मधु लिमये की ज्ञान साधना

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— अजीत झा —

धु लिमये प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आंतरिक विवाद और अंततः टूट के दौरान लोहिया पक्ष के एक समर्थ और प्रमुख प्रवक्ता के तौर पर उभरे। उसके बाद वे लगातार जिस भी पार्टी में रहे यह भूमिका निभाते रहे। मेनिफेस्टो और प्रस्तावों के लिए हमेशा उन पर जिम्मेदारी डाली जाती रही। अपनी पार्टी के बाहर भी हर संयुक्त मोर्चे में उनकी बौद्धिकता की कद्र थी और उनकी लेखनी का लोहा माना जाता था।

अपनी पार्टी का सक्षम प्रवक्ता होने के अलावा उन्होंने पार्टी पर हुए हर सैद्धांतिक हमले की प्रतिक्रिया में, ईंट का जवाब पत्थर की शैली में दिया। पर जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर, ज्ञान की अनवरत साधना शुरू की तो उनकी विषयवस्तु के केंद्र में कोई पार्टी नहीं थी। राष्ट्रनिर्माण और सामाजिक प्रगति के लिए आधारों की तलाश, चुनौतियों की वस्तुपरक पहचान और पड़ताल उनके बौद्धिक कर्म के मुख्य मकसद बन गये। उनका नजरिया आलोचनात्मक था पर साथ ही साथ उसमें सहानुभूति भी थी और रचनात्मकता भी। वह उपलब्ध विचारधाराओं और अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के तौर पर उपलब्ध उपकरणों से आलोचनात्मक संवाद करके देश की बेहतरी के लिए राजनीतिक शक्ति का निर्माण करना चाहते थे। उनकी बौद्धिक साधना देश के मन को छूना चाहती थी और  तर्कबुद्धि पर आधारित विचारधाराओं को उदार बनाना चाहती थी। बदलती परिस्थितियों और उभरती चुनौतियों के अनुरूप बदलाव के लिए अपने लेखन के द्वारा वे प्रयासरत रहे।सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट विवाद हो या सोशलिस्ट-कांग्रेस विवाद, उनकी चिंता या रुचि के मुख्य विषय नहीं रह गये। वह इन सबके साथ साझा आधारों की तलाश कर रहे थे। कौन सही था, कौन गलत था, किस-किस को किन बातों के लिए माफी माँगनी चाहिए इसकी फेहरिस्त बनाने में वे अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करना चाहते थे।

क्या यह महज एक संयोग है कि जब वह हर दिन घंटों, पुस्तकों और दस्तावेजों को पढ़ रहे थे और लिख रहे थे, तब उन्होंने समाजवाद के बारे में या समाजवादी आंदोलनों के महानायकों के बारे में कोई महत्त्वपूर्ण लेखन नहीं किया। गांधी, नेहरू, पटेल, आम्बेडकर उनके लेखन के प्रमुख व्यक्तित्व थे। कांग्रेस किस दिशा में अपने को बदले और भारतीय राजनीति में एक प्रमुख और सार्थक भूमिका का निर्वाह करे, यह कामना उन्होंने की। सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट स्वयं को बदलें और आपस में तालमेल बढ़ाएं, यह उनका निष्कर्ष था।

आज जो भी मधु लिमये की बौद्धिक तपस्या से कुछ भी सीखना चाहते हैं, उन्हें उनके लेखन के इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए। खालिस्तान का आंदोलन, इंदिरा गांधी की हत्या, 1984 में सिखों की नृशंस हत्या, कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की जुगलबंदी, आरएसएस साम्प्रदायिकता की नयी आक्रामकता, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, देश के विभिन्न भागों तथा मुंबई आदि में दंगों का सिलसिला। इन सब के सामने पक्ष-विपक्ष, समाज, सरकार, प्रशासन और संवैधानिक संस्थाओं की विफलता, मधु लिमये के 1984 के बाद के लेखन का प्रमुख संदर्भ था।

