— आनंद कुमार —
भारत के समकालीन इतिहास को जानने की विश्वविद्यालयीय व्यवस्था में ब्रिटिश गुलामी की दो शताब्दियों में फैलाए गए अर्धसत्यों से पैदा धुंध में धरमपाल जी ऐतिहासिक तथ्यों पर नयी रोशनी डालनेवाले प्रकाशस्तंभ रहे हैं। इस योगदान के कारण भारत को जानने-समझने वाले जिज्ञासुओं के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत जानकारियाँ अमूल्य सिद्ध हुई हैं। लेकिन धरमपाल जी मात्र इतिहासकार नहीं थे। उनकी अनूठी जीवन-यात्रा में कई महत्त्वपूर्ण अध्याय थे। उनकी जीवन-कथा में रोमांचक विविधताओं के बावजूद एक निरन्तरता थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी और आजादी के बाद बरसों तक रचनात्मक कार्यक्रम के जरिये राष्ट्रनिर्माण के लिए गांधीधारा के स्वयंसेवकों का संगठन से लेकर भारत के चित्त की परिभाषा, भारत की गुलामी के प्रभाव का मूल्यांकन, भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनमत निर्माण, सत्याग्रह की परम्परा और विस्तार का प्रामाणिक प्रस्तुतीकरण, गो-वध की वीभत्स परम्परा में ब्रिटिश राज की भूमिका का सच बताना और भारतीय इतिहास और ज्ञान धारा का विऔपनिवेशीकरण उनके बहुमूल्य योगदान के महत्त्वपूर्ण आयाम थे।
भौतिक देह के शांत होने के बावजूद उनका कर्म-काय और विचार-काय दीर्घजीवी साबित हुआ है और उनका आकर्षण भारतीय शिक्षा व्यवस्था के स्वराजीकरण अर्थात विऔपनिवेशीकरण के फैलाव के अनुपात में बढ़ता जानेवाला है।
धरमपाल जी ने नि:संकोच गांधी को अपना सन्दर्भ-पुरुष माना। उनके जीवन-निर्माण में मीरा बहन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और जयप्रकाश नारायण का पारस-स्पर्श रहा। डा. राममनोहर लोहिया से भी उनकी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौर से ही निकटता थी। वह गांधी की कालजयी पुस्तक ‘हिन्द-स्वराज’ से उपजी बौद्धिक परम्परा के श्रेष्ठ प्रतीक और प्रवक्ता थे।
उनकी रचनाओं ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की विभिन्न प्रवृत्तियों से जुड़े व्यक्तियों और आन्दोलनों से जोड़ा क्योंकि धरमपाल जी के लिखने-बोलने की प्रामाणिकता ने मानसिक स्वराज के लिए प्रतिबद्ध सभी व्यक्तियों और मंचों को मजबूत आधार प्रदान किया।
उन्होंने बरसों ब्रिटेन में स्वांत: सुखाय शोध करने के बाद उम्र के अंतिम दशकों को भारत की नयी पीढ़ी के लिए समर्पित किया। उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी की लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में सघन लेखन किया। परिवर्तनकामी युवा संगठनों की छोटी गोष्ठियों से लेकर बड़े विश्वविद्यालयों तक में आयोजित हुए उनके व्याख्यानों ने अनगिनत लोगों को प्रभावित किया। अस्सी-नब्बे के दशक में हर भारत-प्रेमी के लिए धरमपाल जी को जानना एक गर्व की बात थी।
