मधु जी पर गांधीजी का गहरा असर था

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

— डॉ सुनीलम —

धु लिमये जी के जीवन में गांधी जी की तरह सादगी, दृढ़ निश्चय, ईमानदारी, विश्वसनीयता के सारे गुण थे। गांधीवाद के माध्यम से समाजवाद लाया जाए ऐसी उनकी आंतरिक इच्छा थी। मधु जी पर गांधीजी का गहरा असर था। वे कहते थे गांधी जी के कारण मेरी जीवन दृष्टि उजली हो गयी, उन्होंने मेरी जीवन दृष्टि तथा चिंतन को काफी प्रभावित किया। पुलिस लाठी चला रही है लोग शांति से लाठी सह रहे हैं। यह दृश्य रोंगटे खड़े करनेवाला था। गांधीजी के कारण ही वे दहशतवादी लोगों की तरफ आकृष्ट नहीं हुए। शरीर से अत्यंत दुबले दिखने वाले इस बूढ़े ने 1946-47 में अकेले नोआखली (बिहार) में दंगों की आग बुझाने की कोशिश की। गांधीजी के समान मधु जी डॉ आंबेडकर के प्रति आदर का भाव रखते थे। वे कहते थे भारत का निर्माण गांधी और आंबेडकर दोनों के विचार समन्वय से होगा।

डॉ.आंबेडकर पर लिखी अपनी किताब में मधु जी ने अस्पृश्यता के मसले पर आंबेडकर तथा गांधीजी के रुख का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। मधु जी कहते थे कि दोनों में अस्पृश्यता निवारण की प्रबल इच्छा थी इसके बावजूद दोनों एक दूसरे का सहयोग नहीं कर सके। वजह खोजने पर पता चलता है कि जन्म से आयी हुई भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि ही इसकी वजह थी।

एक जन्म-मृत्यु के चक्र में विश्वास रखनेवाला, दूसरा उसपर विश्वास न करनेवाला। अस्पृश्यता पाप है लेकिन जाति व्यवस्था समाज के लिए उपयुक्त, एक समय गांधीजी यह मानते थे। आंबेडकर को जाति व्यवस्था को लेकर यह नजरिया कैसे स्वीकार्य हो सकता था?

जाति व्यवस्था के कारण ही समय-समय पर भारत को विदेशी आक्रांताओं के सामने शिकस्त खानी पड़ी। आंबेडकर दलितों को ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से मुक्त कराना चाहते थे। आंबेडकर मानते थे कि धर्म गुरुओं ने कभी भी जाति और अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज नहीं उठाई। सब मानव समान हैं यह ना कहकर भगवान के सामने सब समान हैं ऐसा उन्होंने कहा। वे कभी भी सामाजिक अस्पृश्यता के खिलाफ खड़े नहीं हुए। डॉ आंबेडकर के अनुसार जाति व्यवस्था खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका अंतरजातीय विवाह है।

मधु जी दलितों के बारे में कहते थे कि उन पर सदियों से अन्याय हुआ है। उसका निराकरण 60 फीसदी आरक्षण से करना चाहिए। मधु जी, डॉ लोहिया की तरह ही अपने विचारों को लागू करवाने के लिए संघर्ष करते रहे। मधु जी ने जो कहा वही किया। चौथी लोकसभा में मधु जी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे।

डॉ लोहिया की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने नेता पद से इस्तीफा देकर कहा कि  60 फीसदी पिछड़ों में से श्री रवि राय जी को संसदीय बोर्ड का नेतृत्व दिया जाए। वास्तव में 60 फीसदी प्रतिनिधित्व देने की शर्त पूरी करने के लिए ही उन्होंने पिछड़ी जाति के रवि राय जी को संसदीय ग्रुप का नेतृत्व सौंपा।

साम्यवादियों के बारे में भी मधु जी ने काफी लिखा। 1951 में उन्होंने ‘कम्युनिस्ट पार्टी : फैक्ट एंड फिक्शन’ नाम की किताब लिखी थी जिसकी सराहना करते हुए जेपी ने कहा था कि यह किताब सोशलिस्टों के लिए टेक्स्टबुक होनी चाहिए।

1942, भारत पर चीन के हमले, आपातकाल, सुभाष चंद्र बोस और ज्योति बसु के मूल्यांकन आदि प्रश्नों पर उन्होंने कड़ी टिप्पणियां कीं।