भारतीय लोकतंत्र और भारतीय राष्ट्र चौतरफा खतरे से घिरा था। यह दौर, स्थायी संकट का संकेत दे रहा था। एक गुलाम देश में पैदा होने के कारण और राष्ट्रीय आंदोलन का एक सिपाही होने के कारण मधु लिमये राष्ट्रीय एकता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के आपसी सम्बन्धों और इनकी अनिवार्यता को अच्छी तरह समझते थे। इन आधारों के बिना समाजवाद की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, उन्हें इसका गहरा विश्वास था। इसलिए मधु लिमये ने गांधी, नेहरू, पटेल  को ‘हमारा नेता’ कहा, कांग्रेस का नेता नहीं कहा। आम्बेडकर को महानतम भारतीयों में एक बताया। उनके दलित आग्रह को राष्ट्र निर्माण की बुनियादी आधारशिला समझा।

सरदार पटेल किसी भी दृष्टि से समाजवादी नहीं थे, भारत छोड़ो आंदोलन के विशेष संदर्भ को छोड़कर, समाजवादियों का सरदार पटेल से और सरदार पटेल का समाजवादियों से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। आजादी के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया और रिश्तों में तनाव बना रहा। 1934 से ही समाजवादियों का लक्ष्य सरदार पटेल गुट का कांग्रेस नेतृत्व में प्रभाव कम करना और अंततः समाप्त करना था। सरदार पटेल भी समाजवादी दल की नीतियों और रणनीतियों को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए हितकर नहीं मानते थे और उन्हें कठोर अनुशासन में बांधना चाहते थे। क्योंकि आम धारणा के अनुरूप सरदार पटेल भी यह मानते थे कि नेहरू ही समाजवादियों के असली नेता हैं इसलिए उन्होंने नेहरू द्वारा समाजवाद के प्रचार पर भी आपत्ति की और कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनके द्वारा किये जा रहे समाजवाद के प्रचार को अनुशासनहीनता माना। गांधीजी समाजवाद और समाजवादियों के बारे में भिन्न दृष्टि रखते थे, इसलिए सरदार, समाजवादियों के खिलाफ अपनी नीति को कांग्रेस में पूरी तरह लागू नहीं कर सके और कांग्रेस के अंदर एक तनावपूर्ण एकता बनी रही।

इस पृष्ठभूमि के बावजूद मधु जी ने सरदार पटेल के बारे में एक बेहतरीन पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में भी उन्होंने सरदार पटेल से समाजवाद के बारे में अपने मतभेदों को छुपाया नहीं और ना ही आलोचना से बचे। पर उन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि समाजवाद, राष्ट्रनिर्माण का न तो एकमात्र आधार है और न ही हर स्थिति में सबसे महत्त्वपूर्ण। मधु लिमये ने सरदार पटेल के ऊपर अपनी पुस्तक का शीर्षक रखा “सरदार पटेल : सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता”। लोहियावाद, और सुव्यवस्थित! और वह भी राज्यसत्ता! उम्मीद है, सभी लोहियावादी एक बार ठिठक कर, इस शीर्षक के निहितार्थ को सोचेंगे, उचित समझेंगे तो आत्मसात करेंगे और राष्ट्र के साथ राष्ट्र-राज्य को भी अपनी चिंता और चेतना का हिस्सा बनाएंगे।

अन्त में मधु लिमये के शब्दों में, जो उन्होंने 15 दिसम्बर 1992 को लिखा था : “प्रश्न यह है कि आज के संदर्भ में सरदार पटेल का क्या महत्त्व है। इस समय देश के अधिकांश भाग में कानून-व्यवस्था भंग हो चुकी है। अपराधियों के गिरोह औद्योगिक क्षेत्रों में खुलेआम हत्याएं और लूट के काम कर रहे हैं। अपराधों का राजनीतिकरण हो गया है और सार्वजनिक जीवन प्रदूषित हो गया है। बम्बई, सूरत, अहमदाबाद आदि शहरों में दंगों से पता चलता है कि प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं बची है। शिव सेना और संघ परिवार के नेता संविधान और सुव्यवस्थित राज्य को खुली चुनौती दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में सरदार पटेल और उनकी व्यवस्थित राज्य की संकल्पना की ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक है।”

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