मधु जी को याद करने का अर्थ है एक सपने को याद करना

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)


— अरमान अंसारी —

यह महज संयोग है कि जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, उसी वर्ष में मधु लिमये का शताब्दी वर्ष भी चल रहा है। आजादी के आंदोलन के सिपाही रहे मधु जी आजादी के बाद भी आजीवन राष्ट्रीय आंदोलन के दरम्यान देखे गए सपनों के सिपाही बने रहे। वे एक सशक्त समाजवादी होने के साथ-साथ एक प्रखर समाजवादी चिंतक रहे। स्वतंत्रता के पश्चात, स्थितियों में तेजी के साथ बदलाव आया। इसका प्रभाव मधु जी पर पड़ना स्वाभाविक था। उन्होंने तमाम तरह के विमर्श में हस्तक्षेप किया। पूरी प्रखरता के साथ अपनी बातों को रखा, मुक्तिबोध से शब्द उधार लेकर कहें तो समय-समय पर अपनी पोलिटिक्स को विकट से विकट परिस्थितियों में परिभाषित किया।

मधु जी के चिंतन के केंद्र में प्रमुख रूप से आजादी के आंदोलन के दरम्यान देखे गए सपने थे। एक सिपाही के लिए इससे बुरा क्या हो सकता है कि उसके द्वारा देखे गए सपने, जिसके लिए उसने संघर्ष किया हो, उसकी नजरों के सामने एक-एक कर टूटने लगें, ऐसी स्थिति में उसकी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, हमें निश्चित रूप से आजादी के आंदोलन के दरम्यान देखे गए सपने को याद करने और उसकी आलोचनात्मक समीक्षा करने की जरूरत है।

हमें मधु लिमये के जीवन और राजनीति को दो भागों में बांटकर देखना चाहिए। पहले भाग में एक क्रांतिकारी समाजवादी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में, वहीं दूसरा भाग एक दार्शनिक राजनेता और समाजवादी चिंतक के रूप में हो सकता है।

जहाँ तक जीवन के पहले भाग का प्रश्न है, मधु जी का यह जीवन भी असाधारण क्रांतिकारी रहा है। वे अपने विद्यार्थी जीवन में समाजवादी विचारों से प्रभावित होते हैं, छात्र आंदोलन में भाग लेते हैं, आजादी के आंदोलन के सिपाही के रूप में जो भी जरूरी होता है अपनी जान को जोखिम में डालकर वह सब करते हैं। इस प्रक्रिया में 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भूमिगत होकर अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन के साथ मिलकर आंदोलन चलाते हैं।एस.एम.जोशी और अच्युत पटवर्धन के साथ मिलकर ‘क्रांतिकारी’ मराठी पत्रिका की शुरुआत करते हैं। 1943 में डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत गिरफ्तार कर लिये जाते हैं, जो जुलाई 1945 तक बिना किसी मुकदमे के हिरासत में रखे जाते हैं।

स्वतंत्र भारत में भी, श्री लिमये के लिए रास्ता आसान नहीं दिखाई पड़ता है। देश तो आजाद हो चुका था लेकिन अभी गोवा पुर्तगालियों के कब्जे में था। तब की भारत सरकार, गोवा की मुक्ति के लिए कुछ करती दिखाई नहीं पड़ती थी। ऐसी  स्थिति में राममनोहर लोहिया और मधु लिमये जैसे समाजवादी कार्यकर्ता कैसे चुप रह सकते थे। लोहिया के साथ मिलकर मधु लिमये ने सत्याग्रह के रास्ते पर चलने का फैसला किया।नतीजतन गोवा मुक्ति आंदोलन में उन्हें भयंकर यातना दी गयी,19 माह तक पुर्तगाली कारावास में कठोर जीवन बिताना पड़ा, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी डायरी में किया है।

इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर जिस प्रकार लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश की गयी, एक सच्चे समाजवादी के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल था। मधु जी को भी इसका परिणाम भुगतना पड़ा, आपातकाल के दरम्यान मीसा के तहत 19 महीने मध्य प्रदेश की विभिन्न जेलों में रहे।

मधु लिमये जी अपने जीवन के दूसरे भाग में एक दार्शनिक राजनेता व चिंतक के रूप में नजर आते हैं। 1983 में लिखी गयी अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा’ में मधु जी ने कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की है। इन चर्चाओं में गुलामी की मानसिकता के शिकार हो चुके बुद्धिजीवियों को वे झंकृत करते हैं, सोचने-समझने की वैकल्पिक दृष्टि की ओर प्रेरित करते हैं। अक्सर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भारत की गुलामी का बड़ा कारण भारत की परंपरागत उत्पादन पद्ति को मानता है। उसका मानना है कि पश्चिम में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी जिसकी वजह से यंत्रों द्वारा सस्ता उत्पादन हो रहा था। सस्ते उत्पादन की प्रतिस्पर्धा में भारत के घरेलू उद्योग टिक नहीं पाये। इस प्रकार उन्होंने भारत के बाजार पर कब्जा कर लिया।

