जहांगीरपुरी में चलते बुलडोजर की तस्वीरें एक बात साफ कर देती हैं : यह बुलडोजर मकानों, दुकानों और मस्जिद पर नहीं बल्कि संविधान पर चलाया जा रहा है। देश की राजधानी में, मीडिया के कैमरों के सामने और सुप्रीम कोर्ट की नाक के नीचे खुल्लमखुल्ला चल रहे इस विध्वंस का एक ही इशारा था : इस देश का संविधान बदल चुका है।
किसी संविधान की लिखाई को बदलने के दो तरीके होते हैं। आप चाहें तो औपचारिक तरीका अपना सकते हैं और मूल संविधान का स्वरूप बिगाड़ सकते हैं जैसा कि इंदिरा गांधी ने कुख्यात 42वें संविधान संशोधन के जरिए किया था। दूसरा उपाय है कि आप नरेन्द्र मोदी सरकार का पसंदीदा अनौपचारिक तरीका अपनाएं। इस तरीके में आपको संविधान में लिखे शब्दों को बदलने की जरूरत नहीं होती- बस संविधान से छुटकारा पा लेना होता है, उसे त्याग देना होता है। संविधान में जिन मर्यादाओं का उल्लेख है- उन पवित्र मर्यादाओं का उल्लंघन करना होता है, संविधान-प्रदत्त गारंटियों से मुंह मोड़ लेना होता है और इस बात को सुनिश्चित कर लेना होता है कि संविधान अगर एक करार है तो इस करार को उसकी मूल भावना के साथ कोई भी लागू करने वाला न रहे।
यह अनौपचारिक तरीका कई मायनों में कहीं ज्यादा कारगर होता है। एक आम नागरिक के लिए संविधान का क्या अर्थ होता है? वही, जो सामने खड़ा थानेदार उसको कहता-बताता है। वह पवित्र पोथी जिसका नाम संविधान है तभी प्रासंगिक है जब आपका थाना-प्रभारी या फिर जिला मजिस्ट्रेट या इससे आगे बढ़ते हुए कहें तो आपके मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री यानी वे लोग जिनसे उम्मीद की जाती है कि वे संविधान में लिखी बातों को लागू करेंगे, खुद संविधान से बॅंधकर आचरण करें। अगर ऐसा नहीं होता यानी मान लीजिए कि आपके थाना-प्रभारी का बरताव बदल जाता है, वह वैसा बरताव बिल्कुल नहीं करता जैसा कि संविधान के अनुसार उसे करना चाहिए तो फिर थानेदार का यह बदला हुआ बरताव बिल्कुल वैसा ही हुआ जैसे कि संविधान में संशोधन करना और संविधान की मूल लिखाई को बदल देना। बेशक, गिने-चुने कुछ खास लोग अदालतों तक पहुंच सकते हैं, अदालत के दरवाजे पर अपनी गुहार लगा सकते हैं लेकिन न्यायपालिका अगर संविधान वर्णित प्रावधानों को लागू करवा पाने में नाकाम रहती है तो यह भी वैसा ही हुआ जैसा कि संविधान से छुटकारा पा लेना।
रामनवमी और हनुमान जयंती के बीच
किसी किन्तु-परन्तु या दुविधा की कोई गुंजाइश मत रखिए- बात बिल्कुल शीशे की तरफ साफ है कि इस साल रामनवमी (10 अप्रैल) और हनुमान जयंती (16 अप्रैल) के बीच जो कुछ हमने देखा वह संविधान की बुनियाद यानी समान नागरिकता की गारंटी को तिलांजलि देने जैसा था। संविधान के अन्य हिस्सों को पहले ही रद्द, संशोधित या/और विकृत किया जा चुका है या फिर ऐसे कह लें कि संविधान के अन्य हिस्सों के बिगाड़ की यह प्रक्रिया अभी चालू है। वह संविधान जो 26 जनवरी 1950 के दिन चलन में आया वह जल्दी ही एक ऐसी नियमावली में बदल सकता है जिसका जमीनी सच्चाइयों से कुछ भी लेना-देना नहीं रह जाएगा।
