गांधी, आंबेडकर और पूना पैक्ट

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— डॉ सुरेश खैरनार —

बाबासाहेब आंबेडकर की 131वीं जयंती पर पूरी रात जागकर देखा पूना पैक्ट का असली विवरण! मैंने डीजी तेंदुलकर जी द्वारा लिखित महात्मा गांधी की वृहत जीवनी के खंड 3 से ज्यादातर संदर्भ सामग्री दी है ! ‘क्राइ फॉर जस्टिस’ (1932) इस नाम से पेज नंबर 166 से 178 का यह संपूर्ण बारह पेज का कालक्रम से ब्योरा दिया गया है। इसके अलावा महात्मा गांधी के सचिव प्यारेलाल की ‘एपिक फास्ट’ नाम की किताब सिर्फ पूना पैक्ट के ऊपर ही लिखी हुई है ! मैंने इन दोनों किताबों की मदद लेकर यह लेख लिखने की कोशिश की है !

महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ डॉ भीमराव आंबेडकर’ के खंड देख रहा था तो अचानक ही खंड 20 में देखा कि ‘बहिष्कृत भारत’ में खुद बाबासाहब ने महात्मा गांधी के रंगून के भाषण का संदर्भ दिया है। महात्मा गांधी के खिलाफ जाति व्यवस्था के समर्थन की बात कुछ खास तत्त्व अपने संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य के लिए कर रहे हैं तो मुझे लगा कि इस संदर्भ के जरिए जाना जाए कि वास्तविकता क्या है?

मेरे एक दोस्त दलित विद्वान हैं और खुद उन्होंने मुझे यह बताया कि कांशीराम जब पुणे में डिफेंस की नौकरी कर रहे थे तो वह नियमित रूप से मेरे घर आते थे और उन्होंने कहा “कि कुछ दिनों बाद मुझे राजनीतिक दल के काम में लगना है! तो मुझे कोई शत्रु चाहिए और वह आज मिल गया है !” मैंने हैरानी से पूछा कि “वह शत्रु कौन है?” तो कांशीराम जी बोले कि महात्मा गांधी! मैंने हैरानी से पूछा कि वह कैसे? तो कांशीराम जी ने कहा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह लिखा है कि “मैं बचपन में जाति मानता था!” और पूना पैक्ट उन्होंने अपनी उसी मानसिकता के कारण किया था, बाबासाहब पर दबाव बनाने के बाद उन्हें हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया था !” तो मेरे दलित बौद्धिक मित्र बोले कि कांशीरामजी, आपका यह कदम बहुत ही गैरजिम्मेदाराना है !

पूना पैक्ट के बाद खुद बाबासाहब आंबेडकरजी ने कहा कि यह महात्मा गांधी जी का मेरे लिए नया परिचय है ! मुझमें और गांधीजी में जो साम्य है वह मुझे चकित करता है ! शुरू में हममें मतभेद थे। लेकिन जब-जब मैंने मतभेद के मुद्दे उनके सामने रखे तो वह मेरी तरफ से खड़े नजर आ रहे थे। मुझे एक छोटे से व्यूह से बाहर निकालने के लिए महात्मा गांधी जी का मैं ऋणी हूँ !

और यही भूमिका उन्होंने गोलमेज परिषद में क्यों नहीं ली इसी बात का अचरज हो रहा है! और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड सिर्फ 97 आरक्षित सीटें दे रहे थे और पूना पैक्ट के बाद 147, मतलब और भी आधे से ज्यादा सीटें मिली हैं ! तो आप पूना पैक्ट की आड़ में गांधीजी को बदनाम करने का अभियान चलाने के लिए सोची-समझी साजिश करने जा रहे हैं यह कहां तक ठीक है? लेकिन कांशीरामजी और बाद में उनकी चेली आज कौन सी ताकतों को पुष्ट करने की रणनीति चला रही हैं? उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में हिंदुत्ववादियों को छोड़कर, सिर्फ समाजवादियों को शत्रुओं की जगह पर दिखाना क्या कांशीराम जी की शुरुआत की गलती को दोहराने का काम बहनजी नहीं कर रही हैं?

हिंदू धर्म और अस्पृश्यता के संदर्भ में महात्मा गांधी ने रंगून (वर्तमान समय के म्यांमार की राजधानी) की सभा में कहा था-
“In the race of life in the which all the religion’s of the World are today engaged, I think, either Hinduism has got to perish or Untouchability has to be routed out completely, so that the fundamental fact of Advaita Hinduism may be realised in practical life.”  मतलब दुनिया के सभी धर्मों में अपने-अपने अस्तित्व के लिए जो स्पर्धा जारी है, उसमें हिंदू धर्म को नष्ट हो जाना चाहिए, या अस्पृश्यता का समूल निर्मूलन होना चाहिए ! तो ही अद्वैतवादी हिंदू धर्म के जीवन का अभिन्न अंग बनना चाहिए ! यह महाराष्ट्र शासन की तरफ से छपे बाबासाहब के Dr. BABASAHEB AMBEDKAR WRIGHTINGS AND SPEECHES VOL. 20, ‘बहिष्कृत भारत’ के 15 मार्च के अंक से दिया गया उद्धरण है ! पेज नंबर 72 में देखने के बाद ! महात्मा गांधी के खिलाफ जातीयता के समर्थन का आरोप कितना हास्यास्पद है? यह पूना पैक्ट के पहले का गांधीजी के वचन हैं !

दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत आने के बाद कोचरब के आश्रम की शुरुआत करने के साथ-साथ, गांधीजी ने एक अस्पृश्य पति-पत्नी को भी अपने आश्रम में रहने की इजाजत दी तो कुछ आश्रमवासियों ने आपत्ति जताई थी, जिसे गांधीजी ने सिरे से खारिज कर दिया था ! यह देखकर अहमदाबाद के कुछ धनी लोगों ने गांधीजी को धमकाया कि अगर वह अस्पृश्य पति-पत्नी को आश्रम से बाहर नहीं निकालते तो वे आश्रम को आर्थिक सहायता देना बंद कर देंगे। गांधीजी ने कहा कि आप लोग भले ही आर्थिक मदद देना बंद कर दीजिए लेकिन मैं इस जोड़ी को आश्रम से नहीं निकालूंगा !

यह रंगून की सभा से पंद्रह साल पहले का वाकया है जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद अपने पहला आश्रम अहमदाबाद के पास कोचरब नाम की जगह पर बनाया था ! फिर उसके बाद साबरमती नदी के किनारे पर दूसरा आश्रम स्थापित किया था।

आश्रम में चरखे के ऊपर सूतकताई होने लगी लेकिन बुनाई का कोई जानकार नहीं था! एक दलित परिवार को बुनाई आती थी तो उन्हें भी आश्रम में दाखिल कर लिया। उसका भी विरोध हुआ।

गांधीजी ने कहा कि जिन्हें छुआछूत का पालन करना हो वे आश्रम छोड़कर जा सकते हैं ! जिसमें उनकी विधवा बहन भी थीं ! गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत तक जितने भी आश्रम रहे हैं उनमें सभी जातियों तथा संप्रदायों के लोग रहते थे ! छुआछूत तो दूर की बात थी, ब्राह्मणों से पाखाना साफ करने से लेकर मरे हुए गाय-बैलों का चमड़ा निकालने के काम में अप्पासाहेब पटवर्धन जैसे कोकणस्थ ब्राह्मण ने विशेषता हासिल की ! और उसी परंपरा को निभाने के लिए और भी लोग आज भी वह काम कर रहे हैं !

और गांधीजी ने संकल्प लिया कि आइंदा किसी भी सजातीय विवाह में मैं शामिल नहीं होऊंगा ! सिर्फ उसी विवाह में शामिल होऊंगा जिसमें वर-वधू में एक दलित और एक सवर्ण हो ! और इस कारण उनके निजी सचिव और पुत्रवत महादेव देसाई के एकमात्र बेटे नारायण की शादी भले गुजरात और ओड़िशा के ब्राह्मण के बीच थी लेकिन उन्होंने कहा कि “नारायण मुझे माफ करना, मैं तुम्हारी शादी के समारोह में भाग लेने नहीं आ सकता !”

सफाई भंगी का काम, मरे हुए जानवर का चमड़ा उतारने का काम पारंपरिक तौर पर ढोर नाम की जाति के लोग करते रहे हैं। मनुस्मृति के अनुसार इन कार्यों के कारण ही ऊंच-नीच और छुआछूत की प्रथा शुरू हुई!

जाति का जो पचड़ा हिंदू धर्म में हजारों सालों से जारी है उसे तोड़ने के लिए इस तरह के प्रयोग महात्मा गांधी के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं ! तो जाति निर्मूलन का इससे कारगर उपाय और कौन सा हो सकता है?

गांव-समाज है और उनकी रोजमर्रा की आवश्यकता है कि सफाई, चप्प-जूते बनाने के लिए तथा लुहार काम, कारपेंटर तथा मिट्टी के बर्तन बनाने से लेकर, जिसे मराठी भाषी में बलुतेदार बोलते थे, जो किसानों के लिए जरूरी सामान बनाने या मरम्मत करने का काम किया करते थे ! अब यह व्यवस्था कहां तक टिकी हुई है यह एक शोध का विषय है। लेकिन महात्मा गांधी के आश्रम में रहकर इन सभी कार्यों में जिसे जो पसंद हो वह करता है भले ही वह किसी भी जाति का क्यों न हो ! इससे बड़ा तथाकथित जन्मना कर्मविपाक सिद्धांत का विरोध और कौन-सा हो सकता है ?

बोले तैसा चाले- तुकाराम महाराज के इस वचन के अनुसार मेरा जीवन ही मेरा संदेश है कहनेवाले महात्मा गांधी के खिलाफ बदनामी की मुहिम कभी-कभी कम्युनिस्ट, मुस्लिम लीग भी चलाते रहे हैं, संघ और हिंदुत्ववादियों द्वारा तो हत्या करने तक के कदम उठाए हैं और आंबेडकर के अनुयायियों ने भी महात्मा गांधी के पूना पैक्ट और अन्य वचनों को तोड़-मरोड़ कर सतत बदनामी की मुहिम चला रखी है ! मेरी सिर्फ एक ही प्रार्थना है कि इस तरह की हरकतों का लाभ कौन-सी शक्तियों को पुष्ट करने के लिए हो रहा है? इतना अवश्य सोचेंगे!

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