मधु जी इसे कम्युनिस्टों द्वारा फैलायी गयी भ्रांति मानते हैं। वे इसके लिए मार्क्स की चर्चित पुस्तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ की पड़ताल करते हैं। उनका मानना है कि अंग्रेजों ने कभी भी भारतीय बाजार में खुली और न्यायोचित स्पर्धा नहीं की।हिन्दुतान में अंग्रेजों ने अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में सस्ता माल बेचकर प्रभाव जमाया। हथियार, नाविक तथा अन्य साम्राज्यवादी तरीकों का इस्तेमाल कर और भारतीय उद्योगों को बर्बाद किया। ऐसा अंग्रेजों ने न केवल शासन के प्रारम्भ में किया बल्कि बाद में भी राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल भारतीयों के खिलाफ और इंग्लैंड के उद्योगों के हित में किया।

मधु जी का मानना है कि न्यायपूर्ण स्पर्धा में कभी पूंजीवाद भारतीय बाजार पर हावी नहीं हो पाता। इस प्रकार ‘अंग्रेजों की हुकूमत के अधीन भारतीय समाज’ में कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों की तरफ वे इशारा करते हैं। ऐसा मधु जी अंग्रेजों और उनकी संस्थाओं द्वारा दिए गए तथ्यों के आधार पर करते हैं। 18वीं शताब्दी के मध्य में बंगाल की राजधानी मुर्शीदाबाद की जो समपन्नता थी, उसके बारे में इंडस्ट्रीयल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है : “यह शहर बहुत विस्तृत है, बहुत ज्यादा आबादीवाला और समृद्ध है। इसकी तुलना लंदन से की जा सकती है। फर्क इतना है कि मुर्शीदाबाद में लंदन से भी धनी और सम्पन्न लोग हैं।”

भारत की गरीबी के पीछे प्रमुख कारण के तौर पर बढ़ी हुई जनसंख्या का जिक्र करने का रिवाज है। मधु जी इसका प्रतिवाद करते हैं। वे आंकड़ों के साथ बताते है कि उन्हीं दिनों में भारत की जनसंख्या की तुलना में इंग्लैंड की जनसंख्या आठ गुना बढ़ी, इंग्लैंड के लोग दुनिया भर में फैल गए, इसलिए उनकी जनसंख्या दिखाई नहीं पड़ती है। दरअसल भारत की गरीबी के पीछे औपनिवेशिक शोषण व दमन रहा है।

इसी पुस्तक में मधु जी ने न्याय प्रणाली, अंग्रेजी सैन्य प्रबंधन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पृष्ठभूमि आदि-आदि शीर्षक से कई महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का जिक्र करते हैं। इसमें कांग्रेस की पृष्ठभूमि के संबंध में कांग्रेस की विकास यात्रा को समझना दिलचस्प दिखाई पड़ता है। कांग्रेस की स्थापना एक सुधारवादी संस्था के रूप में हुई थी लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करने लगी, अन्तोगत्वा उसे प्राप्त भी किया। मधु जी ‘राष्ट्रवाद और जिन्ना’, ‘जिन्ना और पाकिस्तान’ शीर्षक से जो विश्लेषण करते हैं, उसे गंभीरता से समझने की जरूरत है। जिन्ना अपने शुरुआती दिनों में घोर राष्ट्रवादी थे।उनमें धर्म व साम्प्रदायिकता का कोई तत्त्व नहीं था। कांग्रेस नेतृत्व की नाकामी की वजह से जिंन्ना अपने को हाशिये पर महसूस करने लगे। 1937 के चुनाव में मुस्लिम बहुल इलाकों में भी कांग्रेस की जीत हुई लेकिन इससे कांग्रेस के अंदर सर्वशक्तिमान होने का घमंड हो गया। मुस्लिम लीग और उसके नेताओं को अपने साथ जोड़ने के बजाय उन्हें हाशिये पर करने की रणनीति पर कांग्रेस ने काम किया।

