क्या 2022 में घटेगी गरीबी और विषमता?

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14 अप्रैल। पहले महामारी, बढ़ती कीमतें और फिर यूक्रेन-रूस के बीच चलता युद्ध, इन सबने मिलकर यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या गरीबी के गहराते संकट में कुछ निजात मिलेगी या फिर 2020-21में जो सिलसिला शुरू हुआ था वो 2022 में भी जारी रहेगा। यदि दुनिया के मौजूदा हालात को देखें तो इस बात की संभावना बहुत कम है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट ‘2022 फाइनेंसिंग फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट रिपोर्ट : ब्रिजिंग द फाइनेंस डिवाइड’ के अनुसार महामारी के कारण उपजे वैश्विक संकट के चलते 2021 में करीब और 7.7 करोड़ लोग गरीबी के गंभीर स्तर पर पहुँच गए थे। इतना ही नहीं साल के अंत तक दुनिया की कई अर्थव्यवस्थाएँ दोबारा 2019 जितनी सबल नहीं हो पाएँगी।

रिपोर्ट का अनुमान है कि 2023 के अंत तक भी 5 में से एक विकासशील देश की प्रति व्यक्ति जीडीपी वापस 2019 के स्तर पर नहीं पहुँच पाएगी।

रिपोर्ट के मुताबिक कई विकासशील देशों के लिए कर्ज के बढ़ते बोझ और उसके ब्याज ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। ऐसे में उन्हें न केवल इस महामारी से उबरने बल्कि साथ ही अपने विकास खर्च में भी जबरन कटौती करने के लिए मजबूर किया है। इतना है नहीं इस बढ़ती समस्या ने भविष्य में इस तरह की आफतों का सामना करने की उनकी क्षमता को भी प्रभावित किया है।

कर्ज पर ब्याज के एवज में 14 फीसदी राजस्व खर्च कर रहे है कमजोर देश

जहाँ एक तरफ संपन्न देश बहुत ही कम ब्याज दरों पर उधार ली गयी भारी धनराशि की मदद से महामारी का सामना करने और उससे उबरने में सक्षम थे वहीं दूसरी तरफ सबसे पिछड़े देशों ने अपने कर्ज का भुगतान करने के लिए अरबों डॉलर खर्च किए थे जिसने उन्हें सतत विकास के मुदों में निवेश करने से रोक दिया था।

रिपोर्ट के अनुसार औसतन सबसे कमजोर विकासशील देश कर्ज पर लगनेवाले ब्याज के एवज में अपना करीब 14 फीसदी राजस्व खर्च कर रहे हैं, जोकि विकसित देशों की तुलना में लगभग 4 गुना ज्यादा है। गौरतलब है कि विकसित देशों के लिए यह आँकड़ा साढ़े तीन फीसदी है।

देखा जाए तो महामारी के चलते कई विकासशील देशों को अपने शिक्षा, बुनियादी ढाँचे और अन्य पूँजीगत व्यय के बजट में भारी कटौती करने को मजबूर होना पड़ा है। ऐसे में यूक्रेन में चलते युद्ध इन चुनौतियों को बढ़ा देगा, साथ ही उनके लिए नयी समस्याएँ पैदा करेगा।

ऊर्जा और वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, आपूर्ति श्रृंखला में पैदा होते व्यवधान, बढ़ती मुद्रास्फीति के साथ विकास की गति में आती गिरावट और वित्तीय बाजारों में बढ़ती अस्थिरता जैसी समस्याएँ और विकराल हो जाएँगी। देखा जाए तो इस महामारी के बीच वित्तीय साधनों की यह जो असमानता है वो सतत विकास के लिए बड़ा खतरा है।

कितनी गहरी है असमानता की यह खाई

अनुमान है कि महामारी ने न केवल देशों के भीतर बल्कि देशों के बीच भी असमानता को और बढ़ा दिया है। हालांकि महामारी से पहले भी देशों में असमानता की यह खाई काफी गहरी थी, और लगातार बढ़ रही थी। देखा जाए तो दुनिया की 10 फीसदी सबसे अमीर आबादी, विश्व की करीब 52 फीसदी आय पर काबिज है। वहीं सबसे कमजोर तबके की 50 फीसदी आबादी के पास वैश्विक आय का केवल 8 फीसदी हिस्सा है।

