कम्प्यूटर क्रान्ति के विस्फोट के बाद विकेन्द्रीकरण को लेकर एक मिथ व्यापक स्तर पर प्रचलित हो रहा है कि अब केन्द्रीकृत उत्पादन की आवश्यकता नहीं रह गयी है। आधुनिक तकनीक के समर्थक यह कहते भी सुने जा सकते हैं कि ऊर्जा की समस्या के हल हो जाने के बाद- जिसकी सम्भावना वे सौर ऊर्जा में देखते हैं- पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो हल होगी ही, साथ ही ऊर्जा उत्पादन का विकेन्द्रीकरण भी सम्भव हो जाएगा। ऐसा होने पर केन्द्रीकरण से पैदा होनेवाली आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक परिणामों से बचा जा सकेगा। इसलिए आधुनिक तकनीकी के विकास और सफल प्रयोग में ही हमारी समस्याओं का समाधान निहित है।
क्या सचमुच ऐसा है? लेकिन क्या अभी तक आधुनिक उत्पादन की पद्धति सफल नहीं होती रही है? यह माना जाता रहा है कि उत्पादन की समस्या के हल के लिए ही आधुनिक तकनीकी का आविष्कार हुआ है और उसके विकास के साथ-साथ उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता, दोनों में लगातार बढ़ोतरी होती रही है। उत्पादन में बढ़ोतरी को ही तकनीकी की सफलता की कसौटी माना जा सकता है और इस दृष्टि से यह कहना तार्किक विसंगति होगी कि उत्पादन के बढ़ने के साथ-साथ आर्थिक समस्याएं कम होने की बजाय न केवल अधिक बढ़ी हैं, बल्कि उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम भी अधिक विकराल होते गये हैं।
इतिहास में पहले भी विश्वविजय का प्रयास करने वाले व्यक्तित्व और प्रवृत्तियाँ रही हैं, लेकिन उनके विजय-अभियानों में हिंसा, नरसंहार शोषण और उत्पीड़न का जो तांडव आधुनिक उत्पादन-तकनीकी के विकास के साथ प्रकट हुआ है, उसकी कल्पना भी इतिहास के उस दौर में नहीं की जा सकती थी। आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा का जो बोध और तनाव और उसके कारण सफलतम माने जा सकने वाले वर्गों और व्यक्तियों में भी मनोव्याधियों का जो विस्तार दिखायी दे रहा है, वह यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि इस उत्पादन-पद्धति ने न केवल आर्थिक-राजनीतिक स्तर पर, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी नयी समस्याएं पैदा की हैं।
हम अकसर यह मान लेते हैं कि समस्या केवल उत्पादन और उसके लिए निवेश की है और उसके मानवीय परिणामों की ओर से आँखें मूँद लेते हैं- जान-बूझ कर यह भूल जाते हुए कि मनोव्याधियाँ व्यक्तिगत विफलताओं से ही नहीं पैदा होतीं; बहुत हद तक वे आर्थिक प्रक्रिया से प्रसूत सामाजिक संरचनाओं का परिणाम भी होती हैं- और आर्थिक प्रभाव तो सीधे उत्पादन प्रक्रिया से पैदा होते ही हैं।
कुछ लोग उत्पादन-प्रक्रिया और लाभ के वितरण की समस्या को अलग-अलग करके देखते हैं, लेकिन वे यह भूल रहे होते हैं कि लाभ पर सामाजिक अधिकार तभी सम्भव है, जब उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो और पूँजी और उससे प्रसूत सत्ता के केन्द्रीकरण और निरंकुशता का वास्तविक समाधान तभी सम्भव है, जब उत्पादन के साधनों का नियंत्रण सीधे उत्पादक श्रम के हाथों में हो, यानी वास्तविक अर्थों में एक विकेन्द्रित तकनीकी ही असली लोकतंत्र अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को सत्ता का वैसा अधिष्ठान बनाने में कामयाब हो सकती है जिसे महात्मा गांधी स्वराज कहते हैं।
यहाँ बेरी कॉमनर का यह कथन भी स्मरण हो आता है कि हमारी अधिकतर समस्याएँ तो आधुनिक तकनीकी की विफलता नहीं, बल्कि उसकी सफलता के परिणाम हैं। बेरी कॉमनर का सन्दर्भ बिंदु आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याओं से जुड़ा है, लेकिन इस बात का विस्तार सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन तक हो जाता है।
यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक भूमण्डलीकरण और उससे प्रसूत नव-उपनिवेशवाद का विकास उसी कम्प्यूटर क्रान्ति का सहजात है, जिसमें हमारे कई अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री विकेन्द्रीकरण की सम्भावना देखते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि विकेन्द्रीकरण और संयमित उपभोग एक-दूसरे से अभिन्न हैं। यदि कथित विकेन्द्रीकरण का लक्ष्य भी उपभोग में वृद्धि ही होगा तो उसके सामाजिक परिणाम भी लगभग वही होंगे जो अभी दिखायी दे रहे हैं।