यह संतोष की बात रही कि धरमपाल जी के जीवनकाल में ही उनकी रचनाओं को पढ़ना और समझना नव-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों के लिए एक अनिवार्यता हो गयी। वह देश के हर महत्त्वपूर्ण केंद्र में संवादों के स्रोत बने। उनकी ओर गांधी-लोहिया-जयप्रकाश से प्रेरित सरोकारी बुद्धिजीवियों और सक्रिय नागरिकों, विशेषकर युवजनों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। क्योंकि धरमपाल जी ने गांधी के निष्कर्षों, लोहिया की मान्यताओं और जयप्रकाश की स्थापनाओं को तथ्यों का बल दिया।
यह ज्यादा दिलचस्प तथ्य है कि धरमपाल जी के बौद्धिक आकर्षण ने गांधी के दायरे के बाहर के विमर्शों को भी प्रभावित किया। उन्होंने भी अपने स्तर पर गांधीमार्गियों से गैर-गांधीवादियों को कम महत्त्व नहीं दिया। इसीलिए सेवाग्राम, गांधी अध्ययन संस्थान और गांधी शांति प्रतिष्ठान से लेकर ग्रामोदय विश्वविद्यालय तक वह जीवन के अंतिम दिनों तक समान सहजता से संपर्क में रहे।
हमारी पीढ़ी के लिए धरमपाल जी का शुरुआती परिचय आपातकाल के आतंकमय दौर में ‘फ्री जे. पी. कैम्पेन’ के संयोजक के रूप में हुआ। इस समिति का मुख्यालय लंदन में था। उस दौर में लोकनायक जयप्रकाश के समर्थन में बहुत कम लोग सामने आने का साहस दिखा पाये थे क्योंकि आगे आनेवाले अधिकांश सक्रिय भारतीयों का पासपोर्ट जब्त हो जाता था। घर-परिवार और रिश्तेदारों को पुलिस परेशान करती थी। देश लौटने का रास्ता बंद कर दिया जाता था। इसलिए जेलों में बंद नेताओं के विदेशों में रह रहे परिवारजन भी मुंह चुराते थे। ऐसे माहौल में धरमपाल जी का आपातकाल के विरुद्ध एक अंतरराष्ट्रीय मंच स्थापित करनेवालों का नेतृत्व करने का साहस दिखाना मामूली बात नहीं थी। इस समिति ने इंग्लैंड ही नहीं, समूचे यूरोप में आपातकाल का सच बताया था। ब्रिटिश राजनीतिक दलों से लेकर मजदूर संगठनों और मानवाधिकार संगठनों को एकजुट किया। जेपी समेत सभी राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की जेलों से रिहाई और आपातकाल के खात्मे का जून 1975 से मार्च 1977 तक सीमित संसाधनों के बावजूद लगातार असरदार दबाव बनाया। ‘फ्री जे. पी. कैम्पेन’ का और संयुक्त राज्य अमरीका में जेपी को माननेवाले भारतीय विद्यार्थियों और प्रवासियों द्वारा स्थापित ‘इंडियंस फॉर डेमोक्रेसी’ का परस्पर सहयोग का सम्बन्ध था। दोनों ने मिलकर श्री राम जेठमलानी, श्रीमती लैला फर्नांडीस, डा. सुब्रमण्यम स्वामी, श्री सी. जी. के रेड्डी, श्री देवीप्रसाद, श्री संगैय्या हिरेमठ आदि की व्याख्यान यात्राओं और पत्रकार वार्ताओं का संयोजन किया था।
लेकिन मुझे धरमपाल जी से मुलाकात और चर्चा का पहला मौका अगस्त, 1978 में लंदन में अपने शोधकार्य के दौरान ही मिला। उन दिनों प्रसिद्ध समाजवादी नेता श्री नारायण गणेश गोरे भारत के ब्रिटेन में उच्चायुक्त थे। उनकी गरिमामय उपस्थिति के कारण आपातकाल के विरोध में योगदान करनेवाले ‘फ्री जेपी कैम्पेन’ से जुड़े व्यक्तियों का भारतीय उच्चायुक्त के आयोजनों में विशेष ध्यान रखा जाता था। चूँकि आपातकाल का विरोध करने के कारण इंदिराजी की सरकार ने मेरी राष्ट्रीय शोध छात्रवृत्ति रद्द करके मुझे देश लौटने का आदेश देकर बहुचर्चित बना रखा था इसलिए