— राजू पाण्डेय —
जब समाज में तार्किकता और सहिष्णुता का अभाव होने लगता है तब ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में बनती भी हैं और कामयाब भी होती हैं। यह देखना आश्चर्यजनक है कि हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग यह समझ पाने में असमर्थ है कि इस फिल्म में आपत्तिजनक क्या है? कश्मीरी पंडितों के साथ हुई भयानक त्रासदी एक ऐतिहासिक सत्य है और तीन दशक तक इन्हें न्याय न मिल पाना आज का कटु यथार्थ। फिर इसके फिल्मांकन को लेकर विवाद क्यों?
आपत्तिजनक है वह निष्कर्ष जिस पर यह फिल्म हमें पहुंचाने की कोशिश करती है, वह मनोदशा जिसमें यह फिल्म हमें छोड़ जाती है। निष्कर्ष यह है कि कश्मीरी मुसलमान और यदि इसका सामान्यीकरण करें तो मुसलमान ही भारत-विरोधी और पाकिस्तानपरस्त हैं। ये क्रूर और बर्बर हैं। इनकी उदारता और संविधानप्रियता तभी तक है जब तक ये अल्पसंख्यक हैं, जिस दिन ये बहुसंख्यक हो जाएंगे (और ये योजनाबद्ध रूप से अपनी जनसंख्या बढ़ा भी रहे हैं) उस दिन देश के हर भाग में हिंदुओं के साथ वही होगा जो कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ। जिस मनोदशा में फिल्म दर्शक को छोड़ जाती है- वह है आक्रोश, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की मनोदशा।
कश्मीरी पंडितों के साथ हुई बर्बरता का फिल्मांकन कुछ इस तरह से भी हो सकता था कि उसे देखकर हम देश और दुनिया में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध स्वयं को खड़ा देखते, हम अल्पसंख्यकों की पीड़ा का अनुभव कर सिहर उठते, हम यह संकल्प लेते कि कश्मीर में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों पर जो गुजरी है वह देश के किसी अल्पसंख्यक के साथ न गुजरे, बल्कि विश्व का कोई अल्पसंख्यक इस तरह की बर्बरता का शिकार न हो।
हम संकल्प लेते कि बहुसंख्यक होने के नाते हम हर अल्पसंख्यक को ऐसा स्नेह, प्रेम और अपनापन देंगे कि उसे भय और असुरक्षा की भावना छू न पाए, वह स्वयं को पूर्णतः सुरक्षित महसूस करे। हम पलायन के उस दर्द का अनुभव करते जो साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार कोई हॅंसता-खेलता परिवार तब करता है जब उसे अचानक अपना घर-शहर छोड़ना पड़ता है। हम हर पीड़ित अल्पसंख्यक को न्याय दिलाने और उसकी घरवापसी के लिए वचनबद्ध होते। किंतु दुर्भाग्य से फिल्म संकीर्ण राजनीतिक हितों की सिद्धि के लिए प्रयासरत लगती है।
सत्य को उसकी पूरी समग्रता में प्रस्तुत करने के स्थान पर जब उसमें अपने हितों की सिद्धि के लिए कतरब्योंत की जाती है तब उसका जो स्वरूप सामने आता है वह झूठ से भी अधिक घातक होता है। झूठ का प्रतिकार आसान होता है किंतु षड्यंत्रपूर्वक गढ़ा गया अर्द्धसत्य सच्चाई का भ्रम पैदा करता है और आम जनमानस को दिग्भ्रमित करने में बहुधा कामयाब भी होता है।
किसी भी साम्प्रदायिक हिंसा के स्थानीय कारण होते हैं। अनेक बार अल्पसंख्यक समुदाय संख्या में तो कम होता है किंतु राजतंत्र की परिपाटी, आर्थिक संपन्नता और शिक्षा के बेहतर स्तर के कारण वह बहुसंख्यक समुदाय पर शासन कर रहा होता है। स्वाभाविक है कि न तो वह बहुसंख्यक समुदाय की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि होता है न ही भावनात्मक रूप से उनके द्वारा स्वीकृत होता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि स्थानीय अपराधी तत्त्व विघटनकारी विदेशी ताकतों से मिलकर सुनियोजित हिंसा करते हैं- ऐसी हिंसा जिसका संदेश प्रदेश विशेष तक सीमित न रहे बल्कि पूरे देश और दुनिया में फैल जाए और इसका निशाना उस समुदाय को बनाया जाता है जो स्थान विशेष पर तो अल्पसंख्यक है किंतु देश में बहुसंख्यक है।
