— संजय गौतम —
आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने प्रकृति के जिन अंगों-उपांगों को क्षत-विक्षत किया है, इनमें नदी सबसे प्रमुख है! नदियां हमारी जीवन रेखा हैं! हमारी सभ्यता इन्हीं के किनारे विकसित हुई है! यहीं हमें पीने को पानी मिला और अन्न उपजाने के लिए खेती योग्य भूमि! इसीलिए नदी हमारे लिए सिर्फ जल संसाधन नहीं, बल्कि मॉं है! इसके इर्द-गिर्द जाने कितनी कथाएँ, गीत रचे बुने गए और लोक में व्याप्त हो गए! औद्योगिक सभ्यता ने इसे जल संसाधन माना और इनके प्रति आदर का भाव भी कम हो गया। तमाम बाँध बनाकर इनके सहज प्रवाह को तो रोका ही गया, इनमें मल-जल एवं औद्योगिक स्राव के नाले बहाकर इन्हें प्रदूषित कर दिया गया ।
मौजूदा समय में पर्यावरण के दृष्टिकोण से नदियों की चिंता तो की जाने लगी, हालाँकि इस चिंता में किसी बुनियादी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं दिखाई देती, लेकिन उस मनुष्य समाज की बिल्कुल चिंता नहीं की जाती, जिसका नदी से जीवित रिश्ता था और जिनकी रोजी-रोटी या कहें पूरा जीवन इन्हीं नदियों पर निर्भर था। रमाशंकर सिंह की किताब नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी में इसी मनुष्य समाज की चिंता करते हुए विश्लेषण एवं विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह शोध प्रस्तुति मूलत: भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की अध्ययन परियोजना के अन्तर्गत की गयी है।
इस किताब में गंगा-यमुना नदी और निषाद समाज को केंद्र में रखकर अध्ययन किया गया है। खासतौर से कानपुर, प्रयागराज और बनारस को केंद्र में रखा गया है। निषाद समाज के महत्त्व और उनके सांस्कृतिक मूल्यों का विस्तार से ललित शैली में उदघाटन कुबेरनाथ राय की पुस्तक ‘निषाद बांसुरी’ में है, जिसकी चर्चा इस किताब में कई जगहों पर है। कुबेरनाथ राय कहते हैं : “भारतीय धरती के आदि मालिक निषाद ही थे। भारतीय भाषाओं में मूल संज्ञाएं, भारतीय कृषि के मूल और आदिम तरीके और भारतीय मन के आदिम संस्कार इन्हीं की देन हैं।” इन्होंने आगे कहा है, “भारतवर्ष के इतिहास वपु की शिरा धमनी में निषाद मन प्रवाहित है, स्नायुमंडल की रचना द्रविड़ संस्कृति करती है, अस्थि कर्म की रचना में किरात-संस्कृति की रंग-बिरंगी बिनावट है और इसके मनोमय कोषों की रचना आर्य सरस्वती करती है।” इस तरह उन्होंने आर्य से पहले निषाद को रखा है। इस किताब की मुख्य चिंता इसी निषाद समाज का वर्तमान जीवन है।
गंगा नदी के किनारे बसे होने के कारण निषादों का जीवन मूल रूपप से नदी पर निर्भर रहा है। बचपन से ही नदी के साथ उनके रिश्ते की शुरुआत हो जाती है। नदी में फेंके गए सिक्कों को निकालने, नदी में दान-पुन्य की गयी धातुओं या शवों के साथ भस्मीभूत धातुओं को खोजने, नावों के संचालन, गोताखोरी इत्यादि कार्यों से उनकी रोजी-रोटी चलती रही है। नदी के किनारे की जमीनों पर खेती भी करते रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने से जैसे जैसे नदियों पर पुल बनते गए, सड़कें बनती गयीं, रेलवे लाइन बनती गयी, जलमार्ग की उपयोगिता कम होती गयी और निषाद समाज की रोजी-रोटी प्रभावित हुई। आज यह समस्या और सघन होकर उभरी है, क्योंकि जो थोड़े-बहुत उपाय किए भी गए, उनका प्रभाव बहुत सकारात्मक नहीं रहा। मसलन बालू निकालने का पट्टा निषाद समाज को दिया गया। जब तक बालू निकालने का साधन केवल नावें थीं, तब तक तो इनका कार्य ठीक चला, लेकिन जब से जेसीबी जैसी बड़ी मशीनों का प्रवेश हुआ तब से व्यावहारिक रूप में यह कार्य इनके हाथ में नहीं रहा। पट्टा भले इनके नाम हो, कार्य कोई और करता है। इन्हें बहुत कम पैसा मिलता है।
