राम जन्म पाठक की सात कविताएँ

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

रात : एक

 

रात, गहरी रात है

डूबता है एक सितारा और अपनी गर्त में

बाँहों में सिमटता जा रहा हूँ उस अमा के

खाँसती है चाँदनी और फिर

मखमली सपने तिमिर में  डोलते हैं

पर, नहीं कुछ बोलते हैं

और एक मकतूल अपना ही जनाजा यों उठाए जा रहा है

एक ही तो रात है

बीत जाएगी, रीत जाएगी कुटिल सत्ता भी आखिर एक दिन।

और तब,  तुम तब भी इसी छल को बल कहोगे

सूखते हैं गात सबके एक दिन

उनके भी जो स्वर्णावलेहलसित हैं

तनिक सोचो, सोचो तनिक

वधिक होने में भला क्या मिलता रहा है तुम्हें

 

रात : दो

 

एक रुनझुन तुम्हारी है, झनकती रात प्यारी है

अलसाया हुआ वह एक सूरज

है उदित होने को आतुर

उदयाचल पर कौन दस्तक दे रहा है

डोलती है नाव डगमग

और मैं विरही, हजारों बार का शापित

तुम्हारे उर से निष्कासित भँवर की पतवार लेकर

बढ़ रहा हूँ घोर माया के डगर में

कामना के पंख सब टूटे हुए हैं

लुट चुका है बाजार

और, रात, फिर बेबात  पागल हो रही है

हँस रही  है सर्पिणी सी

 

रात : तीन

 

घुग्घू घूरते हैं,  सरसराती रैन में

बेचैन परछाइयों के पाछे-पाछे भागती हैं लोमड़ियाँ, हुआँते हैं सियार

दूर, उस पार मरजीवणों की तीव्र उठती चिरायंध

रगड़ खाती हैं टहनियाँ

और फिर धधक उठता है दावानल

रक्तरंजित दिशाएँ कूकती हैं

छूटती है महानिल की धार

जंगजू जख्मी पड़े हैं हर तरफ

सहस्रों वासुकि फण फुलाए घूमते हैं

झूमते हैं आक्षितिज रजनीचर।

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

रात : चार

 

है अनिश्चय, चतुर्दिक है चीत्कार

महातम की अँधेरी घिरी यह,  छाया उजड्ड

लील ले गर सकत है तुझमें

बुझ चुके हैं बस्तियों में दीप

रात, ठंडी-बर्फीली हवाओं से लसित है

हो रही है उद्विग्न, फिर यमुना की धारा

तेरे ही तट पर टूटे हैं हजारों लश्कर, खूनोखच्चर

श्यामल नीर में टहलता है आज फिर कालिदह

नहीं है कोई नागनथैया

भयभीत है गोकुल, बरसाना, मथुरा सब

क्षीण होती जा रही है बाँसरी की लय

मुँह में चाबुक दबाये, टहलते हैं बूटों के बूट

सुलतानी शमशीर रही सपनों का सीना चीर

और, रात लट लटकाये शयनातुर हो गयी है।

 

रात : पाँच

 

ढाटा बाँधे घूमते हैं आततायी, गुफाओं में चल रही है तस्दीक

कोड़े फटकारता है वर्दीधारी, टूटती है दहाड़

दरारा खाती हैं चट्टानें, मुस्कानें हो रही हैं क्रूर और क्रूर

मगरूरियत की दीवार में मन रो रहा है।

है नहीं अब आस, फकत एक वह एक भी आस

कवि कह गया है

जाके आँगन है नदी, सो कस मरे पियासु बिन

पूर्वज हैं जो, निराला औ मुक्तिबोध, यह नया कवि  पूछता है उनसे राह,

वे भी हैं हक्का-बक्का

कह रहे हैं, रात अभी अपना रातपन बढ़ाएगी

गढ़ाएगी अभी और दुख की चासनी।

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

रात : छह

 

सो रहा है, नींद में संसार

जागती है एक टिटह

री झींगुर पढ़ रहे हैं वेद

एक काला भैंसा, थूथन फुलाए, दौड़ता है

फोड़ता है अपना माथा,

प्रस्तर मूर्ति पर

मूर्ति वह गांधी बाबा की है

तमिस्रा सहस्रों बरस की दूरी पर जैसे ले रही है टोह

हां, देखो, आ गये न मेरे फंदे में

धंधे की हमारी रीति ही ऐसी है कुछ

अभी तो सरोवर हिल रहा है, फूटती लगती है उजास

अभी वह

लालिमा की ओट

मन रमने लगा है

थमने लगा है जग का रौरव नाद।

 

रात : सात

 

यामिनी, तेरे हृदय का रक्त अब ठंडा हुआ जाता

है आखिर

अपलक, दीखता है भोर का तारा, हमारे पाँव थर-थर काँपते हैं

चाँपता ही जा रहा है कोई कंठ मेरा

और, दिल में  जल रही है अगन

अगन की धुधकार बढ़ती जा रही है

अरमानों ने बीती रात की हो खुदकुशी जैसे

गले में अटकी हुई है फाँस

साँस को भी चाहिए होता है थोड़ा रास्ता प्यारे

आ रहे हैं अश्वारोही

अचूक रखना होगा शरसंधान।

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