वे बार-बार कहते थे कि 1952 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में चुनकर आयी थी लेकिन आज सभी जगह उसकी स्थिति अंधकारमय हो गयी है। वे कहते थे वामपंथी इकट्ठा नहीं हुए तो समाजवादी लोकतंत्र का भारत में कोई स्थान नहीं रहेगा।

मधु लिमये जी ने ‘सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरेक्शन इन इंडिया’ नामक अपनी किताब में कम्युनिस्टों और समाजवादियों के पारस्परिक संबंधों की आजादी से लेकर अपनी किताब लिखे जाने तक की विस्तृत समीक्षा की है। इसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यदि कम्युनिस्टों और सोशलिस्ट ने एक जगह आकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए तो आनेवाले दशकों में समाजवादी लोकतंत्र को कोई अवसर भारत में नहीं मिलेगा।

वे समाजवाद की नयी व्याख्या के पक्षधर थे। वे कहते थे कि नेताओं के व्यक्तिगत अहंकार और कम्युनिस्टों की पोथी निष्ठा को दूर करना अत्यावश्यक है। मधु जी कहते थे कि सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के एक जगह नहीं आने का लाभ संप्रदायवादियों को लगातार प्राप्त होता रहा है। उन्हें इस बात का गहरा दुख था कि सर्वधर्म समभाव की ऊंची आवाज में जय जयकार होती है लेकिन धर्मांध शक्तियां दिन-प्रतिदिन प्रबल होती जा रही हैं।

मधु जी को बिहार का ज्ञानकोश कहा जाता था, और प्रखर संसदविद भी। 1964 में मुंगेर (बिहार) से जीतकर उन्होंने  तीसरी लोकसभा में प्रवेश किया था। 1967 में वे फिर जीते लेकिन 1971 के चुनाव में 100 बूथों पर हुई लूटपाट के चलते हार गए। 2 साल बाद 1973 में फिर से बांका उपचुनाव जीतकर लोकसभा में आए। आपातकाल में संसद की मियाद बढ़ाए जाने पर उन्होंने 18 मार्च 1976 को जेल में रहते हुए लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में वे फिर चुने गए। जनता पार्टी और जनता सरकार की टूट के बाद 1980 के चुनाव में वे हार गए।

तीसरी लोकसभा में मधु जी की इतनी जबरदस्त धाक थी कि उन्हें एक बड़े ब्रिटिश अखबार ‘डेली मेल’ ने भारत के माइकल फुट (विपक्ष के नेता) का खिताब दिया। ‘फाइनेंसियल  टाइम्स’ ने उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा धर्मवीर कहा। उन्होंने विरोधी दलों को संसद के भीतर नया मार्ग दिखाया। मंत्रियों पर लगाम लगाने के नए तरीके सिखाए। उन्होंने विशेषाधिकार प्रस्ताव को प्रभावशाली हथियार की तरह इस्तेमाल किया। 1967 में उन्होंने चुनाव में अत्यधिक धन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगानेवाला विधेयक पेश किया जिसे सरकार ने स्वीकार किया। वह बाद में कानून भी बना।

संसदीय नियमों और संसदीय प्रक्रिया के वे गहरे जानकार थे। उनको  हेम बरुआ, हीरेन मुखर्जी और नाथ पई  की पंक्ति में सबसे आगे माना जाता है।

जिस समय डॉ लोहिया और मधु जी लोकसभा में थे उस समय को संसद के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है। कम संख्या में होकर भी विपक्ष कुछ कर सकता है इसकी मिसाल उन्होंने कायम की थी। संसद के कई सदस्य यह कहते थे कि उनके कानों में दो ही आवाजें गूंजती हैं, एक लता मंगेशकर की, दूसरी मधु लिमये जी की।

यही कारण था कि रूस के राष्ट्रपति ब्रेझनेव भारत आए तो उन्होंने अकेले में मधु जी से आधे घंटे बातचीत की। 1964 से 1967 के बीच उन्होंने सरकार की नाक में दम कर दिया था जिसके कारण सरकार इतना डर गयी कि 1967 के चुनाव के दौरान उनपर हमला भी हुआ और हत्या का षड्यंत्र भी रचा गया।

वरिष्ठ पत्रकार और सांसद रहे कुलदीप नैय्यर जी के शब्दों में मधु जी एक आदर्शवादी सांसद थे। उन्होंने जितने सवाल संसद में उठाए उतने सवाल किसी सांसद ने नहीं उठाए। वे हर प्रश्न समाज व देश को दृष्टि में रखकर करते थे।