निषाद समाज के भीतर राजनीतिक जागरूकता आयी है। संगठन बना है, राजनीतिक पार्टियां बन गयी हैं। पत्रिकाएं निकल रही हैं। समाज के नए लड़के परंपरागत पेशे से निकलकर शिक्षा-दीक्षा के अन्य क्षेत्र में जा रहे हैं, लेकिन व्यापक समाज दिन-प्रतिदिन रोजगार के संकट से जूझ रहा है। फील्ड वर्क के दौरान यह भी पाया गया कि शहरों में रहनेवाले लोगों की तुलना में गांवों में रहनेवाले समाज के सामने संकट ज्यादा है। यह अंतर बनारस के निषाद समाज और चंदौली में बलुआ घाट पर रहनेवाले निषाद समाज के जीवन स्तर में देखा जा सकता है।
नदी के साथ निषाद समाज और मशीनी समाज के रिश्ते में एक बड़ा फर्क यह है कि निषाद समाज आज भी नदी को आदर एवं श्रद्धा से देखता है, जबकि मशीनी समाज बेरहम उत्खनन करता जाता है। इसे नदी की पारिस्थितिकी से कोई मतलब नहीं है। निषाद समाज को इस बात का गर्व भी है कि नदी की नाप-जोख भले ही आधुनिक मशीनें कर लें, लेकिन नदी के पेट का पता तो उन्हें ही है। फील्ड वर्क के दौरान कई निषादों ने इस तरह की बाते कही हैं।
किताब में निषाद समाज के राजनीतिक सबलीकरण की पड़ताल की गयी है, विभिन्न राजनीतिक दलों से उनके जुड़ाव की चर्चा की गयी है। अपने स्वाभिमान और सबलता के प्रतीक रूप में वे फूलन देवी को देखते हैं। जातिगत अस्मिता एवं स्वाभिमान के लिए एक सीमा तक इसका महत्त्व है लेकिन इस समाज का संकट इतने से हल होनेवाला नहीं है, क्योंकि आज भी आधुनिक साधनों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। उदाहरण के लिए बनारस में क्रूज के इस्तेमाल ने नौकायन के परंपरागत ढंग के धन्धे को बहुत प्रभावित किया है। कोरोना काल में तो अनेक परिवारों में अन्न का संकट उत्पन्न हो गया था।
किताब इन संकटों को विस्तार और गहराई से प्रस्तुत करती है। आदिकालीन साहित्य से लेकर अत्याधुनिक शोधों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ फील्ड वर्क एवं दस वर्षों के अध्ययन-अनुभव-चिंतन-मनन का समावेश इस पुस्तक में किया गया है। रमाशंकर सिंह घुमंतू जातियों के अध्ययन में संलग्न रहे हैं, उन्होंने व्यापक शोध एवं फील्ड कार्य किया है। इसीलिए इस किताब में नितांत शोध की शुष्कता नहीं, बल्कि विषय के साथ गहरी संलग्नता से उपजी हुई रसमयता एवं प्रवाह भी है। किंवदंतियों, कथाओं, लोकगीतों एवं आधुनिक कविताओं में बिखरे हुए निषाद जीवन के मार्मिक सूत्रों की चर्चा कर उन्होंने पुस्तक को रोचकता के साथ साहित्यिक आयाम भी दिए है।
नदियों पर आया संकट निषाद समाज ही नहीं, संपूर्ण मनुष्य समाज पर आए संकट से कतई अलग नहीं है। इसे संपूर्णता में देखना होगा और पूरे समाज को जागृत होना होगा। अभी हमारा ध्यान ज्यादातर गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों पर जा रहा है, जबकि कम दूरी वाली तमाम नदियां आज अतिक्रमण का शिकार हो नाले में तबदील हो गयी हैं या सूख गयी हैं। इनकी तो चर्चा तक नहीं होती। शायद इनके महत्त्व या इनके किनारे रहनेवालों के महत्त्व पर ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये नदियां बड़ी नदियों की नसों-नाड़ियों की तरह हैं, जब ये नदियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी तो बड़ी नदियों को भी नष्ट होने से कोई बचा नहीं पाएगा। इस मसले पर व्यापक अध्ययन के साथ ही व्यापक जन अभियान की भी जरूरत है, ताकि जनता एवं सरकार के रवैये में परिवर्तन हो। यह किताब इस अभियान यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
किताब – नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी
लेखक – रमाशंकर सिंह
मूल्य – 295/ मात्र
प्रकाशक – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा – 201301