धर्मपाल जी को मेरे बारे में पहले से जानकारी थी। फिर भी पहली ही भेंट में उनकी सहजता और आत्मीयता ने मुझे सदा के लिए उनका प्रशंसक बना दिया। लंदन के एक साधारण हिस्से में उनकी छोटी सी गृहस्थी तब कठिन दौर से गुजर रही थी। उनकी पत्नी को गंभीर मानसिक अस्वस्थता की शिकायत हो चुकी थी। बेटी गीता की शिक्षा चल रही थी। सादगीपूर्ण जीवनशैली के बावजूद आर्थिक कठिनाइयां थीं। जेपी की रिहाई और आपातकाल समाप्त होने के बाद वह अपने शोधकार्य में फिर से जुटने की कोशिश में थे। लेकिन निजी जीवन का यह चिंताजनक पक्ष उन्हें हमारे जैसे लोगों की मदद करने में बाधक नहीं था। उनकी उदारता के कारण ही 1978 के उन छह महीनों के लंदन प्रवास में दो-तीन लम्बी चर्चाओं का सौभाग्य मिला। बाद में मैं अक्टूबर 1979 से काशी विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन करने लगा और 1989 तक रहा। इस दौरान वह कई बार वाराणसी के गांधी विद्या संस्थान के कार्यक्रमों में आए। इन यात्राओं के दौरान उनके प्रशंसकों द्वारा बीएचयू में आयोजित गोष्ठियों में मुझे भी बुलाया गया। कभी वक्ता और श्रोता के रूप में। एकाध बार अध्यक्षता के लिए।
1990 से मैं दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन करने आ गया और वहां भी उनकी दिल्ली यात्राओं के दौरान गांधी शांति प्रतिष्ठान, गांधी स्मृति दर्शन समिति और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आयोजित गोष्ठियों में उनसे संपर्क बना रहा। लेकिन तबतक उनकी कई किताबें और जनसत्ता में अनेकों लेख सामने आ चुके थे। उनकी शैली नहीं बदली थी– बातचीत वाले अंदाज में अपनी जानकारियों को, बिना दूसरों का मूर्तिभंजन किये, रखना बहुत आकर्षक लगता था। लेकिन उनके श्रोताओं में जानकार लोगों की तादाद बढ़ चुकी थी। प्रभाष जोशी, राजकुमार जैन, अनुपम मिश्र, बनवारी, राजीव वोरा और रामबहादुर राय जैसे विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति अप्रत्याशित नहीं लगती थी। फिर भी वह लंबा वक्तव्य देने के बजाय परिचित-अपरिचित श्रोताओं के सवालों को अपनी संकोच भरी मुस्कान से सुलझाने को ज्यादा महत्त्व देते थे। अपनी ही नयी-पुरानी किताबों को पढ़ने का दबाव पैदा करने की जगह दादाभाई नौरोजी, श्रीअरविन्द, टैगोर, गांधी द्वारा रेखांकित तथ्यों और स्थापित मान्यताओं के इर्द-गिर्द शंका-समाधान करते थे।
मेरी आखिरी मुलाकात के समय वह भारत सरकार द्वारा उनकी अध्यक्षता में गौ-हत्या को समाप्त करने के लिए उपायों सम्बन्धी समिति का काम पूरा कर चुके थे। गांधी के नाम पर चल रहे संगठनों से लेकर नयी पीढ़ी के वैज्ञानिकों-समाजकर्मियों की अंदरूनी समस्याओं से अनेकों खट्टे-मीठे साक्षात्कार कर चुके थे। अधिकांश लेखन के प्रकाशित और चर्चित होने का अनुभव भी मिल गया था। लेकिन यश-शिखर पर स्थापित हो चुके धरमपाल जी को इस भेंट में आशा और निराशा से परे पाया। वह कर्तव्य-पालन के संतोष से भरपूर थे। शरीर की बढ़ती थकान के बावजूद आगे की कई योजनाओं के बारे में उत्साहित