इसके परिणामस्वरूप नफरत का वातावरण बढ़ता गया, और अन्तोगत्वा देश का विभाजन हुआ। जिन्ना को इस्लाम से कुछ भी लेना-देना नहीं था लेकिन उन्हें अन्ततोगत्वा धर्म के नाम पर देश बनाने में कामयाबी मिली। मधु लिमये विभाजन के तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं : “जिन्ना चाहते थे कि अपना अलग राज्य बनाकर उसका सुल्तान बन जाएं। नेहरू-पटेल भी चाहते थे कि खंडित भारत ही सही, हमें राज करने का कुछ तो मौका मिलेगा। यह दोनों पक्षों की महत्त्वाकांक्षा थी, दोनों में सहयोग और सहअस्तित्व की भावना नहीं थी। जो बात 1928 में स्पष्ट दिखाई दी थी,1936-37 में जो फिर स्पष्ट हुई, वही बात फिर से कैबिनेट मिशन प्लान, त्रिमंत्री योजना के समय भी अभिव्यक्त हुई।

द्विराष्ट्रवाद का जहर केवल मुसलमानों में ही नहीं बल्कि कुछ हिन्दू नेताओं में भी घर कर गया था। उदाहरण के लिए  सावरकर साहब ने हिंदू महासभा के मंच से अपने अध्यक्षीय भाषण में 1937 में कहा था : हिन्दुतान को एक सूत्र में बॅंधा हुआ और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता है, बल्कि उसमें दो राष्ट्र हैं। मुख्यतः दो हैं, एक है हिन्दू और दूसरा है मुसलमान।” मधु जी का विश्लेषण आज के माहौल में भारत में बढ़ रही साम्प्रदायिकता और नफरत की राजनीति को समझने में हमारी मदद करता है तथा भविष्य के लिए इन मसलों को सतर्कता के साथ सुलझाने हेतु प्रेरित करता है। आज समाज में धर्म के नाम पर जो जहर बोया जा रहा है उसका समाज पर क्या प्रभाव होगा? यह  कहा नहीं जा सकता। अल्पसंख्यक समुदाय किस प्रकार डर-भय के माहौल में जीने के लिए अभिशप्त हैं। दुर्भाग्य यह है कि देश में प्रमुख संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों की तरफ से कोई कड़ी चेतावनी, कार्रवाई नहीं की जा रही है। कई बार लगता है कि इन बातों को सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों का मौन समर्थन प्राप्त है।

मधु लिमये जी की, इतिहास तथा ऐतिहासिक मामलों की समझ बहुत स्पष्ट थी। स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न पक्षों के बारे में उनका नजरिया साफ था। न किसी किस्म की तंगनजरी और न ही अतिवादिता उनमें दिखाई पड़ती है।

चाहे नरमपंथ हों या गरमपंथ या स्वतंत्रता के ध्येय का आतंकवादी रास्ता, सब पर स्पष्ट राय रखते हैं। आतंकवाद और गरमपंथ के संदर्भ में कहते हैं : “जहाँ तक मेरा अपना खयाल है, मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं था। हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी का असहयोग और सिविल नाफरमानी की धारा ही मुख्यधारा रही। लेकिन यह कहना कि देशभक्ति की भावना राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीजी के अनुयायियों की बपौती थी तो अनुचित होगा। क्रांतिकारियों में न तीव्र देशभक्ति की भावना की कमी थी, न उज्ज्वल त्याग की। हां, हो सकता है कि उनके कुछ तौर-तरीके रोमांचकारी और वास्तविकता से हटकर थे परन्तु सभी देशों में नवयुवकों में ऐसे तौर-तरीकों के प्रति आकर्षण रहा ही है। अतः उनके उदात्त उद्देश्यों के प्रति संदेह प्रकट नहीं किया जा सकता।”

ठीक इसी प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन की आर्थिक नीति के संदर्भ, कई महत्त्वपूर्ण पक्षों से जुड़ते हैं। मधु जी के अनुसार शुरुआती दिनों में स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने की मांग कांग्रेस ने इसलिए आगे बढ़ायी कि उद्योगपति वर्ग की कांग्रेस के प्रति सहानुभूति थी। अतः इस वर्ग की रक्षा करने हेतु कार्यक्रम बनाना स्वाभाविक था। बाद के दिनों में जैसे-जैसे समाज के किसानों, मजदूरों और कमजोर तबकों का प्रवेश कांग्रेस में हुआ उनका दबाव कांग्रेस में बढ़ा, आर्थिक नीति के सवाल पर समाज के इस वर्ग के संरक्षण की मांग भी जोर पकड़ने लगी। लेकिन इसका कुछ खास आकर्षण गरीबों में नहीं बन पाया।यह प्रभाव भी क्षेत्रीय स्तर पर रहा, इसका कोई राष्ट्रीय स्वरूप उभरता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है। पंजाब और बंगाल में कांग्रेस शोषित वर्ग की प्रतिनिधि नहीं बन पायी। इन दोनों प्रान्तों में कांग्रेस जमींदारों, महाजनों की प्रतिनिधि ही मानी जाती रही। एक और महत्त्वपूर्ण सवाल उठाना जरूरी है कि आखिर क्या कारण है कि कांग्रेस, अंग्रेजों के आने से पहले भारत के आर्थिक गौरव की वापसी के सवाल को कभी महत्त्वपूर्ण सवाल बना पायी?