हर साम्प्रदायिक हिंसा का सामाजिक,आर्थिक एवं राजनीतिक पहलू होता है। व्यापारिक और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिगत विवाद और महत्वाकांक्षाएं, स्थानीय राजनीति की कुटिल चालें आदि साम्प्रदायिक दिखने और समझी जानेवाली हिंसा के मूल में होती है।
किंतु यह भी सच है कि बिना साम्प्रदायिकता की आग के स्थानीय कारणों के इस बारूद में विस्फोट नहीं हो सकता और यही कारण है कि इसके बाद फैलनेवाली हिंसा की लपटें साम्प्रदायिकता के रंग में रंगी रहती हैं।
‘द कश्मीर फाइल्स’ साम्प्रदायिक रंग में रॅंगी हिंसा की लपटों की भयानकता को तो दिखाती है किंतु उस ईंधन को नहीं दिखाती जो एकदम गैर-साम्प्रदायिक है और सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक-सामरिक, स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से मिलकर बना है।
यदि द कश्मीर फाइल्स हिंसा से घृणा उत्पन्न करने का पवित्र उद्देश्य रखती तो यह स्तुत्य होता किंतु इसका ध्येय समुदाय विशेष के प्रति घृणा पैदा करना है। फिल्म का ध्येय साम्प्रदायिक हिंसा को चर्चा में बनाए रखने का भी है। फिल्म अपने मकसद में सफल रही है। फिल्म का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवी भी गोधरा और मुजफ्फरनगर की हिंसा पर फिल्म बनाने की चर्चा कर रहे हैं। यदि इन भयानक घटनाओं की साम्प्रदायिक हिंसा का ट्रीटमेंट भी वैसा ही किया जाए जैसा ‘कश्मीर फाइल्स’ में किया गया है तो साम्प्रदायिक वैमनस्य में वृद्धि ही होगी।
साम्प्रदायिक विद्वेष और घृणा हमारे देश की स्याह सच्चाई है किंतु इसकी कालिख हमारे साम्प्रदायिक सद्भाव की उजली चमक पर कभी हावी न हो पायी। हमने आजादी के बाद यह सिद्ध किया है कि हमारे देश में साम्प्रदायिक विद्वेष एक अपवाद है और साम्प्रदायिक सद्भाव हमारा स्थायी भाव। हमने पूरी दुनिया को अचरज में डालते हुए अपने बहुलवाद और सामासिक संस्कृति की रक्षा की है।
कश्मीर की हिंसा में कितने ही वतनपरस्त मुसलमान भी शहीद हुए। कितने ही ऐसे मुसलमान थे जिन्होंने अपने अल्पसंख्यक मित्रों को बचाने की कोशिश की। कितने ही ऐसे साहसी पत्रकार और नेता थे जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए इस हिंसा और आतंकवाद का पुरजोर विरोध किया। फिल्म इनकी कुर्बानी को अनदेखा कर देती है।
आज देश को सांप्रदायिकता के रंग में रॅंगने की कोशिश की जा रही है। यह आशंका एकदम जायज है कि कश्मीर फाइल्स जैसी और फिल्में आनेवाले दिनों में बनें भी और उन्हें राज्याश्रय तथा व्यावसायिक सफलता भी मिले।
एक बहस जो इस फिल्म ने छेड़ दी है वह छिपाए गए इतिहास को उजागर करने की आवश्यकता को लेकर है। पूरी दुनिया की भांति हमारे देश का इतिहास भी सम्राटों-बादशाहों-राजाओं-सामन्तों, समर्थ-ताकतवर-कुलीन और धर्मान्ध लोगों द्वारा मानवता को दिए गए गहरे घावों से भरा पड़ा है। जब हम इन घावों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो हमारा उद्देश्य इनकी सर्जरी करने का होना चाहिए जिससे अतीत का सारा मवाद और सड़ा मांस बाहर निकल जाए और वर्तमान का उष्ण रक्त व ताजा मांस इनका स्थान ले सके। किन्तु जब हम इन घावों को कुरेदकर फिर से हरा करने लगते हैं, इन्हें गहरा बनाने लगते हैं तब एक इतिहासवेत्ता के तौर पर हमारी नीयत पर संदेह किया जाना जायज है।
