मित्रों के साथ साही तुरंता ढ़ंग से हास्य-व्यंग्य की कविताएँ लिखते थे, जिनमें से कुछ की ही सूचना हिंदी पाठकों को है। उनकी डायरी के भी कुछ अंश प्रकाशित हुए हैं। इनके अतिरिक्त साही ने दर्जन भर से ऊपर अँग्रेजी में निबंध लिखे थे। वे सारे निबंध भी पुस्तक रूप में प्रकाशित नहीं हैं। देश-विदेश में अँग्रेजी में दिए हुए भाषण भी अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। ‘आलोचना’ (1953-1958) और ‘नई कविता’ पत्रिका (1956-1968) के संपादन कार्य से भी वे जुड़े रहे।

साही बहुत ही दिलचस्प इंसान थे। दोस्तों के बीच गपशप और बौद्धिक बहस करना उनकी खास पहचान थी। गाना-बजाना और नाटक खेलना उनके प्रिय शौक तो थे ही,  शतरंज और ताश खेलने में भी उनकी खासी दिलचस्पी थी और वे इस फन के माहिर थे।

आचार्य नरेन्द्रदेव के कारण उनका झुकाव समाजवाद की ओर हुआ। वे जीवन भर समाजवादी विचार और आंदोलन से जुड़े रहे। साइकिल पर घूम-घूमकर उन्होंने बुनकरों के संगठन बनाए और उनके मुकदमे लड़े तथा जीते भी। कहा जाता है कि वकील को देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने कानून की किताबें पढ़ीं और कोर्ट में बहस की। भदोही के कालीन बुनकरों के लिए चलनेवाली हड़ताल का उन्होंने नेतृत्व किया और इस सिलसिले में उन्हें एक महीने तक जेल में भी रहना पड़ा। आजादी के बाद भी उन्हें दो बार जेल जाना पड़ा। एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गोलवलकर को काला झंडा दिखाने के अपराध में तथा दूसरी बार जवाहरलाल नेहरू के मोटर के सामने किसानों के साथ प्रदर्शन करने के कारण।

1967 के चुनाव में वे सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर भदोही संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े। कहा जाता है कि वे कुछ ही वोटों से पराजित हुए। ‘समाजवादी युवजन सभा’ एवं समाजवादी कार्यकर्ताओं के शिविरों में साही समाजवादी विचारों के महत्त्व पर बोलनेवाले लोकप्रिय वक्ता थे। उनका  अंतिम व्याख्यान पटना में अक्टूबर 1982 में जयप्रकाश नारायण की जयंती के अवसर पर हुआ। लगभग एक महीने बाद 5 नवम्बर 1982 को हार्ट अटैक से इलाहाबाद में उनकी मृत्यु हो गयी।

अपनी बहसतलब टिप्पणियों और व्याख्यानों से हिंदी के बौद्धिक जगत को आंदोलित करनेवालों में साही का कोई जोड़ नहीं था। यह अकारण नहीं था कि उन्हेंबहस करता हुआ आदमीकहा जाता था। उनके निधन से जो स्थान रिक्त हुआ, उसे फिर कोई दूसरा भर न सका। उन्होंने लिखा कई विधाओं में, लेकिन कवि और आलोचक के रूप में वे विशेष रूप से समादृत हुए।

विजयदेव नारायण साही ने अपने समकालीनों की तुलना में कम कविताएँ लिखीं, लेकिन अपनी गुणवत्ता में वे इतनी अलग और मौलिक हैं कि उनके बिना उस दौर के काव्य-परिदृश्य को समझा नहीं जा सकता। वे कविताएँ बहुत पहले से लिख रहे थे। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपकर पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकृष्ट करती थीं। लेकिन उनके पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति वे उदासीन रहे। पहली बार ‘तीसरा सप्तक’ (सं. अज्ञेय- 1959) में उनकी कुछ कविताएँ हिंदी समाज के सामने आयीं, जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया। उनके जीवनकाल में उनका एक ही काव्य संकलन ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हुआ। मरणोपरांत ‘साखी’ (1982) नामक संग्रह प्रकाशित हुआ। कविरूप में साही की कृति का मूल आधार ये दोनों काव्य संग्रह हैं। हालांकि उनके निधन के बाद ‘तीसरा सप्तक’ और ‘साखी’ में न आ पायीं कुछ कविताओं को शामिल कर ‘संवाद तुमसे’ का प्रकाशन हुआ। उनके प्रारंभिक गीतों और गजलों का एक संकलन ‘आवाज हमारी जाएगी’ शीर्षक से प्रकाशित है।