न, इस भ्रम में मत रहिएगा कि हम यहां किसी जुमलेबाजी से काम ले रहे हैं। किसी संवैधानिक लोकतंत्र में लिखित संविधान की भूमिका सिर्फ शासन-प्रशासन के नियम तय करने भर तक सीमित नहीं। शासन-प्रशासन बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त चलता रहे इसके लिए नियमों की संहिता की जरूरत तो तानाशाहों को भी होती है। लेकिन, संवैधानिक लोकतंत्र में शासन-प्रशासन की नियमावली यानी संविधान नाम की पवित्र पोथी के होने का मतलब है एक ऐसी युक्ति का होना जो लोकतांत्रिक रीति से चुनी गई सरकारों पर लगाम कस सके। लोकतांत्रिक रीति के संविधान मर्यादा की कुछ लकीरें खींचते हैं कि किसका प्रभाव-क्षेत्र किस दायरे तक रहेगा और मर्यादा की इन रेखाओं को लांघने की सख्त मनाही होती है : लोकतांत्रिक रीति का संविधान इतना भर ही नहीं बताता कि किस पद पर बैठा व्यक्ति क्या कुछ करेगा बल्कि उसमें सबसे ज्यादा यह बताया गया होता है कि किस पद पर बैठा व्यक्ति क्या-क्या नहीं कर सकता। लोकतांत्रिक ढर्रे का संविधान बहुसंख्यक की शासन-व्यवस्था को चलाये रखने भर की युक्ति नहीं है बल्कि उसमें यह भी बताया गया होता है कि बहुसंख्यक तबके के लिए किन चीजों को करना मना है। अगर संविधान शासकों पर अंकुश नहीं लगाता तो समझिए वह संविधान है ही नहीं। और, आज हम ऐसे ही सूरते-ए-हाल को देख रहे हैं।
देश में रामनवमी और हनुमान जयंती के बीच जो कुछ हुआ वह कोई अचानक हुई दुर्घटना नहीं। उसे मुकामी किस्म की झड़प या गुंडागर्दी का नाम नहीं दिया जा सकता। रामनवमी और हनुमान जयंती के बीच जो कुछ हुआ वह अपमानित करने का एक कर्मकांड था और उस कर्मकांड की तमाम कड़ियां आपस में जुड़ी हुई थीं, बिल्कुल सोच-समझकर सारा खेल रचा गया।
यों समझिए कि अपमानित करने का यह कर्मकांड कई चरणों में विभक्त था। पहला चरण : कोई धार्मिक शोभा यात्रा निकालिए, चाहे इसकी अनुमति ली गयी हो या न ली गयी हो। इस शोभायात्रा में जोर-शोर से बजते डीजे होने चाहिए और शोभायात्रा की शोभा बढ़ाने के लिए उसमें लाठी, तलवार और संभव हो तो आग्नेयास्त्र से सुसज्जित `शोभा-वीर` होने चाहिए। दूसरा चरण : शोभायात्रा को मुसलमानों की रिहाइश वाली जगहों के रास्ते ले जाइए और सुनिश्चित कीजिए कि शोभायात्रा किसी मस्जिद के पास आकर कुछ देर को जरूर विराम ले। इस काम के लिए स्थानीय पुलिस की मौन सहमति मिल जाए, उसके साथ सांठगांठ हो जाए तो अच्छा! तीसरा चरण : उकसाइए, भड़काइए और भड़काने के करतब करते जाइए। भड़काने का यह करतब नफरती नारों के सहारे कर सकते हैं, धर्मान्धता की दुहाइयों से पटे पड़े गीत बजाकर कर सकते हैं या फिर आप सीधे-सीधे कुछ कारनामे कर दिखाने की ठान सकते हैं। जैसे, किसी पवित्र जगह को अपवित्र बनाने के करतब करना (जैसे कि मस्जिद की मीनार पर चढ़ना) या वहां भगवा झंडा गाड़ने जैसा कृत्य।
ऐसे में मुसलमानों के पास सिर्फ दो रास्ते बचते हैं : वे या तो धमकी के साये में जिएं या फिर अपने घर, मकान-दुकान पर बुलडोजर चलाया जाता देखें। अगर वे सरेआम की जा रही इस बेइज्जती को बर्दाश्त कर लेते हैं तो फिर अपनी ही नजरों में कायर ठहरते हैं। अगर वे प्रतिकार करने का रास्ता चुनते हैं तो फिर इन तमाम चीजों से आंखें मूंदकर सोती रहनेवाली पुलिस अपराधी मानकर उनपर झपट्टा मारेगी। सो, मुसलमानों के आगे कोई चारा ही नहीं बचता कि वे आखिर करें तो क्या करें।
संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन
जरा इस बात पर गौर करें कि सार्वजनिक रूप से अपमानित करने के इस कर्मकांड को सम्पन्न करने के लिए संविधान का कितने कोनों से उल्लंघन किया गया। जो संगठन इस कर्मकांड को सम्पन्न करने में लगे हैं उनका युद्धनाद है- ‘हिन्दुस्तान में रहना है तो जय श्रीराम कहना होगा’ और यह धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। इससे भी अहम बात यह है कि राजसत्ता किसी सुनियोजित हमले से अल्पसंख्यक समुदाय को बचाने में नाकाम रहती है तो यह अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन और निजता की स्वतंत्रता की रक्षा की गारंटी का उल्लंघन है।
गौर करें कि दृश्य कैसा बन पड़ा है—बहुसंख्यक समुदाय के स्वयंभू प्रतिनिधि वैमनस्य फैलानेवाले बोल-वचन और हिंसा के उकसावे जैसे कृत्यों पर लगे तमाम अंकुश का उल्लंघन करते हैं लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के इन प्रतिनिधियों के अतिरिक्त जो बाकी दूसरे लोग हैं, उन्हें ऐसा करने की सख्त मनाही है। यह धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने की संवैधानिक मनाही और समानता के अधिकार का सीधे-सीधे विलोपन है।
संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के इन तमाम उदाहरणों के बीच साफ दिखायी दे रहा है कि देश में नागरिकों की दो श्रेणियां बन गयी हैं : एक श्रेणी हिन्दुओं की है और दूसरी श्रेणी में सभी गैर-हिन्दू शामिल हैं। पहली श्रेणी के नागरिकों को भले अभयदान हासिल न हो, तो भी, इस श्रेणी के नागरिकों को संविधान प्रदत्त अधिकार हासिल हैं और इन अधिकारों की रक्षा की गारंटी हासिल है। दूसरी श्रेणी के नागरिक भी इन अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन सिर्फ उसी हालत में जब सरकार और बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों की मर्जी हो। संविधान के सीने पर यह बड़ी चोट मारने की तरह है, इतनी बड़ी चोट कि वह हमारी कल्पना के बाहर हो।
संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन का एक सिलसिला सा चल पड़ा है, खासकर 2019 से और अभी जो घटनाएं हुई हैं उन्हें अधिकारों के सिलसिलेवार उल्लंघन की इन घटनाओं में सबसे अव्वल मान सकते हैं। जम्मू एवं कश्मीर सूबे के दो फाड़ किये गये लेकिन इसमें राज्य विधानसभा की रजामंदी नहीं ली गयी जबकि ऐसा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य (अनुच्छेद 3) है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई और मामले में संविधान को अमल में लाने की दिशा में कोई इच्छा नहीं दिखायी तो ऐसी स्थिति के मद्देनजर हम मानकर चल सकते हैं कि संविधान के भाग-1 के कुछ मुख्य प्रावधानों से अब कुट्टी कर ली गयी है। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 की अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने समीक्षा नहीं की जबकि यह अधिनियम संविधान के भाग-II पर गहरी चोट मार चुका है। मौलिक अधिकारों के वर्णन वाले संविधान के भाग-III पर इतने सारे दाग-धब्बे लग चुके हैं कि उनकी गिनती मुश्किल है।