इतिहास के अनुशीलन का ध्येय यह होना चाहिए कि अतीत की गलतियां दुहराई न जाएं, न कि यह कि इन गलतियों को महिमामण्डित कर पुनः और बड़े पैमाने पर दुहराया जाए। ऐतिहासिक सत्य कभी निरपेक्ष और सम्पूर्ण नहीं होते। राजा और प्रजा का, शोषक और शोषित का, सवर्ण और दलित का, स्त्री और पुरुष का,बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का, आक्रांता और आक्रांत का, विजेता और पराजित का इतिहास अलग अलग होता है और किसी एक पक्ष के प्रस्तुतिकरण को अंतिम मानना आत्मघाती नासमझी होगी।
इतिहास लेखक के पूर्वाग्रह, उसका दृष्टिकोण, तथ्यों की उपलब्धता आदि इतिहास लेखन की अनंत सीमाएं हैं। यदि इतिहास का उपयोग नफरत और हिंसा फैलाने के लिए किया जाने लगे तो मनुष्य को लड़ने के अनंत बहाने मिल जाएंगे।
बहरहाल, जम्मू और कश्मीर के इतिहास का विभिन्न स्रोतों से अध्ययन करने पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ में बरती गयी बौद्धिक चालाकियों को समझा जा सकता है। यदि निकट अतीत की बात करें तो उन्नीस सौ अस्सी और नब्बे का दशक इतना पुराना नहीं है कि आप स्वयं समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविजन के आर्काइव्ज को न खॅंगाल सकें और इस झूठ का पर्दाफाश न कर सकें कि कश्मीरी पंडितों के साथ हो रहे अत्याचारों पर मीडिया और बुद्धिजीवी तबका मौन था।
जब सोशल मीडिया के देशभक्त कश्मीरी पंडितों पर हुए नृशंस अत्याचारों के प्रति बुद्धिजीवियों के कथित मौन पर आपत्ति करते हैं तो उन्हें याद करना चाहिए कि दलितों पर हुए अत्याचारों, सीवर सफाई के दौरान हुई मौतों, जातिगत विद्वेषजन्य बलात्कार और हत्याओं, किसानों की आत्महत्याओं तथा आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न की घटनाओं पर वे कितनी बार मुखर हुए हैं और उन्होंने कब पीड़ित के हक की लड़ाई लड़ी है।
यह आलेख इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम का तारीखवार विवरण देने के लिए नहीं लिखा गया है किंतु कुछ तथ्यों का उल्लेख आवश्यक लगता है।
1989 में जब कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार की शुरुआत हुई तब केंद्र में वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे और मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री। वीपी सिंह सरकार को भाजपा समर्थन दे रही थी। जनवरी 1990 में जब कश्मीरी पंडितों पर अत्याचारों की इंतिहा हो रही थी तब कश्मीर विषयक मामलों के कथित विशेषज्ञ जगमोहन राज्यपाल थे और मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री। 19 जनवरी 1990 से कश्मीर में राज्यपाल का शासन लागू था। अर्थात केंद्र और राज्यपाल को असीमित शक्तियां प्राप्त थीं किंतु कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार जारी रहे। कालांतर में 2015 में भाजपा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार भी बनायी और मुफ्ती साहब मुख्यमंत्री भी बने। शायद तब भाजपा कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों को रोकने में बतौर केंद्रीय गृहमंत्री उनकी असफलता को भूल गयी थी। श्री जगमोहन भाजपा से जुड़ने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 8 जून 1999 से 22 नवंबर 1999 तक शहरी विकास और गरीबी उन्मूलन मंत्री भी रहे। तब संभवतः भाजपा ने उन्हें कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों को रोकने में उनकी नाकामी के लिए माफ कर दिया था।