आस्थाको अपनी कविता का आधार माननेवाले साहीनयी कविताको नया अर्थ-विस्तार देनेवाले कवि हैं। बौद्धिक-उड़ान एवं कबीरी अंदाज के कारण अलग से पहचान लिये जानेवाले कवि के रूप में वे दिखाई पड़ते हैं।मछलीघरपर विचार करते हुए कुँवर नारायण को मिल्टन के ग्रेंडस्टाइल की याद आती है और वे मानते हैं कि अँग्रेजी और उर्दू की क्लासिक परंपरा साही के सामने है।

मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ के साथ नामवर सिंह साही की ‘अलविदा’ कविता को याद करते हैं। हालांकि सन्दर्भ यहाँ‘नाटकीय एकालाप’ का है। फैंटेसी के सहारे प्रभावशाली पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। ‘अँधेरे में’ और ‘अलविदा’ कविता में जो‘नाटकीयता का रहस्य’ है, उसकी चर्चा करते हुए वे कहते हैं : “अलविदा में बुनी हुई काव्यानुभूति की तीव्रता इस बात में है कि यहाँ निर्णय लेने से ठीक पहले की मनःस्थिति के अनुभूतिगत चाँप को शब्दों में पूरी कलात्मकता के साथ रख दिया गया है। कविता की नैतिक शक्ति इस बात में है कि निर्णय के विषय में कोई अनिश्यात्मकता नहीं है। ‘नैतिक विजन’ की यह परिपक्वता ही ‘अलविदा’ को श्रेष्ठ कविताओं में स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है।”

साही की कविता में नाटकीय तत्त्व और भाषाई अलंकरण की उपस्थिति अलग से पाठक का ध्यान खींचती है। यह खूबी उन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य कवियों से अलग करती है।

‘मछलीघर’ की भूमिका में साही ने अपनी कविताओं को ‘आतंरिक एकालाप’ कहा है। इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि साही की कविता में समाज निरपेक्ष होने का किसी तरह का प्रयत्न है। दरअसल, साही की प्रगतिशीलता अलग तरह की है। वे कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के कायल नहीं हैं। उनकी प्रगतिशीलता भारतीयता के निषेध से नहीं बल्कि उसके सकारात्मक दाय से बनती है। कुँवर नारायण के शब्दों में : “साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थों में उदारवादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रूढ़िवादी नहीं थी। साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन-पद्धति का निषेध नहीं है, नए और जरूरी को निष्पक्षता से जाँच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है।” इसलिए उनका यह आंतरिक एकालाप सामाजिक जीवन की विसंगतियों से पैदा हुई हलचल है। इस अर्थ में साही सहज ही मुक्तिबोध से तुलनीय हैं जिनके यहाँ ‘अन्तःकरण’ की बात हिंदी कविता में सबसे अधिक है। मुक्तिबोध का ‘अन्तःकरण’ और साही का ‘आतंरिक एकालाप’ क्या एक ही नहीं है?

‘साखी’ की कविताएँ अपने अलग अंदाज के कारण हिंदी कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि-सी लगती हैं। यहाँ ‘आंतरिक एकालाप’ सामाजिक स्थितियों से टकराकर एक नया रूप ग्रहण करता है। ‘साखी’ की कविताओं को अशोक वाजपेयी ने‘ईमान की साखी’ कहा है। ऐसी ‘साखी’ जो अधिक भरोसे की है। इन कविताओं में नैतिकता और ईमानदारी की ऐसी आभा है जो अन्यत्र शायद ही हो! यहाँ एकालाप तो है लेकिन संवादधर्मी है ‘साखी’ की कविताओं में जो संवादधर्मिता है वह साही की अपनी विशेषता है। कबीर की कविता, समाज को संबोधित करने का उनका तरीका, लौकिक से लेकर अलौकिक तक की उनकी चिंता आदि को जैसे साही ने ‘साखी’ में उपलब्ध किया है वैसी उपलब्धि उनके सिवा दूसरे के हिस्से शायद ही दर्ज हो! कबीर आधुनिक होकर साही के रूप में मानो हमें संबोधित कर रहे हों! ‘प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए’ बहुचर्चित-बहुउद्धृत कविता है जो साही की पहचान बन गयी है। लेकिन इस संग्रह की बहुतेरी कविताएँ ऐसी हैं जो कबीरी अंदाज में आधुनिक जमीन पर खड़ी है। ‘पराजय के बाद’ कविता को इस संदर्भ में देखना चाहिए-