दरअस्ल, उपभोग के स्तर और परिमाण को विकेन्द्रीकृत तकनीकी के आधार पर बढ़ाया ही नहीं जा सकता। यदि हम अधिकांशतः स्थानीय संसाधनों के आधार पर उपभोग की अपनी मात्रा को सुनिश्चित नहीं करते और उसे निरंतर बढ़ाते जाते हैं तो उसकी आपूर्ति के लिए बड़ी मशीनों से होनेवाला उत्पादन, माल को ढोने के लिए बड़ी क्षमता वाले यातायात के साधन और उसकी व्यवस्था के लिए केन्द्रीकृत प्रबन्धन और उसके कुशलतापूर्वक संचालन के लिए फिर केन्द्रीकृत तकनीकी और उसके केन्द्रीकृत स्वामित्व की जरूरत पेश आएगी ही। साथ ही, यदि हमारा ध्यान केवल उत्पादन वृद्धि पर लगा रहता है- एक अमूर्त उपभोक्ता के लिए उत्पादन वृद्धि की ओर – तो उसका भी आवश्यक परिणाम असंयमित उपभोग ही हो सकता है। दरअस्ल, यह एक दूषित चक्र है जिसे कभी उत्पादन वृद्धि, तो कभी उपभोग वृद्धि गतिशील बनाये रखती है।
इसलिए उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ यह ध्यान रखना जरूरी है कि उसका प्राथमिक लक्ष्य उपभोग को बढ़ाना नहीं, बल्कि सामान्य मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि कम्प्यूटर क्रान्ति से सम्भावित विकेन्द्रीकरण अनिवार्यतः उत्पादन का विकेन्द्रीकरण नहीं है। वह प्रबन्धन और उत्पादन को भिन्न स्थानों पर रखते हुए भी जोड़े तो रख सकता है, लेकिन बड़ी मात्रा के उत्पादन की अनिवार्यता को समाप्त नहीं करता, न उपभोग की मात्रा पर ही नियन्त्रण रख सकता है।
कम्प्यूटर अनाज, कपड़ा, लोहा और सीमेण्ट आदि या उनसे बननेवाली उपभोग-सामग्री का उत्पादन नहीं कर सकते। वे अधिक से अधिक उसके प्रबन्धन और विपणन में मददगार हो सकते हैं। इससे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, पूँजी के असुरक्षित निवेश और उसके उतार–चढ़ाव के आर्थिक, सामाजिक और भावात्मक परिणामों और उस उत्पादन को खपाने के लिए बाज़ार की होड़ और उसके राजनीतिक-सैनिक परिणामों में कोई कमी आने की सम्भावना नहीं है। इसीलिए कम्प्यूटर-क्रान्ति के आधार पर विकेन्द्रीकरण की बात करनेवाले दूसरी ही साँस में आर्थिक भूमण्डलीकरण की बात करने लग जाते हैं।
इसलिए आर्थिक विकेन्द्रीकरण का वास्तविक तात्पर्य केवल उत्पादन-स्थलों की बहुलता नहीं, बल्कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों, उऩके अनुरूप विकसित स्थानीय तकनीकी के माध्यम से किया गया वह उत्पादन है जिसका लक्ष्य स्थानीय समाज की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करना है। केवल उत्पादन-स्थलों की बहुलता और अधिकाधिक उपभोग की निरन्तरता को लक्ष्य मान कर किया जानेवाला उत्पादन वास्तविक आर्थिक विकेन्द्रीकरण का आधार नहीं बन सकता।
शायद यही कारण है कि जब महात्मा गांधी जैसे लोग आर्थिक विकेन्द्रीकरण की बात करते हैं तो वे संयमित उपभोग और स्थानीय संसाधनों के आधार पर स्थानीय जरूरतों की पूर्ति को उसकी अनिवार्य पूर्वशर्त मानते हैं। यदि आर्थिक की परिभाषा और व्याख्या में उत्पादन की मात्रा ही नहीं, बल्कि उस उत्पादन का उपभोक्ता और संसाधनों का भविष्य भी माना जाता है- और क्यों नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वही तो अन्ततः आर्थिक प्रक्रिया का वास्तविक लक्ष्य है और लक्ष्य तक पहुँचना ही प्रक्रिया की पूर्णता और वैधता है- तो केवल उत्पादन स्थलों की बहुलता नहीं, बल्कि संयमित उपभोग के लिए उत्पादन ही वास्तविक आर्थिक विकेन्द्रीकरण का आधार बन सकता है और उसी में उत्पादन-सम्बन्ध वास्तविक अर्थों में न केवल भावनात्मक स्तर पर मानवीय, बल्कि राजनीतिक स्तर पर लोकतान्त्रिक या कहें स्वराज का घटक बन सकते हैं।
इसलिए आर्थिक विकेन्द्रीकरण केवल उत्पादन का नहीं, बल्कि उपभोग का सवाल भी है जिसका वास्तविक समाधान कम्प्यूटर में नहीं, बल्कि हमारी जीवन दृष्टि में; हमारे विवेक में है।
कम्प्यूटर सूचनाओं का विस्फोट करते हैं, विवेक हमें अपने अंदर उगाना होता है। गांधीजी का स्वदेशी केवल उत्पादन प्रक्रिया नहीं, बल्कि विवेक है।