श्री लालकृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री (19 मार्च 1998–22 मई 2004) रहते 17 अप्रैल 1998 को प्रानकोट नरसंहार हुआ जिसमें ऊधमपुर जिले के प्रानकोट ग्राम में एक कश्मीरी हिन्दू परिवार के 27 लोगों की निर्मम हत्या की गयी। इसमें 11 बच्चे भी शामिल थे। इसके बाद 2003 में नदिमार्ग नरसंहार हुआ जब पुलवामा जिले के नदिमार्ग गांव में आतंकियों ने 24 हिंदुओं की नृशंस हत्या की थी। आडवाणी के गृहमंत्रित्व-काल में ही 11 जून 1999 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम कश्मीरी पंडितों पर हुई ज्यादतियों की जांच के लिए भेजी गयी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों को तो स्वीकारा किंतु इन्हें जेनोसाइड मानने से इनकार कर दिया। आयोग ने तो कश्मीरी पंडितों को इंटरनली डिस्प्लेसड पीपुल का दर्जा देने से भी मना कर दिया था।
1990 से 2022 के बीच कांग्रेस नीत यूपीए और भाजपा नीत एनडीए लगभग समान अवधि तक सत्ता में रहे हैं और इन गठबन्धनों को देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया है फिर भी कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की दिशा में कुछ हो न पाया। इसलिए देश के लगभग सभी राजनीतिक दल कश्मीरी पंडितों के अपराधी हैं। शायद कांग्रेस नीत यूपीए के लिए इन कश्मीरी पंडितों का चुनाव जिताऊ राजनीतिक महत्त्व नहीं था और वे यूपीए ब्रांड वोट बैंक पॉलिटिक्स में फिट नहीं बैठते थे इसलिए इनकी उपेक्षा की गयी और शायद भाजपा नीत एनडीए को इन्हें नए भारत के आक्रामक हिंदुत्व का पोस्टर बॉय बनाना बड़ा राजनीतिक लाभ देनेवाला लगा, इसलिए इनकी समस्याओं को चर्चा में तो रखा गया लेकिन हल नहीं किया गया क्योंकि ऐसे तो यह मुद्दा ही खत्म हो जाता।
फिल्म देखकर निकल रहे दर्शकों की भाषिक हिंसा चिंता पैदा करनेवाली है। यह आशंका भी है कि यह निकट भविष्य में राज्य-पोषित शारीरिक हिंसा का रूप धारण कर सकती है। इनमें से अधिकांश दर्शक युवा हैं, उन्होंने हिंसा को फिल्मों में और सोशल मीडिया पर महिमामण्डित होते देखा है। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब हिंसा होती है तब मौत मनुष्य और मनुष्यता की ही होती है। धर्मों, विचारधाराओं, सत्ताओं और राष्ट्रों के बीच जय-पराजय, आत्मरक्षा और आत्मविस्तार के हिंसक खेल तो चलते ही रहते हैं। ये खेल हिंसा के नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं।
हिंसा के इन नियमों में एक शाश्वत नियम यह है कि चाहे उदात्त भाव से की जाए या उन्माद में, हिंसा मानव जीवन का अंत करती ही है। जब समाज हिंसा का अभ्यस्त हो जाता है, असहिष्णु बन जाता है तब वह हर अप्रिय स्थिति का अंत हिंसा में ढूंढ़ता है फिर चाहे वह राजनीतिक बैर हो, सामाजिक वैमनस्य हो या जातीय संघर्ष हो।
‘द कश्मीर फाइल्स’ ने सोशल मीडिया पर अनौपचारिक रूप से पिछले अनेक वर्षों में फैलायी गयी साम्प्रदायिक विभाजनकारी सोच को बौद्धिक विमर्श की मुख्यधारा में लाने का कार्य किया है, भाजपा और केंद्र सरकार ने इसका खुला समर्थन कर नए भारत के अपने गैर-समावेशी विजन का उदघोष कर दिया है। इस विजन को कोई चुनौती देनेवाला भी नहीं है। चुनावी पराजय से हतप्रभ विपक्ष पहले ही जमीनी संघर्ष की आदत भूल चुका है। अब सब कुछ आम जनता पर है। किंतु वह भी तो हिंसाप्रिय बनती जा रही है। पता नहीं लोग कब समझेंगे कि प्रेम, घृणा से बेहतर है और क्षमा, प्रतिशोध से ज्यादा कारगर।