योद्धाओं की विशाल सेना

जब पराजित होकर लौटी

तो आपस में एक दूसरे को

लूटती हुई लौटी।

कोई पश्चिम के रेगिस्तान में गया

कोई उत्तर की पहाड़ियों में

कोई पूरब के जंगलों में

कोई दक्खिन के पठारों में।

पराजित सेनाओं का यह लौटना आधुनिक मानव की नकली जीत का ऐसा उदहारण है जिसमें हम हार कर भी जीत के भ्रम में हैं और अपनी अगली पीढ़ी को नकली जीत का प्रतीक सौंप रहे हैं। कविता का अंत होता है-

                           इसी बीच आसेतु पृथ्वी पर

                           बर्बरों का राज्य हो गया

                           और वे अपने-अपने एकांत में

                           जीत और गद्दारी के

                            पुराण रचते रहे।

                            सुनो भाई साधो

                            सब जग अंधा हो गया है

                            मैं किसको समझाऊँ

‘साधो’ को संबोधित कविताएँ हों या अन्य कविताएँ सब जगह ‘मछलीघर’ का ‘आतंरिक एकालाप’ अधिक सफाई से संवादधर्मी हो गया है। अशोक वाजपेयी इसे ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का पुनराविष्कार’ कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं। कबीर को अपने समय में साधने का यह सबसे कलात्मक और बेलौस अंदाज है जो सिर्फ साही के पास है।
कवि कबीर की कविता के प्रति आलोचक साही बहुत साकारात्मक नहीं थे। उन्हें जायसी पसंद थे। लेकिन साही ने बुनकरों की लड़ाई लड़ी। घूम-घूमकर उनका संगठन बनाया। उनके बीच रहे। बुनकरों के संघर्ष में आकंठ धँसे हुए जुलाहा कबीर उनके भीतर उतरते रहे। इसलिए हमें ‘साखी’ में ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का जो हम पुनराविष्कार’ दिखाई देता है, वह अकारण नहीं है। ‘अस्पताल में’ शीर्षक कविता में अस्पताल के वातावरण का चित्रण है। बीमार, डॉक्टर, दवा आदि की चर्चा है। अलग-अलग बीमारियाँ हैं और सभी मरीजों की अलग-अलग समस्याएँ हैं। कविता का अंत होता है-

                                  साधो भाई

                                  इस अस्पताल में

                                  सब सो रहे हैं

                                  सहज समाधि की तरह

                                  सब करह रहे हैं

                                  अनाहत नाद की तरह।

साही के यहाँ इतिहासबोध बहुत ही गहरा है। उनकी कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ बार-बार देखी जाती हैं। उन स्मृतियों को रेखांकित करते हुए साही वर्तमान के सामने खड़ा कर देते हैं। वे इतिहास के सहारे समकालीन राजनीति और जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं। उनके लिए इतिहास सिर्फ सांस्कृतिक अर्थ नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अर्थ भी देता है।             

नयी कविता के संदर्भ में प्रश्नाकुलता की बड़ी चर्चा होती है। प्रश्नाकुलता को आधुनिकता का आधार माना जाता है। साही के यहाँ अपने समकालीनों की तुलना में प्रश्नों की संख्या अधिक है। वे प्रश्नों पर भी प्रश्न उठानेवाले कवि के रूप में सामने आते हैं। उनका यह कवि रूप सबसे अलग है. ‘बहस के बाद’ उनकी एक दिलचस्प कविता है। कविता का अंत करते हुए साही कहते हैं-

सुनो भाई साधो

असली सवाल है

कि असली सवाल क्या है?

‘जिंदगी के साथ गंभीर हिस्सेदारी’ से पैदा होने के कारण साही की कविताओं में यथार्थ की ऊपरी परत के रेखांकन से परहेज है। उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन उनकी कविताओं में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होता।

साही की कविता में निरंतर एक जिज्ञासा, एक खोज, एक यात्रा और संवाद दिखाई देता है। पुराने के त्याग का आग्रह है तो‘निरुत्तर शांति’ से परहेज भी है। पुराना सबकुछ छोड़ने के पश्चात् कवि के भीतर ‘निरुत्तर शांति’ किरकिराती है। ‘मछलीघर’ की एक कविता है ‘तीर्थ तो है वही….’ जिसमें तट पर खड़े कवि को बेताब लहरों का उछलना अच्छा नहीं लगता। पुराने सारे वसन धारा में बह जाते हैं और एक नया मनुष्य जन्म लेता है-

              वह जो कुछ हुआ,

              अब तो सत्य चाहे मिले

              ढालों पर विकंपित

              घने वन की फुनगियों से झाँकता-सा

              चोटियों के मौन में

              कुंड में चुपचाप बहते हुए जल की आर्सी में

              बादलों से भरे नभ को देखते खामोश पक्षी में

              गुजरते हुए राही में

              अकेले फूल में

              पर ओ नदी! अब तुम नहीं हो तीर्थ

              तीर्थ तो है बर्फ का उजला सरोवर वही

              जिसको छोड़कर हम तुम

              चले थे साथ.