थे। हमने उनसे बात शुरू करते समय सरकारी समिति के अनुभव बताने का आग्रह किया था। उन्होंने निर्विकार भाव से कुछ कह के बात का रुख नयी पीढ़ी में ‘हिन्द-स्वराज’ के प्रति बढ़ रही जिज्ञासा की ओर मोड़ दिया। फिर कनाडा में ‘हिन्द-स्वराज’ पर कार्यरत प्रो. अंथनी परेल और वर्धा में सक्रिय गांधी विचार परिषद् के कामों की प्रशंसा की। इससे हमें भी कर्तव्य बोध हुआ और उनकी प्रेरणा से सत्याग्रह और हिन्द-स्वराज के शताब्दी वर्षों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दो कामयाब समागमों का आयोजन कराया गया।
धरमपाल जी आधुनिक भारत के असाधारण ज्ञानसाधक और कर्मयोगी थे। उन्होंने भारत और ब्रिटेन को अपने जीवन में समेटा था। उन्होंने भारतीय संस्कृति और यूरोपीय समाज व्यवस्था को नजदीक से समझा था। इससे उनमें अहंकार रहित आत्म-विश्वास का बाहुल्य था।
धुंध में भी रौशनी पर नजर रखना और हर अंकुरित हो रहे बीज को संरक्षण देना धरमपाल जी का विशिष्ट गुण था। उनके व्यवहार में ज्ञान के प्रकाश और व्यक्तित्व की विनम्रता का दुर्लभ संयोग था। उनकी ज्ञान साधना में भारत के आत्म-विश्वास के पुनर्निर्माण और भारतीय विद्या व्यवस्था के विनिवेशीकरण की प्रेरणा थी। उनके सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन द्वारा उत्पन्न स्वराज धारा को प्रवहमान और प्रभावशाली बनाने की संभावनाओं को बेहतर करने की कामना थी। वह हमारी पीढ़ी के लिए आकर्षक और अनुकरणीय रहे क्योंकि उन्होंने स्वाधीनोत्तर भारत की स्वराज साधना को आगे बढ़ाया। आनेवाले दौर में भी उनका योगदान प्रेरणा स्रोत बना रहेगा क्योंकि धरमपाल जी के एक भी लेख या किताब को पढ़ना अपने दिमाग पर पड़ी धूल को पूरी तरह से साफ करने का उत्साह पैदा करता है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय….
बहुत सार्थक एवं उत्साहवर्धक लेख
धरमपालजी पर आपका लेख पढ़ कर कत्तई खुशी नहीं हुई।लंदन में अध्ययन करके 18वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान और टेक्नोलॉजी, सिविल नाफरमानी तथा शिक्षा व्यवस्था पर उनकी किताबें निश्चित ही महत्वपूर्ण हैं।सती प्रथा,जाति प्रथा तथा लोकतंत्र के प्रति उनकी आपत्तियों के कारण स्वाभाविक तौर पर वे भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के निमंत्रित सदस्य रहे।वहां कुंठित होकर थोक में नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या का प्रयास भी किया।दिवराला में सती कांड के बाद किशन पटनायक ने बनवारी को पत्रनुमा लेख भेजा था,उन्होंने नही छापा तब राजेन्द्र यादव ने हंस ने छापा।’सती प्रथा पर भारतीयतावादियो से कुछ सवाल’।विकल्पहीन नहीं है दुनिया में लेख है।PPST में कुछ साथी संघ वाली धारा से अलग रहे।उनसे संवाद होगा तब भी जाति प्रथा,स्त्री पुरुष समता पर दकियानूसी विचारों से मुकाबला होगा ।मुझे दुख है कि आपको लगा कि धरमपाल पर आपके लेख से मुझे ख़ुशी होगी।आपको आपातकाल में उनसे संपर्क,संवाद का मौका मिला।मुझे राजघाट , काशी में बात करने का मौका मिला था।