पूरी  संसद और देश ने उनका लोहा तब मान लिया जब एक बार इंदिरा जी ने बजट रखा। इंदिरा जी के भाषण के बाद मधु जी कुछ बोलना चाहते थे परंतु लोकसभा अध्यक्ष ने सदन  स्थगित कर दिया। तुरंत मधु जी ने लोकसभा अध्यक्ष को समझाया कि वित्त विधेयक लोकसभा के समक्ष नहीं रखा गया इसके कारण रात के 12 बजे के बाद सरकार का सारा वित्तीय काम ठप हो जाएगा क्योंकि सरकार के किसी भी विभाग को एक पाई भी खर्च करने का अधिकार नहीं होगा। स्थिति की गंभीरता को समझने के बाद रेडियो से ऐलान कर रात को लोकसभा का विशेष सत्र कुछ मिनटों के लिए बुलाया गया और वित्त विधेयक पास किया गया।

सांसदों के बीच कहा जाता है कि लोकसभा में लोहिया जी ने कृष्ण की और मधु जी ने अर्जुन की भूमिका निभाई। यानी  जनता की लड़ाई को संसद में यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः को चरितार्थ किया।

‘दिनमान’ के संपादक अज्ञेय जी ने लिखा था- आज की लोकसभा का अर्थ है मधु लिमये, एक छरहरे बदन का अत्यंत निरीह व्यक्ति, जो रोज संसद के आरंभ में ही खड़ा होकर अपने सवालों की बौछार से शासक दल का मुंह बंद कर देता है। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय जनतंत्र के इतिहास में डॉ लोहिया तथा लिमये जी के जैसे सांसद मिलना मुश्किल है। अपने संसदीय जीवन के कार्यकाल में जितने घोटालों का पर्दाफाश मधु जी ने किया उतना किसी ने भी नहीं किया। सत्य कितना भी अप्रिय क्यों न हो, कहना ही चाहिए। उसकी तरकीब तो खोजनी ही चाहिए ऐसा उनका आग्रह था। वे हमेशा सत्य की खोज में रहे।

मधु जी जीवन में नैतिकता और पारदर्शिता को सर्वोच्च स्थान पर रखते थे। संसद में चावल घोटाले की उन्होंने पोल खोली थी जिससे तमाम व्यापारियों को लाभ हुआ था। एक व्यापारी ने 1000 रुपये का मनीऑर्डर मधु लिमये जी को भेज दिया जिसे मधु जी के कार्यालय में स्वीकार कर लिया गया। मधु जी को जब मालूम हुआ तो उन्होंने मनीआर्डर स्वीकार करनेवाले साथी को कहा कि हम किसी व्यापारी के दलाल हैं क्या? दूसरे दिन मधु जी के द्वारा साभार पैसा वापस कर दिया गया।

मधु जी जनता पार्टी के शासनकाल में सत्ता के केंद्र में रहे, वे चाहते तो बहुत संपत्ति बना सकते थे परंतु वे अंतिम दिनों तक छोटे से फ्लैट में रहते थे, वह भी बिना फ्रिज और टीवी के, खुद खिचड़ी बनाकर खाते थे और चाय खुद बनाकर पीते और पिलाते थे। हालांकि सहायक शोभन उनकी सेवा के लिए उपलब्ध रहते थे।

ऐसे थे मधुजी, जिनकी जन्म शताब्दी हम इस वर्ष मनाएंगे।

मधुजी के सक्रिय राजनीति से अलग हो जाने के बाद, प्रोफेसर विनोद प्रसाद सिंह जी के साथ, जब भी मैं दिल्ली में रहता था, मधु जी से मिलने जाया करता था। लंबे अरसे तक मुझे उनके सत्संग का अवसर मिला।

मुझे मधुजी के ईमानदारीपूर्ण , सादगी भरे, सरल, पारदर्शी संघर्षपूर्ण जीवन, पुणे से आकर बिहार की राजनीति में उनके गहरे प्रभाव के साथ-साथ चुनावी जीत ने अत्यधिक प्रभावित किया।

इस तथ्य को कम लोग जानते हैं कि मधु जी को ब्रिटिश हुकूमत, पुर्तगाली शासकों और भारत सरकार ने आपातकाल सहित 23 बार बन्दी बनाया। चार बार उन्हें एक साल से अधिक की सजा हुई। पुर्तग़ाली सरकार ने उन्हें 12 साल की सजा सुनाई थी लेकिन पोप की मध्यस्थता के कारण 19 महीने बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी जेल डायरी को आज गोवा मुक्ति आंदोलन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है।

आनेवाली पीढ़ियों के लिए मधु जी सदा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।


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