जो जैसा दीखता है वह वैसा है नहीं। संसार के रिश्ते जैसे उलट-पलट गए हैं। कहा जाता है कुछ और निकलता है कुछ। यह विडंबना कवि को परेशान करती है। ‘साखी’ की एक कविता है ‘क्या करूँ’। संसार की इस विडंबना पर कवि के भीतर प्रश्न ही प्रश्न हैं-

               या तो मेरी आँखों को कुछ हो गया है

               या अब दूर पास के रिश्ते ही उलट गये हैं

               जिसके पास जाता हूँ

               पहुँचने पर छोटा दिखने लगता है

                साधो भाई

                अब मैं क्या करूँ?

                वह जो दूर से

पृथ्वी की एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैला हुआ

हिमालय नाम का नगाधिराज दिखता था

पास पहुँचने पर

बजाज की दूकान का गज निकला।

इधर के वर्षों में कबीर का इकहरा पाठ खूब हुआ है। उनके बहुआयामी कवि व्यक्तित्व से आँख मूँदकर उन्हें एक ही तरह का राजनीतिक अर्थ देने की कोशिशें खूब हुई हैं। कवि कबीर पर आलोचक के रूप में साही विचार करते तो कौन-सा अर्थ सामने होता कहना मुश्किल है। लेकिन ‘साखी’ की कविताओं के जरिए उन्होंने अपने समय में मानो कबीर को खोज लिया हो। संग्रह की अंतिम कविता ‘प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए’ में जिस कबीर को वे हमारे सामने रखते हैं वह नया कबीर है। इधर के वर्षों में वंचित समाज के लिए सहानुभूति की जो बाढ़ है उसकी जगह साही अंतहीन सहानुभूति की वाणी विनम्रतापूर्वक बोलना चाहते हैं। वे ऐसे कलेजा की कामना करते हैं जो भूखों के पक्ष में खड़ा हो और निर्भय हो। इसके बाद कवि की गुरु कबीरदास से प्रार्थना है-

दो तो ऐसी निरीहता दो

कि इस दहाड़ते आतंक के बीच

फटकार कर सच बोल सकूँ

और इसकी चिंता न हो

कि इस बहुमुखी युद्ध में

मेरे सच का इस्तेमाल

कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो

तो इतना ही दो

कि बिना मरे चुप रह सकूँ

कोई भी मानेगा कि हिंदी कविता में यह काव्य-स्वर बिलकुल निराला और अलग है। यह हिंदी कविता की उपलब्धि है जो साही के हाथों संपन्न होती है।

मात्र अपने दो संग्रहों-मछलीघरऔरसाखीके जरिए साही हिंदी कविता का नया विन्यास रचते हैं। उनकी कविता का आंतरिक एकालाप समाज से भी संवाद है और अपने से भी।साखीमें समाज को जो संबोधन है वह अपने को भी है। इन कारणों से साही की कविता में एक ऐसी नैतिक आभा है जो कबीर सरीखे कवियों में बड़े पैमाने पर आचरण से पैदा हुई थी। आधुनिक हिंदी कविता की यह नैतिक आभा अपने विस्तार में कुछ छोटी होने पर भी आधुनिक हिंदी कविता की मूल्यवान धरोहर है।

प्रारंभ में साही गीत लिखा करते थे। जब वे बनारस में थे तो शंभुनाथ सिंह जैसे गीतकारों के संग-साथ का प्रभाव था कि वे भी गीत लिखते थे। छंद और पूरे विधान के साथ वे गीत-रचना में संलग्न थे। प्रेम के गीत, समाज को जगानेवाले गीत और प्रकृतिपरक गीतों की रचना उन्होंने नए अंदाज में की।