भारतीय समाज सदियों से जातियों, उपजातियों, छूत-अछूत में बंटा हुआ था, देश की अवनति के पीछे भी यह बड़ा कारण था। जब तक इन सामाजिक कुरीतियों को मिटाया नहीं जाएगा तब तक हम अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को हासिल नहीं कर पाएंगे। कई सामाजिक सुधार के क्षेत्र में काम करनेवाले नेताओं का मानना था कि सामाजिक सुधार का काम राजनीतिक आजादी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम था। ऐसे नेताओं में ज्योतिबा फुले का का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है जिन्हें इस काम को करने के लिए अपना घर भी छोड़ना पड़ा था। कांग्रेस अपनी स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद अपने अधिवेशनों के साथ समाज सुधार सम्मेलन भी बुलाती थी। इनमें बाल विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि पर प्रस्ताव पास किये जाते थे।

लेकिन तिलक, अरविंद घोष आदि प्रचीन परम्परा और विचारों से प्रभावित लोगों ने इसका विरोध किया। मधु जी लिखते हैं कि बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के लिए जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता का सवाल महत्त्वपूर्ण था। पढ़ा-लिखा विद्वान होने के बावजूद उन्हें भयंकर भेदभाव का शिकार होना पड़ता था, उनकी पीड़ा को जवाहरलाल और सुभाष बोस उस रूप में नहीं समझ पाये। गांधीजी अपने शुरुआती दिनों में वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन उत्तरोत्तर वे अपने को जातिगत सवाल पर बदलते गए। अस्पृश्यता निवारण के सवाल को उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण सवाल बनाया। बाद के दिनों वे उन्हीं शादियों में वर-वधू को बधाई देने जाते थे जिसमें एक पक्ष अनिवार्य रूप से दलित होता था। अतः मधु जी कहते हैं कि “जो लड़ाई स्वतंत्रता आन्दोल के दरम्यान छेड़ी गयी थी, वह आज भी जारी है। निसन्देह आज हरिजन-आदिवासियों और पिछड़े वर्गों में एक नयी चेतना जगी है। उनकी स्थिति में कुछ परिवर्तन आया है। लेकिन गांधी और अम्बेडकर जिस विषमता रहित समाज की कल्पना करते थे, वह अभी तक साकार नहीं हुआ है। गांधी जी के कारण भारत का स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ राजनीतिक न रहकर आर्थिक व सामाजिक आंदोलन भी बन सका था। उस समय तिलक-पक्ष यदि सामाजिक आंदोलन को स्वराज्य प्रप्ति के बाद की बात नहीं कहता, बल्कि उसी समय दोनों आंदोलन साथ-साथ चलते और उसी तरह जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगी समाजवादी आर्थिक चर्चा में लीन न रहकर सामाजिक विषमता दूर करने के लिए भी संघर्ष करते तो मेरा विचार है कि राजनीतिक परिवर्तन के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की गति भी आरंभ से ही तेज रहती। उसके उपरांत भी यह संतोष की बात है कि महात्मा फुले, गांधी, डॉ अम्बेडकर, डॉ लोहिया आदि के प्रयासों से हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की कमियां अंशतः ही सही दूर हुईं।”

इस प्रकार शताब्दी वर्ष में मधु जी को याद करने का मतलब है आजादी के दरम्यान देखे गए सपने को याद करना। उन सपनों को वास्तविकता में बदलने की प्रेरणा से परिचालित होना।संविधान और संवैधानिक मूल्यों को, सच्चे आदर्श रूप में स्थापित करना। मधु लिमये जी का संसदीय जीवन और राजनीति इन्ही आदर्शों से प्रेरित थी। आज जब सांसद, संसदीय राजनीति की अपनी न्यूनतम मर्यादा को भूलने लगे हैं ऐसी स्थिति में मधु लिमये एक प्रेरणा पुरुष के रूप में सामने आते हैं। उनकी याद को सलाम।

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