संविधान में वर्णित अधिकारों के उल्लंघन के हालिया वाकये को देखते हुए लगता है कि विधि के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14), अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19), अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण (अनुच्छेद 20), अंतरात्मा की स्वतंत्रता एवं किसी भी धर्म को मानने, बरतने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) तथा अधिकारों के प्रवर्तन के विधायी उपाय (अनुच्छेद 32) सरीखे अधिकार या तो अभी प्रभावी नहीं हैं या फिर उन्हें समाप्त किया जा चुका है।
राजसत्ता के कर्तव्यों में शामिल है कि वह आर्थिक गैर-बराबरी तथा धन-संपदा के चंद लोगों के हाथों में सिमटते जाने (अनुच्छेद 38(2) तथा 39(सी)) के ढर्रे पर लगाम कसेगी लेकिन यह तो हमेशा से एक मजाक का विषय रहा है और आजकल तो एक नौटंकी में तब्दील हो चुका है। ऐसा जान पड़ता है कि संविधान के मौलिक कर्तव्यों वाले हिस्से (अनुच्छेद 51ए) में एक अघोषित फेरबदल हुआ है : असहमति न प्रकट करना अब एक मौलिक कर्तव्य बन गया है।
कहना न होगा कि संविधान की हत्या की जा रही है, यह हत्या हर रोज हो रही है और सरेआम गली-मुहल्लों में हो रही है। नजर तो यही आ रहा है कि नागरिक, खासकर धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक तबके के नागरिक एक नयी व्यवस्था के दायरे में जी रहे हैं। वह गणराज्य जिसे बाबासाहेब के संविधान ने आकार दिया था, अब खत्म हो चला है।
क्या हम भारतीय गणराज्य को बचा सकते हैं?
क्या कोई राह बची है? क्या अब भी संविधान की रक्षा की जा सकती है? क्या अब भी गणराज्य पर अपनी दावेदारी फिर से हासिल की जा सकती है?
हां, किया जा सकता है लेकिन रास्ता आसान नहीं है। हमारा संविधान एक भव्य महल की तरह था जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बनी विचारधाराई सहमति और कांग्रेस पार्टी के रचे-बसाये इंद्रधनुषी गठबंधन की बुनियाद पर टिका था। अब ये दोनों आधार-स्तंभ गिरने को हैं। हमारा संविधान खुद को जिलाये रखने की शक्ति से संपन्न था और न्यायपालिका के पास इस संविधान का अनुपालन करवाने की जिम्मेदारी थी।
बीते कुछ सालों में हमें कठोर सबक सीखने को मिला है। सबक यह कि संविधान का जो भव्य ढांचा हमने खड़ा किया वह बड़ा कमजोर है। अब यह बात साफ हो चुकी है कि शीर्ष स्तर की न्यायपालिका एक सर्व-शक्तिशाली सरकार के दबावों को सह पाने में सक्षम नहीं और न ही वह उस नयी विचारधारा से अपने को निरपेक्ष रख पा रही है जो संविधान की बेअदबी पर उतारू है। जाहिर है, फिर जब तक शक्ति-संबंधों का नये सिरे से संयोजन नहीं होता, नया सामाजिक गठजोड़ कायम नहीं होता और संवैधानिक मूल्यों का नये सिरे से सूत्रीकरण नहीं होता तब तक संविधान की हिफाजत नहीं हो सकती. संविधान अपनी रक्षा आप नहीं कर सकता। ऐसी कोई बाहरी या अंदरूनी गारंटी नहीं है जो संविधान को बचा सके। गणराज्य की रक्षा के लिए जन-गण को लामबंद होना होगा।
हाल के बीते कुछ दिन इस बात के उदासी भरे सबूत हैं कि गणराज्य के मुहाफिजों के हाथ से समय बड़ी तेजी से निकलता जा रहा है।
(द प्रिंट से साभार)