साही गीत के साथ कभी-कभी ग़ज़ल भी लिखते थे। चूँकि वे उर्दू-फ़ारसी के जानकार थे, इसलिए उनकी ग़ज़ल में उर्दू की रवानगी और उसका अनुशासन दिखाई देता है। वे ‘नज़र’ उपनाम से ग़ज़ल लिखते थे। नमूने के तौर पर उनकी एक छोटी-सी ग़ज़ल देखी जा सकती है-

                          इक उरूजो-ज़वाल देखा है

                          हमने दुनिया का हाल देखा है

                          अब संभलता नहीं किसी के कहे

                          हमने दिल को संभाल देखा है

                          हम उसी को ‘नज़र’ समझते हैं

                          जिसने तेरा जमाल देखा है

‘सड़क साहित्य’ के नाम से भी मन की मौज में साही कविताएँ लिखा करते थे। सड़क पर पैदल चलते हुए दोस्तों से गपशप में ऐसी कविताएँ जन्म लेती थीं। यह एक प्रकार का सहयोगी काव्य लेखन था जिसमें एक पंक्ति किसी मित्र की होती थी तो दूसरी साही की।

विजयदेव नारायण साही जितने महत्त्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्त्वपूर्ण आलोचक भी। अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभायी। आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नयी हलचल पैदा की। जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की। उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी। 

साही ने हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाकर। वे बहुभाषाविद् थे। अँग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था। अँग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलनेवाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं। यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है। लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है। जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी। निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983), ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983), ‘छठवाँ दशक’ (1987), ‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा ‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है।

साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे। वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे। लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे। उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी।  वे प्रगतिशीलों की तरहसाहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्यकी बात करने के कायल नहीं थे। उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया।

मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे। साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है। साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे।

सत्यप्रकाश मिश्र ने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है। राममनोहर लोहिया ने गांधीवादियों की तीन कोटियाँ बनायी थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी। लोहिया के अनुसार कुजात गांधीवादी वे लोग थे जो गांधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे। साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे। नरेन्द्रदेव मार्क्सवादी थे। लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था। उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं। साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठित करने का संघर्ष किया था। जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है।

साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’ साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है। वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे। वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है। दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है। वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है। वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है। वे कहते हैं: “……समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरूरत है।” इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं। इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं।

साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं। वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी।

साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है। मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं। इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’ को देखा जा सकता है। वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है। पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया। लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है। उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है।

पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते। वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनीतिक तानाशाही का भी। उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं। साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं :“मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है। जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद करके समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं। मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है। वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है।” यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं। सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है।

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं। उनका मानना है कि मार्क्स और एंगेल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं। लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारणा के विरुद्ध है। साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया। साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं। कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं। एक उद्धरण इस तरह है :“मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है। पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है….. कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है।”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले!

साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है। यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है। इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं। कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी। कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है।  जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी। साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना। जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं।

‘छठवाँ दशक’ आलोचक साही के बहसधर्मी रूप का उदाहरण है तो ‘जायसी’ उनकी रचनात्मक आलोचना का पूर्ण विकास. वे आरंभ से ही किसी वैचारिक या दार्शनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का साहित्य रचना में विरोध करते रहे और अपने आलोचना-कर्म को भी उससे मुक्त रखा। इसका श्रेष्ठ उदाहरण उनकी आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ है।

यह सर्वविदित है कि आचार्य नरेन्द्रदेव के प्रभाव में साही समाजवादी आंदोलन से जुड़े और आजीवन उससे जुड़े रहे। नरेन्द्रदेव और राममनोहर लोहिया का उनके चिंतन पर गहरा प्रभाव है। समाजवादी कार्यकर्ताओं के विचार शिविरों में वैचारिक प्रशिक्षण देने का काम साही करते रहे। जेपी आंदोलन में जुड़े होने के कारण उनके सामाजिक चिंतन को और नया विस्तार मिला।

समाजवादी नेता मधु लिमये ने साही में ‘नेता और प्रणेता’ का रूप देखा है। सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखे गए उनके कुछ निबंध यहाँ दिए गए हैं। इनके जरिए साही के ‘एक्टिविज्म’ को समझने में मदद मिलेगी। आजाद भारत में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में अपादमस्तक इस तरह डूबा हुआ साही सरीखा हिंदी का कोई दूसरा लेखक नहीं दिखाई देता। समाजवादी समाज की रचना और लोकतंत्र का विकास साही की सामाजिक चिंताधारा की मुख्य विशेषता है।

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