रिपोर्ट का मानना है, कि युद्ध के चलते कई विकासशील देशों में कर्ज और भुखमरी का संकट और बढ़ जाएगा। हालांकि इस युद्ध से पहले भी महामारी से उबरने का मार्ग और कठिन हो गया था। आँकड़ों के मुताबिक विकासशील देशों में हर 100 में से केवल 24 लोगों के लिए पर्याप्त टीके उपलब्ध हैं।जबकि विकसित देशों में यह उपलब्धता प्रति 100 लोगों के लिए 150 टीकों की है। ऐसे में महामारी का सामने करने में यह कमजोर देश कितने सक्षम हैं इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं।

चौंकानेवाली बात है कि 2021 में विकासशील देशों में 10 वर्ष के करीब 70 फीसदी बच्चे बुनियादी पाठ को भी पढ़ने में असमर्थ थे। 2019 की तुलना में देखें तो इस आँकड़े में करीब 17 फीसदी की वृद्धि आयी है। 2021 में खाद्य कीमतें पहले ही दशक के अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुकी हैं।

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र को डर है कि यूक्रेन में जारी संकट के चलते कई देशों में आर्थिक सुधार की रफ्तार धीमी पड़ सकती है। हालांकि विकसित देशों में महामारी के बाद बढ़ते निवेश के चलते आर्थिक विकास की दर दोबारा पटरी पर लौटने लगी है।

रिपोर्ट से पता चला है कि 2021 के दौरान दुनिया में गरीबी, सामाजिक सुरक्षा और सतत विकास के क्षेत्र में निवेश पर जो कुछ प्रगति हुई है वो विकसित और कुछ गिने-चुने बड़े विकासशील देशों में हुई कार्रवाई से प्रेरित है। इसमें कोविड-19 पर खर्च किए 1,293.6 लाख करोड़ रुपए भी शामिल हैं।

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि 2020 में आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) में रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गयी है जो बढ़कर अपने उच्चतम स्तर तक 12.3 लाख करोड़ पर पहुँच गयी है। 13 देशों ने इस दौरान ओडीए में कटौती की है। हालांकि देखा जाए तो इसके बावजूद विकासशील देशों की विशाल जरूरतों के लिए यह राशि पर्याप्त नहीं है।

इस बारे में संयुक्त राष्ट्र के अवर महासचिव लियू जेनमिन का कहना है कि विकसित देशों ने पिछले दो वर्षों में यह साबित कर दिया है कि कैसे सही निवेश की मदद से लाखों लोगों को गरीबी के भंवर से बाहर निकाला जा सकता है। उनके अनुसार सशक्त और स्वच्छ इंफ्रास्ट्रक्चर, सामाजिक सुरक्षा या सार्वजनिक सेवाओं की मदद से ऐसा कर पाना संभव है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय के विकास की आधारशिला इसी प्रगति पर निर्मित की जानी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विकासशील देश भी इसी स्तर पर निवेश कर सकें। साथ ही असमानता को कम किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वो शाश्वत ऊर्जा बदलावों को अपना सकें।

गौरतलब है कि इससे पहले ऑक्सफेम द्वारा जारी रिपोर्ट ‘फर्स्ट क्राइसिस, देन कैटास्ट्रोफे’ में भी दुनिया में बढ़ती गरीबी को लेकर कुछ ऐसे ही खुलासे किए थे। इसके अनुसार साल के अंत तक दुनिया भर में करीब 86 करोड़ लोग 145 रुपए (1.9 डॉलर) प्रतिदिन से कम में गुजारा करने को मजबूर होंगे। वहीं यदि उनकी आय का हिसाब 420 रुपए (5.5 डॉलर) प्रतिदिन के आधार पर लगाएँ तो 2022 के अंत तक दुनिया के करीब 330 करोड़ लोग गरीबी की मार झेल रहे होंगे।

विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट ‘इंटरनेशनल डेब्ट स्टेटिस्टिक्स 2022’ से पता चला है कि 2020 में पहले ही गरीबी की मार झेल रहे देशों पर 12 फीसदी की वृद्धि के साथ कर्ज का बोझ बढ़कर रिकॉर्ड 65 लाख करोड़ रुपए पर पहुँच गया था। वहीं यदि निम्न और मध्यम आय वाले देशों की बात करने तो उनपर कुल विदेशी कर्ज इस दौरान 5.3 फीसदी की वृद्धि के साथ बढ़कर 654.9 लाख करोड़ रुपए पर पहुँच गया है।

– ललित मौर्य

(Down to earth से साभार)

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